राहुल गांधी के नाम एक खुले पत्र में उनसे शासन की खराब दशा पर ध्यान देने की अपेक्षा कर रहे हैं प्रताप भानु मेहता
प्रिय राहुल गांधी यह स्वाभाविक है कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव आपकी इस समय सबसे बड़ी व्यस्तता होंगे। इन चुनावों के परिणाम की भविष्यवाणी करना कठिन है, लेकिन यदि आप अच्छा प्रदर्शन करते भी हैं तो क्या भारत के लिए वाकई जश्न मनाने का अवसर होगा? चुनावी सफलता यह प्रदर्शित करेगी कि आप विपक्ष से बेहतर हैं, लेकिन यह आधार अब इतना नीचा हो गया है कि विपक्ष से थोड़ा-बहुत बेहतर होना ही पर्याप्त नहीं हो सकता। 2009 में कांग्रेस को एक ऐसा जनादेश मिला था जो किसी भी राजनीतिक दल की आकांक्षा हो सकती है। उस जनादेश में आशा थी, आकांक्षा थी। विपक्ष-वामपंथ और दक्षिणपंथ संकुचित हो गया था, लेकिन भारत को क्या मिला? उसने अच्छे अवसर को गंवा दिया। भविष्य के लिए मजबूत नींव बनाने में विकास का इस्तेमाल करने तथा इस क्रम में निर्धनता समाप्त करने की कोशिश करने के बजाय हमने विकास की संभावनाओं को सीमित कर दिया। आज हमारे सामने ऊंची मुद्रा स्फीति है, चिंताजनक ऋण है, विकास की दर धीमी हो रही है, मुद्रा की घटती कीमत का संकट है और निवेश में गिरावट हो रही है। क्या आप गंभीरता से यह सोचते हैं कि इस सबका देश के निर्धन वर्ग पर कोई बुरा असर नहीं हो रहा होगा? देश की प्रगति के लिए जिन मुद्दों पर आगे बढ़ने की जरूरत है उनमें तनिक भी काम होता नजर नहीं आता। शासन का केंद्रीकरण अभी स्थायी बना हुआ है। जीएसटी पर कोई गंभीर प्रगति नहीं हो पा रही है। ऊर्जा का संकट बढ़ता जा रहा है। सूचना के अधिकार को छोड़ दिया जाए तो कोई सार्थक प्रशासनिक सुधार नहीं हुआ। इस सब पर राजनीतिक पूंजी के गंभीर निवेश के बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता। कुछ राज्यों को छोड़कर कृषि अभी भी घाटे का सौदा बनी हुई है। भ्रष्टाचार अमिट है। जिम्मेदारी और जवाबदेही का अभाव भी एक स्थायी समस्या है। प्रत्येक संस्थान, यहां तक कि प्रधानमंत्री कार्यालय तक भी कमजोर नजर आ रहा है। विवादों और शिकायतों के समाधान के लिए तंत्र की क्षमता पर सवाल बढ़ते जा रहे हैं। संसद में लंबित विधेयकों का अंबार लगता जा रहा है। आपकी सभी पसंदीदा योजनाएं गुजरे हुए कल के साथ संघर्ष कर रही हैं। मनरेगा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। हो सकता है कि आपका दल विरोधियों की तुलना में कुछ बेहतर हो, लेकिन आप खुद को पहचान वाली उस राजनीति से दूर नहीं रख पा रहे हैं जिसने अब तक भारत को छोटा बनाए रखा है। हो सकता है कि यह सब इतना खराब न हो। आखिरकार सात प्रतिशत की दर से विकास हो रहा है, लेकिन इस तथ्य ने आपकी सरकार को आश्चर्यजनक ढंग से आत्मतुष्ट बना दिया है। चिंता के दो कारण हैं। पहला, जैसा कि आप जानते हैं कि पूंजी आधारित विकास में रोजगार की सीमा वैश्विक स्तर पर सिुकड़ रही है। अगर भारत को अपने अनगिनत युवाओं को रोजगार देना है तो कहीं अधिक तेजी से प्रगति करनी होगी। दूसरा, हमें स्वास्थ्य, शिक्षा, बुनियादी ढांचा, शहरों के निर्माण और शोध एवं विकास में कहीं अधिक सहभागिता की जरूरत है। वैश्विक अनिश्चितता के बावजूद यह भारत के लिए बहुत बड़े अवसर का समय है, लेकिन यह मौका हमेशा नहीं रहेगा। अगर हम इस दशक को गंवा देंगे तो हमेशा के लिए गरीबी से अभिशप्त हो जाएंगे। एफडीआइ एक अच्छा विचार हो