दोस्तों धरती पर रह रहे तमाम लोगों के बारे में यह बात सुस्पष्ट रूप से कही जा सकती है की धरती पर के सारे लोग अंततः धरती का भला चाहते हैं,और तकरीबन हर कोई शायद धरती को स्वर्ग ही बनाना चाहता है,अब यह बात अलग है कि इस सपने को फलीभूत करने के लिए जो कर्म करने होते हैं,उन्हें करना तो दूर,सही तरह से उनपर विचार भी नहीं किया जाता...तो आदमी द्वारा की जाने वाली इस प्रकार की बातें दरअसल एक मज़ाक ही लगती हैं...एक बहुत बड़ा बेहूदा मज़ाक...!!जो धरती के हर एक कोने में लाखों-करोड़ों लोग हर वक्त विलापते रहते हैं....और बड़े सुकून से ठीक उसी वक्त वो धरती का सीना छलनी करते हुए होते हैं....जिस वक्त वो धरती के बारे में बड़ी-बड़ी बातें करते हुए होते हैं...और एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि धरती को सबसे ज्यादा छलनी करने वाले या इसे लूटने वाले लोग ही धरती को सुन्दर बनाने की बातें करते हैं,तथा इसे करने के लिए वो तरह के दान-धर्म आदि भी करते हैं...और इस तरह वो दानवीरता के "कर्ण"कहलाये जाते हैं...और धरती के समाज पर उनका प्रभुत्व अन्य लोगों की अपेक्षा और-और-और बढ़ता जाता है...!!
दोस्तों जिस तरह हम सब इंसान धरती पर जीने के लिए अपने लिए बेहतर से बेहतर संसाधन चाहते हैं और सुख से जीना चाहते हैं....ठीक उसी तरह धरती भी हमसे ऐसा ही चाहती है,किन्तु धरती मूक है...यह हमसे कभी कुछ नहीं बोलती इसलिए हम यह समझ ही नहीं पाते...दोस्तों धरती पिछले बहुत से समय से आदमी वेदना से तड़प रही है...हमने तरह-तरह के कैंसर से धरती को इतना ज्यादा पीड़ित कर दिया है कि धरती इन घावों से से बुरी तरह छटपटा रही है....किन्तु,चूँकि वह हमसे कुछ नहीं बोलती....सो उसकी तड़प को हम नहीं समझ पाते.....और ना ही अपनी उस माँ,जिसने हमें जन्म देकर पाला-पोषा और बड़ा करके ऐसा बनाया कि हम उसकी गोद में एक बेहतरीन जीवन को अंजाम दे सकें....उस माँ के असीम दर्द को देखने की चेष्टा तक नहीं करते हम सब....और मजा यह कि धरती पर के सबसे श्रेष्ठ जीव भी हम सब मानव ही हैं.....यह स्वनामधन्यता हमारी इस लाचार माँ की पीड़ा और कसक को और भी ज्यादा बढाए देती हैं...!!
सबसे पहले तो दोस्तों हमें यह बात और तमीज हमेशा के लिए हमारे जेहन में धर लेनी चाहिए कि यह धरती हम इंसानों में सबके या किसी भी एक के बाप की नहीं है...यह धरती इस पर रह रहे तमाम असंख्य प्राणियों की भी है...जिन्हें हम जानते और नहीं जानते हैं...मगर उफ़ हमने उन असंख्य प्राणियों को धरती पर से ना सिर्फ बेदखल करते जा रहे हैं,बल्कि इस तरह से धरती के बहुरंगी पने को,इसकी विविधता को भी जान-बूझकर मिटाए दे रहे हैं....यह सब महज इसलिए कि हम मानव -जात शान से रह सकें....??किन्तु यहाँ भी हम मानव-जात एक तुच्छ जात ही साबित हुए जाते हैं... क्यूंकि जिस धरती को हम अपने लिए सुख की सेज बनाए रखना चाहते हैं....उसी धरती को अपने सुख और सेज के लिए ना जाने कितने ही अगणित बाशिंदों को भूखे-बेहाल-कंगाल और मरने की हद तक लाचार बनाकर रखा हुआ है...जब कुछ करोड़ लोग इस धरती पर मौज-मठ्ठा/हंसी-ठठ्ठा कर रहे होते हैं....ठीक उसी वक्त अरबों लोग भूख से तड़प रहें होते हैं....पानी के लिए,रोटी के लिए और कुछ अन्य साधनों के लिए आपस में मारामारी कर रहे होते हैं...!!
यह बहुत अजीब बात है कि जो धरती किसी एक के बाप की नहीं है,इस धरती का एक छोटा-सा टुकडा भी किसी एक की जागीर नहीं है...उस धरती पर जन्म लेने वाले लोग धरती के टुकड़े- टुकड़े कर बेच-खा रहे हैं....और उन टुकड़ों की खातिर कुत्तों से भी ज्यादा बुरी तरह से लड़-झगड़ रहें हैं...और धरती के इन तरह-तरह के टुकड़ों के लिए खून की नदियाँ तक बहा देने में इन्हें कोई संकोच नहीं है...!!(धरती के कुत्ते मुझे क्षमा करेंगे...आदमी के इस विषय में उन जैसे वफादार जीवों का नाम घसीटे जाने को लेकर मैं सचमुच बेहद शर्मिन्दा हूँ...!!)
