31.3.12

जोर से बोलो जय माता की , jai maataa ki


जय माता की , जय गंगा माता की , जय गो माता की , जय भारत माता की


  

  


इस नव रात्र पर सबको जय माता की , 


पर हम माता कि कुछ सेवा का निश्चय करे .

पश्यंति वाणी सुन कर गीता पर लिखी अनूठी पुस्तक

दरगाह बाबा बादामशाह, सोमलपुर, अजमेर
सूफी संत मिश्राजी द्वारा गीता के एक श्लोक की 110 पेज में व्याख्या
अजमेर। गत दिनों अजमेर से एक यादगार पुस्तक प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक में सूफी संत हजरत हरप्रसाद मिश्रा उवैसी ने गीता के एक श्लोक की 110 पेज में व्याख्या कराई है। प्राचीन ऋषि-मुनियों वाली मनोसंवाद विधि से कराए गए इस कार्य के लिए आपने अपने मुरीद अजमेर के जाने-माने इतिहासविद व पत्रकार श्री शिव शर्मा को माध्यम बनाया।
गीता शास्त्र में दूसरे अध्याय के सर्वाधित चर्चित श्लोक है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफल हेतुर्भूमा, ते संगोस्तव कर्मणि।
इस एक ही श्लोक में गीता के कर्मयोग का सार निहित है। इसका अर्थ समझने के लिए कर्म के उनतीस रूपों की विवेचना की गई है-स्वकर्म, स्वधर्म, नियतकर्म, अकर्म, विकर्म, निषिद्ध कर्म आदि। आपने स्पष्ट किया है कि कर्म के शास्त्रीय, प्रासंगिक, मनोवैज्ञानिक और परिस्थितिगत व्यावहारिक पक्षों को ज्ञात लेने के बाद ही इस श्लोक के वास्तविक अर्थ को समझा जा सकता है। गुरुदेव ने 22 नवंबर 2008 को महासमाधि ले ली थी और यह कार्य आपने 2011 में करवाया। आपकी रूहानी चेतना के माध्यम बने आपके शिष्य श्री शिव शर्मा ने बताया कि शक्तिपात के द्वारा आपने नाम दीक्षा के वक्त ही मेरी कुंडलिनी शक्ति को आज्ञाचक्र पर स्थित कर दिया था। फिर मेरी आंतरिक चेतना को देह से समेट कर आप इसी जगह चैतन्य कर देते थे। उसी अवस्था में आप इस श्लोक की व्याख्या समझाते थे। यह कार्य पश्यन्ती वाणी के सहारे होता था। वाणी के चार रूप होते हैं-परा यानि जिसे आकाश व्यापी ब्रह वाणी जो केवल सिद्ध संत महात्मा सुनते हैं, पश्यन्ति यानि नाभी चक्र में धड़कने वाला शब्द जो आज्ञा चक्र पर आत्मा की शक्ति से सुना जाता है और देखा भी जाता है, मध्यमा यानि हृदय क्षेत्र में स्पंदित शब्द और बैखरी यानि कंड से निकलने वाली वाणी जिसके सहारे में हम सब बोलते हैं। कामिल पूर्ण गुरू हमारे अंतर्मन में पश्यन्ती के रूप में बोलते हैं। गुरुदेव ने मुझ पर इतनी बड़ी