16.4.11

कुंवर प्रीतम के मुक्तक


कुंवर प्रीतम के मुक्तक 

मेरा दिल क्यूँ धड़क बैठा, ये साँसें कंपकंपाई क्यूँ
तुम्ही ने कुछ किया होगा, हवाएं तेज आई क्यूँ 
अचानक क्यूँ महक आई, आकर छू गयी तन-मन
सिहर उट्ठा बदन मेरा, ये आँखें डबडबाई क्यूँ.

परिंदे रात में, ख्वाबों में आकर गुनगुनाते  हैं
नहीं मालूम मेरा गम या अपना गीत गाते हैं
गुटरगूं उनकी सुनने को मैं जब भी कान देता हूँ
झुका कर शर्म से पलकें, परिंदे भाग जाते हैं

लगाना, तोड़ देना दिल, कहो कैसी इनायत है
कभी मुझसे कहा क्यूँ था, मोहब्बत ही इबादत है
जो चाहो फैसला कर लो, मगर सुन लो हमारी भी 
है मुजरिम भी तुम्हारा और तुम्हारी ही अदालत है 

कुंवर प्रीतम
कोलकाता 

3 comments:

  1. `The Best`

    Thank 4 sharing

    Markand Dave

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  2. जो चाहो फैसला कर लो, मगर सुन लो हमारी भी
    है मुजरिम भी तुम्हारा और तुम्हारी ही अदालत है


    wah! kya kamaal ki bat kahi he!

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  3. bahut bahut sundar nahi ati sundar lage sare ke sare muktak.aapkilekhni jabardast hai.
    bahut hi shandaar prastuti.
    pranaam sahit dhanyvaad
    dhanyvaad

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