दोस्तों...धरती का हर-एक कण हम सबके लिए हैं....जिनका उपयोग हमें हमारे सम्यक जीवन जीने के लिए करना था...और खुद को एक सभ्य जात या प्राणी मानने के (स्वनामधन्य एवं अतिरंजित)गुण के कारण अपने पास के किसी भी एक अतिरिक्त कण को अन्य आदमी को प्रदान कर उसे उसके जीने में सहयोग प्रदान करना चाहिए था....किन्तु बजाय ऐसा करने के हमने धरती के इन तरह-तरह से जीवन-दायिनी और सुख-दायिनी कणों को संपत्ति बनाकर उस संपत्ति को तरह-तरह से अपने पास रखने का दुष्कर्म करना शुरू कर डाला....यह दुष्कर्म आज जिन उंचाईयों तक जा पहुंचा है... कि अरबों भूखे-नंगे लोगों के बीच अरबों डालरों की संपत्ति कमाए हुए लोगों को अपना नाम अमीर लोगों की लिस्ट में देखना बजाय शर्म,एक हेंकड़ी-एक अहंकार-एक गौरव का अहसास करता है...और मजा यह कि धरती पर के ही संसाधनों को अपनी ताकत से अपने हक़ में इस्तेमाल कर अमीर से अमीरतम बने हुए लोगों की हेंकड़ी यह है कि उन्होंने यह सब अपनी बुद्धि से किया है...एक मजेदार बात है यह कि आदमी अपनी अपनी बुद्धि का उपयोग सिर्फ और सिर्फ अपने लिए धन-संपत्ति और बल पैदा करने और उसे और बढाते जाने के लिए करता है.....दूर के लोगों की बात तो छोडिये...उसके खुद के सगे-सम्बन्धी भी भूखे हो सकते हैं....और फिर भी ऐसे लोगों का सम्मान समाज में तनिक भी कम नहीं होता...!!
दोस्तों इस धरती पर हर जगह बुद्धि का परचम लहरा रहा है....और अपना धन या ताकत इसलिए सबको वाजिब प्रतीत होता है,क्यूंकि बुद्धि द्वारा स्थापित तर्क इसे सही साबित हैं करते हैं...यह अहंकार कि यह सब मैंने अपने कर्म और बुद्धि से पाया है....यहाँ यह बात गायब कर दी जाती है कि ज्यादातर यह हासिल वाजिब या न्याय-संगत तरीकों से ना होकर शाम-दाम-दंड-भेद-तीन-तिकड़म- छल-कपट यहाँ तक कि धूर्तता-मक्कारी से किया गया होता है....ऊँचे दर्जे का यह कपट हमारी व्यवस्था से मान्यता प्राप्त होता है....क्यूंकि हम व्यवस्था के विभिन्न तरह के लोग या कल-पूर्जे इसी तरह से अपना पोषण "ग्रीस-मोबिल"आदि प्राप्त करते हैं....हमारी मिलीभगत से हम सब जो,जिस भी किस्म के उद्योग-धंधे या व्यापार में शामिल होते हैं....इस मिलीभगत से अपने कुछ लोगों को प्रश्रय देते हैं....बाकी सबको बाहर कर देते हैं...!!इस तरह से हमारे कुछ लोगों का समूहीकरण अंततः धरती की सामूहिकता को नष्ट करते जाते हैं...क्यूंकि धरती की सामूहिकता उसकी प्रकृति में व्याप्त जीवनोनुकुल नासर्गिकता है जो सबको जीने के व्यापक अवसर प्रदान करती है....जबकि हम मानव प्रत्येक प्राणी के लिए मौजूद इन अवसरों को अपने स्वार्थजनित कुप्रयास-कुप्रबंधन द्वारा तोड़ते चले जाते हैं....!!
हमारे द्वारा किये जाने वाले ऐसे प्रयासों के कारण धरती भीतर से खोखली और बाहर से हरीतिमा-विहीन,प्रदूषित और ना जीने लायक होती चली जा रही है.....और इसे इस हालत तक लाने की जिम्मेवार ताकतें ही इसकी मानव-जाति का नेतृत्व कर रही हैं,किये जा रही हैं...करती जाएंगी...!!
बुद्धि के साथ विकास के कुप्रबंध का कोई उदाहरण देखना हो तो यह पृथ्वी के हर उस कोने में देखा जा सकता है,जहां भी आदमी नाम का जीव मौजूद है...जो अपने सिवा धरती के हर एक चीज़ को मते दे रहा है....और अपने में से भी कमजोर लोगों को मते दे रहा है....पता नहीं ऊपर वाले ने आदमी को बनाए जाते समय इस भयावह समय की कल्पना की थी या नहीं...मगर अगर धरती आज जीने योग्य साधनों से रिक्त होती जा रही है तो उसका कारण महज आदमी का अतिलालच-अतिअहंकार-अतिस्वार्थ और अतिबुद्धिवादिता है....और आदमी ही यह समझता नहीं....अपनी अतिबुद्धिवादिता के ही कारण...जहां-जहां ही अति बुद्धिनिष्ठ है...वहां-वहां उसने धरती पर के संसाधनों और मानव तथा प्राणिजगत के जीवनोपयोगी साधनों पर कब्जा जमाये हुए है...और ऐसा करना चूँकि वह अपनी बुद्धि के बूते हुए होना मानता है...इसलिये उसे अपनी यह बपौती ना सिर्फ वाजिब बल्कि यही सही है,ऐसा लगता है उसे...!!