कृपा क्यों की, मैं नहीं जानता, किंतु जिन दिनों आप मुझसे यह कार्य करवा रहे थे, उन दिनों ध्यान की खुमारी चढ़ी रहती थी। ध्यान में गीता, मौन में गीता, इबादत में गीता, सत्संग में गीता, अध्ययन में गीता और चिंतन में भी गीता ही व्याप्त रहती थी। बाहरी स्तर पर जीवन सामान्य रूप से चलता रहता था, लेकिन अंतर्मन में गुरु चेतना, गीता शास्त्र और भगवान वासुदेव श्री कृष्ण की परा चेतना धड़कती रहती थी।
हजरत मिश्रा जी ने भगवान श्री कृष्ण के दो बार दर्शन किए थे। उनके दीक्षा गुरू सूफी कलंदर बाबा बादामशाह की भी श्रीकृष्ण में अटूट निष्ठा थी। संभवत: इसीलिए पर्दा फरमाने के बाद भी आपने गीता के इस एक ही श्लोक की विराट व्याख्या वाला लोककल्याणकारी कार्य कराया है। इस पुस्तक में गुरुदेव ने कहा है कि मनुष्य मन का गुलाम है और गीता इस गुलामी से छूटने की बात करती है। आप कामनाओं के वश में हैं और गीमा इनसे मुक्त होने की राह दिखाती है। आप पर अहंकार हावी है, जबकि गीता इस अहंकार को जड़मूल से उखाड़ फैंकने की बात समझाती है। आप भोग की तरफ भागते हैं, गीता कर्मपथ पर दौड़ाती है। आप स्वर्ग के लिए ललचाते हैं और गीता आपको जन्म-मरण से छुटकारा दिलाने वाले परमधाम तक पहुंचाना चाहती है। इसलिए गीता से भागो मत, उसे अपनाओ, कर्मयोग से घबराओ मत, उसे स्वीकार करो। तुम मोक्षदायी कर्मयोग के पथ पर कदम तो रखो, भगवान स्वयं तुम्हें चलाना सिखा देंगे।
पुस्तक में गुरू महाराज ने कहा है कि मनुष्य को केवल कर्तव्य कर्म करने का अधिकार है। स्वैच्छाचारी कर्म उसका पतन करते हैं। यह पुस्तक अजमेर के अभिनव प्रकाशन ने प्रकाशित की है। इसके बाद नारी मुक्ति से संबंधित अगली पुस्तक में गुरूदेव गीता के ही आधे श्लोक की व्याख्या करा रहे हैं।
लेखक शिव शर्मा स्वभाव से दार्शनिक हैं और अजमेर के इतिहास के अच्छे जानकार हैं। इससे पहले वे अनेक पुस्तकें लिख चुके हैं। उनमें प्रमुख हैं-भाषा विज्ञान, हिंदी साहित्य का इतिहास, ऊषा हिंदी निबंध, केशव कृत रामचन्द्रिका, कनुप्रिया, चंद्रगुप्त, रस प्रक्रिया, भारतीय दर्शन, राजस्थान सामान्य ज्ञान, हमारे पूज्य गुरुदेव, पुष्कर: अध्यात्म और इतिहास, अपना अजमेर, अजमेर : इतिहास व पर्यटन, दशानन चरित, सदगुरू शरणम, मोक्ष का सत्य, गुरू भक्ति की कहानियां।
उनका संपर्क सूत्र है:-
101-सी-25, गली संख्या 29, नई बस्ती, रामगंज, अजमेर
मोबाइल नंबर- 9252270562

