मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
आज विज्ञान दिवस है और इस देश में आज विज्ञान की हालत बदतर से बदतरीन की हालत में जा चुकी है,इसका कारण महज इतना है कि विज्ञान नाम की चीज़ को यहाँ की भाषाओं में पेश ही नहीं किया गया कभी,एक अर्धसाक्षर देश के कम-पढ़े-लिखे लोगों को उचित प्रकार से शिक्षा से ही नहीं जोड़ा जा सका आज तक,तब वैज्ञानिक सोच की बात करना तो और भी दूर की कौड़ी है !
पराई भाषा से भारत का वंचित तबका ना तो अब तक जुड़ पाया है और ना ही कभी जुड़ भी पायेगा क्योंकि जिस भाषा में उसका ह्रदय धडकता है वह भाषा महज उसके आपस की दैनिक बातचीत को आदान-प्रदान करने का माध्यम भर है मगर दुर्भाग्य यह है कि उस भाषा में उसकी शिक्षा का अवसर नहीं,तो क्या आश्चर्य कि भारत,जो कभी विश्व को नौ प्रतिशत वैज्ञानिक योगदान दिया करता था,आज महज ढाई प्रतिशत के आंकड़े पर जा गिरा है और यहाँ तक कि वैज्ञानिकता के नाम पर भारत के वैज्ञानिक महज कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चाकरी कर संतुष्ट है,इस सन्दर्भ में कटु सत्य तो यह है कि भारत के पास अपने होनहार वैज्ञानिकों के लिए काम ही नहीं है !
अंग्रेजी के शिक्षा-जगत में पूर्ण वर्चस्व के कारण भारत का बहुसंख्य तबका शिक्षा की अच्छाईयों से पूर्ण-रूपेन कट गया यहाँ तक कि इस बहुसंख्या को शिक्षा तक पराई प्रतीत होती है,ऐसे विज्ञान को कौन पूछे जब शिक्षा ही पराई हो,वैज्ञानिकता का भाव तो शिक्षा के बाद ही पैदा होता है !
मगर उसके बाद भी कुछ ऐसे अवसर थे जहां भारत के लोग अगुआ बन सकते थे,वो क्षेत्र थे देशी तकनीक और वैज्ञानिकता के क्षेत्र,मगर अपने देशी ज्ञान को दीन-हीन मानकर हमने उसका भी सत्यानाश कर डाला और आज हालत यह है कि हम ना यहाँ के हैं और ना वहाँ के,देशी ज्ञान को भी हम खो चुके हैं और विदेशी ज्ञान जो एक कठिन और पराई भाषा में है,उसका लाभ यहाँ के लोग ले नहीं पा रहे क्योंकि वो उसे समझते ही नहीं !
मगर हद तो इस बात है कि हम जो हिंदी-हिंदी-हिंदी कहते-करते नहीं अघाते,उस हिंदी को हमने महज भावुकता की-कविता की-साहित्य की भाषा भर बना डाला और तरह-तरह के पखवाड़े आयोजित कर उसका सम्मान करते रह गए तथा भांति-भांति की गोष्ठियां कर आपस में ही तालियाँ पिटवाते रह गए...हिंदी को हमने साहित्य के अलावा ज्ञान-विज्ञान के लिए निकृष्ट भाषा बना डाला और अब जब हम विश्व में अनेकानेक क्षेत्रों में विश्व के छोटे-छोटे देशों से पिछड़ चुके हैं तब भी हमें होश आ गया हो,यह संभावना मुझे अब भी दिखाई नहीं देती और तब ऐसे में विज्ञान तो विज्ञान,देश के करोड़ों होनहारों को वास्तविक शिक्षा दे पाने की सोच पाना भी एक सपना ही है....!!(राजीव थेपड़ा)
आज विज्ञान दिवस है और इस देश में आज विज्ञान की हालत बदतर से बदतरीन की हालत में जा चुकी है,इसका कारण महज इतना है कि विज्ञान नाम की चीज़ को यहाँ की भाषाओं में पेश ही नहीं किया गया कभी,एक अर्धसाक्षर देश के कम-पढ़े-लिखे लोगों को उचित प्रकार से शिक्षा से ही नहीं जोड़ा जा सका आज तक,तब वैज्ञानिक सोच की बात करना तो और भी दूर की कौड़ी है !
पराई भाषा से भारत का वंचित तबका ना तो अब तक जुड़ पाया है और ना ही कभी जुड़ भी पायेगा क्योंकि जिस भाषा में उसका ह्रदय धडकता है वह भाषा महज उसके आपस की दैनिक बातचीत को आदान-प्रदान करने का माध्यम भर है मगर दुर्भाग्य यह है कि उस भाषा में उसकी शिक्षा का अवसर नहीं,तो क्या आश्चर्य कि भारत,जो कभी विश्व को नौ प्रतिशत वैज्ञानिक योगदान दिया करता था,आज महज ढाई प्रतिशत के आंकड़े पर जा गिरा है और यहाँ तक कि वैज्ञानिकता के नाम पर भारत के वैज्ञानिक महज कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चाकरी कर संतुष्ट है,इस सन्दर्भ में कटु सत्य तो यह है कि भारत के पास अपने होनहार वैज्ञानिकों के लिए काम ही नहीं है !
अंग्रेजी के शिक्षा-जगत में पूर्ण वर्चस्व के कारण भारत का बहुसंख्य तबका शिक्षा की अच्छाईयों से पूर्ण-रूपेन कट गया यहाँ तक कि इस बहुसंख्या को शिक्षा तक पराई प्रतीत होती है,ऐसे विज्ञान को कौन पूछे जब शिक्षा ही पराई हो,वैज्ञानिकता का भाव तो शिक्षा के बाद ही पैदा होता है !
मगर उसके बाद भी कुछ ऐसे अवसर थे जहां भारत के लोग अगुआ बन सकते थे,वो क्षेत्र थे देशी तकनीक और वैज्ञानिकता के क्षेत्र,मगर अपने देशी ज्ञान को दीन-हीन मानकर हमने उसका भी सत्यानाश कर डाला और आज हालत यह है कि हम ना यहाँ के हैं और ना वहाँ के,देशी ज्ञान को भी हम खो चुके हैं और विदेशी ज्ञान जो एक कठिन और पराई भाषा में है,उसका लाभ यहाँ के लोग ले नहीं पा रहे क्योंकि वो उसे समझते ही नहीं !
मगर हद तो इस बात है कि हम जो हिंदी-हिंदी-हिंदी कहते-करते नहीं अघाते,उस हिंदी को हमने महज भावुकता की-कविता की-साहित्य की भाषा भर बना डाला और तरह-तरह के पखवाड़े आयोजित कर उसका सम्मान करते रह गए तथा भांति-भांति की गोष्ठियां कर आपस में ही तालियाँ पिटवाते रह गए...हिंदी को हमने साहित्य के अलावा ज्ञान-विज्ञान के लिए निकृष्ट भाषा बना डाला और अब जब हम विश्व में अनेकानेक क्षेत्रों में विश्व के छोटे-छोटे देशों से पिछड़ चुके हैं तब भी हमें होश आ गया हो,यह संभावना मुझे अब भी दिखाई नहीं देती और तब ऐसे में विज्ञान तो विज्ञान,देश के करोड़ों होनहारों को वास्तविक शिक्षा दे पाने की सोच पाना भी एक सपना ही है....!!(राजीव थेपड़ा)
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