27.2.12

मैं आज़ाद हूं...

गुलामी के उस दौर में जब गोरों के जुल्म को देश के तमाम लोगों ने नियति मान लिया था...उसी दौर में एक किशोर गोरी हुकूमत की ताबूत में कील ठोकने पर आमदा हो जाए तो इसे हम क्या कहेंगे...गोरों के बनाये कायदे कानून तोडने के लिये एक छोटे से लडके को जिसकी उम्र १५ या १६ साल की थी और जो अपने को आज़ाद कहता था उसे बेंत की सजा दी गयी। वह नंगा किया गया और बेंत की टिकटी से बांध दिया गया। जैसे-जैसे बेंत उस पर पडते थे और उसकी चमडी उधेड डालते थे...वह 'महात्मा गान्धी की जय' चिल्लाता था। हर बेंत के साथ वह लडका तब तक यही नारा लगाता रहा, जब तक वह बेहोश न हो गया। बाद में वही लडका उत्तर भारत के क्रांतिकारियों के दल का एक बडा नेता बना...जी हां मैं बात कर रहा हूं...महान बलिदानी क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की जो 27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में गोरी हुकुमत से युद्ध लड़ते-लड़ते शहीद हो गए थे...1922 में गाँधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन को अचानक बन्द कर देने के कारण आजाद की विचारधारा में बदलाव आया और वे क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़ कर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशनके  सक्रिय सदस्य बन गये। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में 9 अगस्त 1925 को काकोरी काण्ड को अंजाम दिया इसके बाद सन् 1927 में 'बिस्मिल' के साथ 4 प्रमुख साथियों के बलिदान के बाद उन्होंने उत्तर भारत की सभी क्रान्तिकारी पार्टियों को मिलाकर एक करते हुए हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसियेशन का गठन किया तथा भगत सिंह के साथ लाहौर में लाला लाजपत राय की मौत का बदला सॉण्डर्स का वध करके लिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने अपने स्वभाव से साहसी, स्वाभिमानी, हठी और वचन के पक्के थे। वे न दूसरों पर जुल्म कर सकते थे और न स्वयं जुल्म सहन कर सकते थे। ईमानदारी और स्वाभिमान के ये गुण बालक चन्द्रशेखर ने अपने पिता से विरासत में सीखे थे। साण्डर्स की हत्या और दिल्ली एसेम्बली बम काण्ड में फांसी की सजा पाने वाले तीन क्रान्तिकारी साथियों भगत सिंह, राजगुरुसुखदेव की शहादत के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद बेहद दुखी हो गये थे। एक रोज इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में बैठ आजाद को गोरे सिपाहियों ने घेर लिया...आजाद ने अंग्रेजों के आगे आत्मसमर्पण करने की बजाए जान देना बेहतर समझा और अपने पास बची आखिरी गोली खुद को मार ली। यह दुखद घटना 27 फरवरी 1931 के दिन घटित हुई और हमेशा के लिये इतिहास में दर्ज हो गयी। आजाद की पुण्यतिथी पर आपको आजाद के जीवन के कुछ संस्मरणों से अवगत कराना चाहूंगा...एक बा‍र आजाद कानपुर के मशहूर व्यवसायी सेठ प्यारेलाल के निवास पर एक समारोह में आये हुये थे...प्यारेलाल प्रखर देशभक्त थे और प्राय: क्रातिकारियों की आथि॑क मदद भी किया क‍रते थे...आजाद और सेठ जी बातें कर ही रहे थे तभी सूचना मिली कि पुलिस ने हवेली को घेर लिया है...प्यारेलाल घबरा गये फिर भी उन्होंने आजाद से कहा कि वे अपनी जान दे देंगे पर उनको कुछ नहीं होने देंगे। आजाद हँसते हुए बोले-"आप चिंन्ता न करें, मैं कानपुर के लोगों को मिठाई खिलाये बिना जाने वाला नहीं।" फिर वे सेठानी से बोले- "आओ भाभी जी! बाह‍र चलकर मिठाई बांट आयें।" आजाद ने गमछा सिर पर बाँधा, मिठाई का टो़करा उठाया और सेठानी के साथ चल दिये। दोनों मिठाई बांटते हुए हवेली से बाहर आ गये। बाहर खडी पुलिस को भी मिठाई खिलायी। पुलिस की आँखों के सामने से आजाद मिठाई-वाला बनकर निकल गये और पुलिस सोच भी नही पायी कि जिसे पकडने आयी थी वह परिन्दा तो कब का उड चुका है...चन्द्रशेखर आज़ाद हमेशा सच बोलते थे। एक बार आजाद पुलिस से छिपकर जंगल में साधु के भेष में रह रहे थे तभी वहां एक दिन पुलिस आ गयी। पुलिस ने साधु वेश धारी आजाद से पूछा-"बाबा....आपने आजाद को देखा है क्या?" साधु भेषधारी आजाद तपाक से बोले- "बच्चा आजाद को क्या देखना, हम तो हमेशा आजाद रहते‌ हें हम भी तो आजाद हैं।" पुलिस समझी बाबा सच बोल रहा है, वह शायद गलत जगह आ गयी है अत: हाथ जोडकर माफी माँगी और उलटे पैरों वापस लौट गयी। ऐसे थे आजाद...27 फरवरी को चंद्रशेखर आजाद की पुण्यतिथि थी...जिनका योगदान भारत की आजादी में इतना अहम है कि जब ये योद्धा गोरों से लोहा लेते हुए शहीद होता है तो उसकी शहादत को महात्मा गांधी से लेकर मदनमोहन मालवीय सरीखे स्वतंत्रता सेनानी महान बलिदान करार देते हैं...लेकिन हमारे देश में बडे – बडे नेताओं के जन्मदिन औऱ पुष्यतिथी पर तो बडे बडे आजोयन होते हैं...लेकिन देश की आजादी के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने वाले महान क्रांतिकारियों के ना तो जन्मदिन किसी को याद रहता है औऱ ना ही शहादत। हमारे देश की सरकार को तो आजाद की शहादत तो याद रही नहीं...औऱ ना ही उऩ राजनीतिक दलों के नुमाइंदों को जो अपनी पार्टी के किसी नेता के जन्मदिन या पुण्यतिथी पर शहरों को बैनर – पोस्टरों से पाट देते हैं...लेकिन जिनकी बदौलत आज ये लोग खुली हवा में सांस ले पा रहे हैं...उनकी जन्मदिन औऱ शहादत तक इन्हें याद नहीं रहती।
दीपक तिवारी

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