30.3.12

अपडेट नहीं है नोएडा पुलिस की वेबसाईट


नोएडा। भारत की राजधानी से सटा उत्तर प्रदेश का नोएडा शहर सूबे में ही नहीं देश में भी अपनी खास पहचान रखता है। वक्त के साथ यहां प्रत्येक आदमी के साथ हर विभाग भी हाईटेक हो गया है। लेकिन पुलिस महकमा शायद सोया हुआ है। लोगों की सहुलियत की लिए पुलिस की एक वेब साईट (www.noidapolice.com) है। वेबसाइट के बैनर पर अंग्रेजी में लिखा हुआ है (always alert & serving people)। उसके बावजूद ये साइट बीते कई महिनों से अपडेट ही नहीं है।

शहर के लोगों, पत्रकारों, वकीलों, समाजसेवकों और आम नागरिकों के लिए पुलिस और शहर से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी के लिए नोएडा पुलिस की एक वेब साइट है, उस पर विभाग के आला अफसरों के मोबाइल नम्बर, शहर के मुख्य अस्पताल, चोरी हुए वाहनों का विवरण , खोए हुए लोगों की जानकारी, अज्ञात शवों की सूचना, ग्राम प्रधानों का विवरण, स्थानीय बैंकों की सूची, स्थानीय इन्सटिट्यूट की सूची, पेट्रोल पम्प, सिनेमा हाल, आरडब्ल्यूए आदि की जानकारी होती है। इतना ही नहीं सन १९९७ से नोएडा पुलिस में तैनात रहे वरिष्ठ पुलिस अधीक्षकों की सूची भी वेवसाइट पर मौजूद रहती है। इसके साथ ही यदि आप पुलिस को कोई सुझाव व फीडबैक देना चाहे तो इसकी भी व्यवस्था वेवसाइट है। आप के घरों और दफ्तरों में काम करने वाले लोगों की वैरिफिकेश के लिए फार्म भी वेबसाइट पर उपलब्ध है। वेवसाइट पर नोएडा के बारे में संक्षिप्त जानकारी, पासपोर्ट सम्बंधी सूचना, सामान्य कानूनी जानकारियां, शस्त्र लाईसेंस आदि का विवरण भी इससे मिल सकता है। यानि कहने को तो वेब साईट पर सभी जरूरी सूचनाएं आपको मिल सकती है। लेकिन वर्तमान में नोएडा पुलिस की वेबसाईट का अपडेट ना होना विभाग की लापरवाही का सबसे बढ़िया नमूना है। आपको बता दें कि उस पर अभी तक नोएडा में तैनात हुए नए एसएसपी प्रवीण कुमार और एसपी सिटी समेत कई बड़े अधिकारियों का विवरण अपडेट नहीं हो सका है। वेबसाईट पर आज भी पुराने एसएसपी ज्योति नारायण की फोटों व विवरण तथा पुराने एसपी सिटी अंनत देव का उल्लेख है।
हैरानी की बात तो तब होती है जब पत्रकारों के लिए मौहय्या कराए जाने वाली रोजाना की सूचना और खबर बीते कई महिनों से अपडेट ही नहीं हुई है। इस कारण कई पत्रकारों को खासी अव्यवस्थाओं का सामना करना पड़ता है। ऐसे में नोएडा पुलिस और उसकी आधुनिकता वाकई सवालों के घेरे में आती है। अब देखना यह होगा कि पुलिस द्वारा जनता और पत्रकारों को मुहैया कराए जाने वाली वेबसाईट कब अपडेट होती है।

नूर नासूर बन गया

लड़कियों का नूर नासूर बन गया
हर दफ्तरान का दस्तूर बन गया
काम आता नहीं, मेल चेक करना तक
कतार में हैं बॉस से अदने चाकर तक
सैलरी उठातीं इन बालाओं का सुरूर बन गया
हर दफ्तरान का दस्तूर बन गया
टाइम जो जी में आया आ गईं
लंच हुआ तो पेल-पेल के खा गईं
आंसुओं को कह ही रखा है
लगे तुम्हे जरा भी ठेस चले आना
चश्में से झांकती आंखों का गुरूर बन गया
हर दफ्तरान का दस्तूर बन गया
लिपस्टिक्स, लाली, गुलाली, फाउंडेशन
चूड़ी कंगन, बेंदी, वॉव, सरप्राइज में मुंह खुला
शैंपू, साड़ी, चप्पल, रंग, रोगन
परफ्यू सा बातों में घुला
काम कहां, किसे करना है
बॉस टैंपरेरी झूठा ही सही हुजूर बन गया
हर दफ्तरान का दस्तूर बन गया
खैर है सरकारी, जहां यह तो नहीं हैं
मगर स्वेटर न जाने कितनी बुनी हैं
ऊन के भाव बैठ वित्त विभाग में बताएं
डंडे के पीले कलर पर पुलिस में आपत्ति जताएं
लाल कर दो प्यार होगा,
काम होगा, मुजरिमों का दीदार होगा
वुमन हरासमेंट सेल में सुबकना जरूर बन गया
हर दफ्तरान का यह दस्तूर बन गया
- सखाजी