सकता था, लेकिन विश्वास के अभाव में इसे क्रियान्वित करा पाना आपके लिए संभव न हुआ। सभी को महसूस हुआ कि एफडीआइ सुधारों को दृष्टिगत रखते हुए नहीं लाया गया है। बेहतर होता कि वर्तमान सत्र के बाद यह प्रस्ताव लाया जाता, जबकि आपकी पार्टी की विश्वसनीयता कुछ विधायी उपलब्धियों के बाद बढ़ जाती। भूमि अधिग्रहण बिल भी एक अच्छा कदम था, लेकिन इस पर तेजी से काम करने की बजाय सरकार ने अपनी अनिच्छा ही जाहिर की। आपने लोकपाल को संवैधानिक निकाय बनाने की बात कही-बिना यह जाने कि इसके लिए कितनी कठिन मेहनत और राजनीतिक सहमति की आवश्यकता होगी? राज्यसत्ता के उपयोग के मामले में कांग्रेस काफी निर्दयी रही है। इसी तरह जनजवाबदेही के मामले में वह असंवेदनशीलता और गैर बौद्धिकतावादी विचारों के मामले में पूर्वाग्रह से ग्रस्त दिखती है। हो सकता है कि मायावती एक भ्रष्ट सरकार चला रही हों, लेकिन उन्होंने राज्य को पुर्नगठित करने के दिशा में कम से कम प्रस्ताव लाने का साहस तो दिखाया, जबकि आप बुंदेलखंड की दुर्दशा पर केवल भाषण ही देते नजर आए। तेलंगाना के मसले पर आप पहले से ही संघर्ष करते नजर आ रहे हैं। भारतीय राज्यों का भविष्य आप कहां देखते हैं और इनमें हैदराबाद जैसे बड़े शहरों को आप कहां पाते हैं? आपने अपना ध्यान भारत के गरीबों पर केंद्रित रखा है, लेकिन आप उनका उपयोग अधिक करते नजर आ रहे हैं। भारत के अधिकांश नागरिक अब समझ चुके हैं कि राष्ट्र को सही रूप में खड़ा करना है, परंतु जो बात वह नहीं समझ पाए हैं वह है जनकल्याण के नाम पर बर्बादी, जवाबदेही के नाम पर केंद्रीकरण और नई व्यवस्था के आविष्कार के बदले नौकरशाही की शक्ति का बढ़ना। बजाय इसके कि गरीबी का खात्मा हो आपकी सरकार उन्हें ठगती दिख रही है। भारत को अब अधिक सामाजिक योजनाओं की आवश्यकता है, लेकिन सरकार इन्हें जिस रूप में और जिस अपरिपक्व तरीके से लागू कर रही है उससे इन योजनाओं के लक्ष्यों को हासिल कर पाना संभव नहीं। आपकी पार्टी दो तरह के भ्रमों में फंसी हुई है। पहला यह कि सुशासन और राजनीति दो अलग चीजें हैं और दूसरा यह कि केवल गरीबों के प्रति केंद्रित योजनाएं ही गरीबों का भला कर सकती हैं। आपने गरीबों के नाम पर देश की वृहद अर्थव्यवस्था के ढांचे को तोड़ दिया है और सुशासन के अभाव में गरीबों को भी धोखा दिया है। चालीस की उम्र की हमारी नई पीढ़ी पर एक ऐतिहासिक जिम्मेदारी है और इससे बचने का कोई सवाल नहीं उठता। पूर्ववर्ती पीढि़यों को बड़ी विषमताओं से जूझना पड़ा है। सही मायनों में उत्तर औपनिवेशिक काल के बाद हमारी पीढ़ी पहली है जो इस सबके प्रति अधिक गंभीर और जागरूक है। हमारी पीढ़ी पहली है जो गंभीरता से अनुभव करती है कि भारत को अब और दरिद्र नहीं होना है, लेकिन हमारे लिए अवसर की खिड़कियां सीमित हैं। आपके नेतृत्व के बारे में क्या कहा जाए जिसमें इन भावनाओं की ठीक तरह से समझ ही नहीं है। महान नेतृत्व वह होता है जो सामान्य प्रतिभाओं को भी कुछ विशिष्ट में परिणत कर देता है और बाधाओं को अवसर में बदल देता है। कांग्रेस को मजबूती देने के लिए आप जो प्रयास कर रहे हैं वे आवश्यक हैं, लेकिन लेकिन राष्ट्र के विनाश की कीमत पर क्या किसी पार्टी को खड़ा किया जा सकता है? (लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च के अध्यक्ष हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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