दोस्तों पढ़े-लिखे और सभ्य होने का अगर सिर्फ धन कमाने और इस धन कमाने के लिए दूसरों का हक़ छीनना भर है....तो लानत है इस सभ्यता पर...तो फिर छोडिये भी धरती को स्वर्ग बनाने के कपट-भरे विचार को और यह कहिये कि हम सिर्फ अपने लिए ऐसा कहते हैं और अपने लिए ही ऐसा करना भी चाहते हैं....तो ज्यादा ईमानदारीपूर्ण होगा और मानवीयता के ज्यादा करीब भी... किन्तु एक और तो मानवता की बातें....और दूसरी तरफ सिर्फ व् सिर्फ तमाम अमानवतापूर्ण कृत्य यह हमारे चरित्र को बिलकुल भी शोभा नहीं देते....अगर हम यह मानते हैं कि हम तनिक भी चरित्रवान हैं...और हाँ यह भी सही है कि हम आगे भी ऐसा ही करते रहने वाले हैं....तो फिर दोस्तों आज से यह सब बातें बंद.....!!क्या बंद....??धरती को स्वर्ग बनाने की बातें या इसके पर्यावरण के नष्ट होते जाने की चिंता भरी बातें......!!आप बस अपना काम किये जाओ....जो भोगना है.....हमारी संताने भोग लेंगी ना.....अपन को चिंता काहे को लेने की.....!!!!
हमारे द्वारा किये जाने वाले ऐसे प्रयासों के कारण धरती भीतर से खोखली और बाहर से हरीतिमा-विहीन,प्रदूषित और ना जीने लायक होती चली जा रही है.....और इसे इस हालत तक लाने की जिम्मेवार ताकतें ही इसकी मानव-जाति का नेतृत्व कर रही हैं,किये जा रही हैं...करती जाएंगी...!!
बुद्धि के साथ विकास के कुप्रबंध का कोई उदाहरण देखना हो तो यह पृथ्वी के हर उस कोने में देखा जा सकता है,जहां भी आदमी नाम का जीव मौजूद है...जो अपने सिवा धरती के हर एक चीज़ को मते दे रहा है....और अपने में से भी कमजोर लोगों को मते दे रहा है....पता नहीं ऊपर वाले ने आदमी को बनाए जाते समय इस भयावह समय की कल्पना की थी या नहीं...मगर अगर धरती आज जीने योग्य साधनों से रिक्त होती जा रही है तो उसका कारण महज आदमी का अतिलालच-अतिअहंकार-अतिस्वार्थ और अतिबुद्धिवादिता है....और आदमी ही यह समझता नहीं....अपनी अतिबुद्धिवादिता के ही कारण...जहां-जहां ही अति बुद्धिनिष्ठ है...वहां-वहां उसने धरती पर के संसाधनों और मानव तथा प्राणिजगत के जीवनोपयोगी साधनों पर कब्जा जमाये हुए है...और ऐसा करना चूँकि वह अपनी बुद्धि के बूते हुए होना मानता है...इसलिये उसे अपनी यह बपौती ना सिर्फ वाजिब बल्कि यही सही है,ऐसा लगता है उसे...!!
दोस्तों पढ़े-लिखे और सभ्य होने का अगर सिर्फ धन कमाने और इस धन कमाने के लिए दूसरों का हक़ छीनना भर है....तो लानत है इस सभ्यता पर...तो फिर छोडिये भी धरती को स्वर्ग बनाने के कपट-भरे विचार को और यह कहिये कि हम सिर्फ अपने लिए ऐसा कहते हैं और अपने लिए ही ऐसा करना भी चाहते हैं....तो ज्यादा ईमानदारीपूर्ण होगा और मानवीयता के ज्यादा करीब भी... किन्तु एक और तो मानवता की बातें....और दूसरी तरफ सिर्फ व् सिर्फ तमाम अमानवतापूर्ण कृत्य यह हमारे चरित्र को बिलकुल भी शोभा नहीं देते....अगर हम यह मानते हैं कि हम तनिक भी चरित्रवान हैं...और हाँ यह भी सही है कि हम आगे भी ऐसा ही करते रहने वाले हैं....तो फिर दोस्तों आज से यह सब बातें बंद.....!!क्या बंद....??धरती को स्वर्ग बनाने की बातें या इसके पर्यावरण के नष्ट होते जाने की चिंता भरी बातें......!!आप बस अपना काम किये जाओ....जो भोगना है.....हमारी संताने भोग लेंगी ना.....अपन को चिंता काहे को लेने की.....!!!!
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