हमारे यहाँ सामान्य डेलिवरी की सुविधा नहीं है-ब्रज की दुनिया

मित्रों, आपको भी पता है कि हमारे देश में धर्मयुग कई दशक पहले धर्मयुग का प्रकाशन बंद होने के पहले ही समाप्त हो चुका था फिर भी धर्मरूपी गाय का एक पैर अब भी सही-सलामत था. परन्तु लगता है कि अब उसे भी तोड़ दिया गया है. उपभोक्तावाद और बाजारवाद ने तमाम नैतिक मर्यादाओं को तोड़कर रख दिया है और "रूपया नाम परमेश्वर" हम लोगों का मूलमंत्र बन गया है. इंसान तो इंसान धरती के भगवान यानि डॉक्टरों ने भी लुटेरों का चोला धारण कर लिया है. हमारे राज्य बिहार के डॉक्टर कुछ इस कदर धनपिपासु हो गए हैं कि राज्य में बच्चों का सामान्य जन्म हो पाना लगभग असंभव-सा हो गया है.
                 मित्रों, पिछले साल की ही तो बात है. मेरी छोटी बहन रूबी अपने दूसरे बच्चे को जन्म देने के लिए हमारे यहाँ आई हुई थी. चूँकि हमारी आर. मामी स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं इसलिए यह स्वाभाविक था कि हम उसे उनके यहाँ ही ले जाएँ. पहले दिन ही उनकी क्लिनिक में हमें पता चल गया कि यह मामी वो मामी नहीं हैं जो २० साल पहले हुआ करती थीं. अब इनके लिए रिश्ते और रिश्तेदार कोई मायने नहीं रखते. मायने रखता है तो सिर्फ और सिर्फ पैसा. तभी तो मेरे पिताजी जो कभी उनके लिए परम पूजनीय हुआ करते थे; को बाहर प्रतीक्षा करता देखकर भी वे नहीं रूकीं और सीधे अपने कक्ष में चली गईं. बाद में कई बार कंपाउंडर द्वारा सूचित करवाने पर करीब एक घंटे बाद बुलावा आया. तब हमें मामी का व्यवहार स्वचालित मशीन की तरह लगा. शायद अब वे इन्सान रह ही नहीं गयी थीं और पैसा कमाने की मशीन-मात्र बन चुकी थीं. अकस्मात् उनके चेहरे पर यह जानकर कि पहला बच्चा नॉर्मल डेलिवरी से पैदा हुआ था निराशा के भाव छलक उठे. तभी हम समझ गए कि डॉक्टरों के लालच के कारण आज के बिहार में बच्चों की नॉर्मल डेलिवरी लगभग असंभव है.
          मित्रों, फिर वह शुभ अवसर भी आया जब मेरी पत्नी विजेता गर्भवती हुई. हमारी शादी को अभी डेढ़-दो महीने ही हुए थे. उसे दिखाने के लिए हम उसकी ही जिद पर पटना की सबसे बड़ी स्त्रीरोग विशेषज्ञों में से एक डॉ. डी. सिंह के पास लेकर गए; लेकिन उनके यहाँ 5 दिन तक नंबर ही नहीं था. मजबूरन मैंने डॉ. सिंह के यहाँ से ही मामी को फोन मिलाया तो वो बोलीं कि आप पत्नी को लेकर एन.एम.सी.एच. आ जाईये. दरअसल मेरी मामी एक सरकारी डॉक्टर भी हैं और इस समय उनकी ड्यूटी एन.एम.सी.एच. में है और जब मैंने उनको फोन किया था वे अपने निजी नर्सिंग होम से चलकर सरकारी अस्पताल पहुँच चुकी थीं. अस्पताल क्या था बीमारों का मेला था. शायद अपनी तरह का दुनिया का सबसे बड़ा मेला. चूँकि मेरी मामी वहां डॉक्टर थीं इसलिए मैंने पंजीकरण करवाना आवश्यक नहीं समझा और सीधे स्त्रीरोग विभाग में जा धमका. परन्तु यह क्या मामी ने तो विजेता को हाथ तक नहीं लगाया और सीधे दवा लिख दी. बाहर पुर्जा देखते ही मैं समझ गया था कि उन्होंने जो कुछ भी किया था बेमन से किया था.
                         मित्रों, अब कोई और उपाय नहीं देखकर मैं फिर से कल होकर डॉ. डी. सिंह के यहाँ गया और नंबर लगा दिया. तभी मेरी नजर वहाँ दीवार पर लिखे मध्यम आकार के शब्दों पर गयी. लिखा था कि "हमारे यहाँ नॉर्मल डेलिवरी की सुविधा नहीं है". मैं देखकर सन्न रह गया और सोंचने लगा कि यहाँ ऐसा क्यों लिखा गया है? फिर तो प्रत्येक डॉ महीने पर मैं उनके पास सपत्निक जाता. बड़ा अच्छा स्वाभाव लगा उनका, मृदुल, कोमल. कहतीं कहीं से भी अल्ट्रासाउण्ड करवा लाओ मुझे कोई समस्या नहीं है. मैं प्रसन्न था उनकी भलमनसाहत पर और नतमस्तक भी. विजेता के स्वास्थ्य में भी अभूतपूर्व सुधार होता दिखा. अल्ट्रासाउण्ड की रिपोर्ट भी गर्भस्थ शिशु का उत्साहजनक विकास दर्शाती रही. तभी इसी दौरान पता चला कि डॉक्टर साहब के कंपाउंडर छोटे और पटेल जो शायद समांगी जुड़वाँ थे मेरे शहर हाजीपुर के ही हैं. इतना ही नहीं दवा दुकानदार अरुण भी हाजीपुर का ही था. फिर तो यह स्वाभाविक ही था कि उनलोगों से मेरा दोस्ताना सम्बन्ध बन जाए. डॉक्टर के पास जाता तो लगता मानो अपने ही घर में आया हुआ हूँ. इस तरह देखते-देखते सात महीने गुजर गए. डॉ. सिंह अब विदेश में थीं और उनका बेटा मयंक उनके बदले ईलाज कर रहा था. इस बार मुझे मैक्स अल्ट्रासाउण्ड, रोड नं. 5, राजेंद्र नगर में जाकर अल्ट्रासाउण्ड करवाने को कहा गया. परन्तु हमें आदेश (इस बार परामर्श वाला स्वर कंपाउंडर का नहीं था) की अनदेखी कर दी और बगल में ही स्थित लाईफलाइन जहाँ अब तक हम अल्ट्रासाउण्ड  करवाते आ रहे थे, में सोनोग्राफी करवा ली. जब हम लौटकर रिपोर्ट लेकर क्लिनिक पर पहुंचे तो कंपाउंडर छोटे मुझ पर गरम हो गया और धमकी भरे स्वर में कहने लगा कि यह डॉक्टर अच्छा अल्ट्रासाउण्ड नहीं करती है. कुछ भी होनी-अनहोनी हो गयी तो आप समझिएगा. मैं उसके बदले हुए व्यवहार से हैरान था और मुझे लगा कि शायद सारा चक्कर कमीशन का होगा लेकिन बात यह थी नहीं यह मैं बाद में समझ पाया. हालाँकि सोनोग्राफी के समय बच्चा उल्टा था लेकिन अभी पूरे दो महीने का समय था और बच्चे का क्या? वह तो पेट में ईधर-उधर उल्टा-सीधा होता हुआ घूमता ही रहता है. फिर आया नौवाँ महीना. होली बीत चुकी थी. इस बार पिछली बार की बकझक से सबक लेते हुए हम वहीं पर अल्ट्रासाउण्ड के लिए गए जहाँ हमें भेजने का प्रयास पिछली बार से ही किया जा रहा था यानि मैक्स अल्ट्रासाउण्ड, रोड न. ५, राजेंद्र नगर. डॉ. सिंह अब विदेश से वापस आ चुकी थीं. अल्ट्रासाउण्ड केंद्र पर अव्यवस्था का माहौल था. क्रम को बार-बार तोड़कर बाद में आए मरीजों की सोनोग्राफी की जा रही थी. मैं परेशान हो गया. मैं और विजेता दोनों जने भूख से बेहाल हो रहे थे परन्तु डॉक्टर पर हमारी विनती का कोई असर नहीं हो रहा था. विजेता तो नौवाँ महीना होने के कारण बैठने से भी लाचार थी. फिर मैंने कंपाउंडर छोटे को फोन किया और बार-बार किया. उसने भी वहां के स्टाफ से बात की लेकिन चूँकि सब ड्रामा था इसलिए कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला. अंत में पांच घंटे की भारी जद्दोजहद के बाद जब सोनोग्राफी की गयी तो रिपोर्ट में बताया गया कि गर्भाशय में पानी कम है. विजेता को कोई परेशानी नहीं थी इसलिए मुझे संदेह हुआ कि कहीं यह साजिश तो नहीं है? क्या इसलिए तो छोटे यहीं सोनोग्राफी करवाने की जिद नहीं कर रहा था? डॉ. डी. सिंह के परामर्श में रहे कई अन्य भावी माताएँ भी वहाँ उपस्थित थीं और उन सभी को भी बड़े ही आश्चर्यजनक और रहस्यमय तरीके से डॉ. एल. मित्तल द्वारा कोई-न-कोई गड़बड़ी बता दी गयी थी. अब सारा मामला मेरे सामने शीशे की तरह साफ़ था. डॉ. सिंह की मैक्स वालों से सांठ-गाँठ थी और इसलिए सभी मामले को धड़ल्ले से जटिल बताया और बनाया जा रहा था. जाहिर है सिजेरियन में डॉक्टर को भारी लाभ होने वाला था. मन भारी और दुखी हो गया. इनती बड़ी डॉक्टर की इतनी नीच करतूत!!! फिर भी मैं कल होकर रिपोर्ट के साथ डॉ. सिंह से मिला और वही हुआ जिसका मुझे पहले से ही अंदेशा था. सोनोग्राफी के आधार पर उन्होंने सामान्य डेलिवरी को असम्भव बताते हुए सिजेरियन की सिफारिश की और विजेता को कल होकर ही भर्ती करवाने को कहा. आज मेरी समझ में पूरी तरह से डॉक्टर के परामर्श कक्ष के बाहर लिखे उन शब्दों का मतलब आ गया था जिसे मैंने पहले दिन ही देखा था. वाह,क्या डॉक्टर हैं? सामान्य गर्भस्थ शिशु को भी अल्ट्रासाउण्डवाले को मैनेज कर असामान्य घोषित करवा देती हैं और फिर बड़े ही प्यार से, आत्मीयता से कहतीं हैं कि बिना सिजेरियन के अब तो कोई उपाय है ही नहीं. ऊपर जाकर पता किया तो बताया गया कि कुल 24-25 हजार का खर्च आएगा. वहाँ यह बतलाकर मैंने पीछा छुड़ाया कि मेरी मामी भी डॉक्टर हैं और मैं उनसे समझने के बाद ही आगे कुछ कह सकूंगा. फिर उदास और क्रोधित मन से दवा दुकानदार से 15 दिन की दवा ली और घर के लिए रवाना हो गया. 
          मित्रों, फिर वह दिन भी आया जब विजेता को प्रसव-पीड़ा शुरू हुई. मामी और डॉ. सिंह सहित बिहार के किसी भी प्राइवेट या सरकारी डॉक्टर पर अब मेरा थोड़ा-सा भी विश्वास नहीं रह गया था. सबके सब मुझे सिजेरियन माफिया नजर आ रहे थे इसलिए मैंने पत्नी को पटना, आलमगंज स्थित त्रिपोलिया मिशनरी अस्पताल में भर्ती करवाया और आज एक सप्ताह के एक पुत्र का पिता हूँ. हमारी आशा के अनुरूप ही डेलिवरी सामान्य हुई और जच्चा-बच्चा दोनों स्वस्थ हैं. त्रिपोलिया के डॉक्टरों और नर्सों के सेवा-भाव ने मुझे सचमुच मंत्रमुग्ध कर दिया है. जहाँ बिहार का पूरा डॉक्टर समाज कसाई बन बैठा है वहां त्रिपोलिया अस्पताल निविड़ घनघोर तम में पूरी शिद्दत से चुपचाप जलते दीए के सामान है. मैं निश्चित रूप से आज भी धर्मान्तरण के खिलाफ हूँ लेकिन यह सोंचने की आवश्यकता भी है कि हम हिन्दुओं में वह सच्चाई और सेवा-भाव क्यों नहीं है जो इन इसाई डॉक्टरों और नर्सों में है? क्यों हमारे हिन्दू स्त्रीरोग विशेषज्ञ प्रत्येक सामान्य डेलिवरी को सिजेरियन में बदल देने और अपने हाथों को भावी माताओं के खून से रंगने को व्याकुल हैं?

लो.. समंदर हो गया हूं मैं

बुझा लो प्यास जितनी हो
लो.. समंदर हो गया हूं मैं,
उजालों की सुहानी बज्म में
फिर से सिकंदर हो गया हूं मैं,
कहो क्या हाल हैं उनके, जिन्होंने
शूल राहों में मेरी फेंके थे,
खबर उनको जरा ये कर देना
कांटों के बीच रहकर के,
लो फूल हो गया हूं मैं...
बुझा लो प्यास जितनी हो,
                        लो.. समंदर हो गया हूं मैं।। - अतुल कुशवाह

नंदीग्राम- बीते पांच साल, आज भी है ठगी का अहसास

शंकर जालान




पश्चिम बंगाल के पूर्व मेदिनपुर जिला का नंदीग्राम इलाके पांच वर्ष पहले भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानों द्वारा उठाई गई आवाज के बाद देश ह नहीं दुनिया भर में चर्चा में आया था। यहां पुलिस की गोली से मारे गए १ लोगों की मौत ने राज्य में ३४ सालों से सत्तासीन वाममोर्चा सरकार को अर्श से फर्श पर ला दिया था। राजनीति के पंडितों का कहना है कि नंदीग्राम की घटना के बाद से ही
वाममोर्चा के शासनकाल की उल्टी गिनती शुरू हो गई थी।
भले ही नंदीग्राम की घटना के बाद राज्य में २०११ में हुए पहले विधानसभा चुनाव में सत्ता क चॉबी तृणमूल कांग्रेस को मिल गई। राज्य में सत्ता बदल गई हो, राजनीतिक पार्टियों के इंडे बदल गए हो, लेकिन राज्यभर के विभिन्न जिलों व गांवों की स्थिति जस क तस है। विशेषकर गोलीकांड की घटना के पांच साल नंदीग्राम की जनता खुद को ठगा महसूस कर रही है.
भूमि अधिग्रहण आंदोलन में बढ़-चढ़कर शिरकत करने वालों के साथ-साथ इस घटना में अपने परिवार के सदस्यों को खोने वाले लोगों का कहना है कि उन्हें राज्य की तत्कालीन वाममोर्चा सरकार के खिलाफ इस्तेमाल किया गया था। दरअसल, आंदोलन का पूरा फायदा तो ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस को मिला।
नंदीग्राम के दुखी व गरीब लोगों का कहना है कि हमने अपनी पुस्तौनी जमीन के लिए लड़ाई लड़ी थी, जो जीती ली। इनलोगों ने सवाल उछाला जमीन की लड़ाई जीतने और तृणमूल कांग्रेस को जीताने के बाद भी उन्हें क्या मिला ? नंदीग्राम, सिंगूर व खेजुरी के हिस्से क्या आया ? इन लोगों ने आरोप लगाया कि माकपा समर्थकों ने हमारे घरों में आग लगाई और तृणमूस समर्थकों ने उसमें रोटियां सेंकी।
भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति (बीयूपीसी) के एक सदस्य ने नाम नहीं छापने की शर्त पर शुक्रवार को बताया कि २००७ में जनवरी के पहले सप्ताह में किसानों के हितों के ध्यान में रखते हुए समिति का गठन किया गया था। समिति का काम २००७ में नंदीग्राम व खेजुरी में विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए किसानों की भूमि के अधिग्रहण की अधिसूचना के खिलाफ आवाज बुलंद करना था।
जरा पीछे जाए तो याद आता है कि आंदोलन को कुचलने के लिए तत्कालीन राज्य सरकार की सह पर पुलिस ने किसानों के खिलाफ बल प्रयोग किया, जिसके बाद यह आंदोलन और तीव्र हो गया. माकपा के खिलाफ लोगों में नाराजगी का लाभ सीधे तौर तृणमूल कांग्रेस को मिला और बीते साल हुए विधानसभा चुनाव में वह १९७७ से सत्ता में रहे वाममोर्चा को सत्ता से बेदखल करने में कामयाब रही। तृणमूल को सत्ता संभाले नौ महीने से ज्यादा हो गए है, फिर भी नंदीग्रम की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। इस वजह से स्थानीय लोगों में निराशा है।
नंदीग्राम के एक बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा कि वाममोर्चा को परास्त करने के लिए तृणमूल ने हमारा इस्तेमाल किया। उन्होंने आरोप लगाया कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) और क्षेत्र के विकास के लिए अन्य विकास कार्य आपसी मतभेद के कारण रुके हुए हैं.
समिति के एक वरिष्ठ सदस्य ने आरोप लगाते हुए कहा कि सत्ता में आने के बाद तृणमूल का कोई भी विधायक या मंत्री गोलीकांड पर जान गंवाने वाले लोगों के घर नहीं पहुंचे. क्षेत्र के बहुत से लोग अब भी लापता हैं. उस भयावह घटना को भले पांच साल बीत गए हों, लेकिन नंदीग्राम के लोगों को पांच साल पहले जो घाव वह अभी तक भरा नहीं है।
मालूम हो कि जमीन अधिग्रहण का विरोध करने वाले किसानों पर २००७ में १४ मार्च को पुलिस ने गोलियां दागी थी, जिसमें १४ लोग कभी न खुलने वाली नींद में सो गए थे।
वैसे तो नंदीग्राम के लोग सामान्य जीवन-यापन कर रहे हैं, बस १४ मार्च की घटना का जिक्र करते ही लोगों की आंखें भींग जाती हैं। इन पांच सालों में सत्ता के गलियारों में बहुत कुछ बदला, लेकिन नंदीग्राम में कुछ नहीं बदला। मानो यहां वक्त थम सा गया हो। वहीं बदहाल सड़कें, परिवहन का पुख्ता इंतजाम नहीं इत्यादि कई समस्याएं यहां मुंह बाएं खड़ी हैं। यहां के लोगों का कहना है कि चाहे माकपा हो या तृणमूल। दोनों ने वायदे तो बहुत किए थे, लेकिन उन्हें पूरा करने को नहीं आ रहा है। इस दौरान अगर हमें कुछ समझ में आया है तो वह यह है कि कभी किसी का मोहरा नहीं बनना चाहि्ए।

[ब्लॉग पहेली चलो हल करते हैं ]


ब्लॉग पहेली-१९ का जवाब भेजने में बचे हैं केवल चौबीस घंटे !जल्द से जल्द दें जवाब और बने विजेता !
[ब्लॉग पहेली चलो हल करते हैं ]

ये है एक ब्लॉग का नाम .जिसमे से कुछ शब्द मिटा दिए हैं .नीचे शब्द संख्या का  संकेत  दे  दिया है .आपको करना है पूरा इसका नाम और  बताना  है इसका  ''URL '' व् ब्लॉग स्वामी का नाम .सर्वप्रथम व् सही बताने पर बन जायेंगे  आप   विजेता .फिर देर किस बात की -

 A-J   -A    A-R- 
[3]                  [2]             [4]

 अग्रिम शुभकामनाओं के साथ                             

  शिखा कौशिक

आखिर हम हिंदुओं का इंडिया पर कब्ज़ा कब तक सहेगा धर्म निरपेक्ष राष्ट्र : till when this nation will bear the hold of hindus on this non relegious nation who must help other relegions




भारत के संविधान पुस्तक में हिंदू भगवान : the hindu gods in the original book of indian constitution :

एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र की संविधान पुस्तक में हिंदू भगवानो का होना गलत नहीं है क्या . 


कब इसका विरोध शुरू होगा , कब इसका संशोधन होगा . 


कब इन राम, कृषण , शिव को राष्ट्र से बहार करके , दूसरे धर्म वालों  को संतुष्ट / खुश किया जाएगा.और देश को भगवाकरण से बचाया जायेगा ......, कब....... कब ......


प्रमाण ; 


ये तस्वीरें केवल सजावट के लिए नहीं हैं . इनका पूरा वर्णन भी भारत की  संविधान पुस्तक में इस प्रकार लिखा है : 

पेज 6 : Scene from ramayana (conquest of lanka and recovery of sita by rama, and return with lakshman)

page 113 : image of natraja 


page 17 : scene from the mahabharata (sri krishna propounding gita to arjuna)

ये बातें जनता में पहली बार आ रही हैं . 

देश में इस मूल संविधान कि कापियाँ छापना ही बंद है 

मुझे इन बातों का पाता मेरे पूज्य ससुर जी से लगा , जो राज्य सभा में थे . एक और रोचक बात बताई कि हमारे प्यारे चचा नेहरु जी को इस संविधान में सबसे पहले हस्ताक्षर करने कि इच्छा थी और उन्होंने जल्दी से सबसे पहले बिना मर्यादा का ख्याल रखे हस्ताक्षर कर दिए. 

तब राष्ट्रपति डा . राजेन्द्र प्रसाद जी , जो अजातशत्रु के नाम से विख्यात थे , जिनमें अपने नाम कि कोई इच्छा नहीं थी , केवल राष्ट्र कि मर्यादा को रखने के लिए, देश के प्रथम नागरिक के कर्त्तव्य को पूरा करने के लिए , अपने हस्ताक्षर तिरछे करने पड़े. प्रमाण के लिए निचे के पेज का चित्र है : 


क्या क्या होता है सत्ता कि गलियारों में , 


वह ईमानदारी की सजा थी



ईमानदार डिप्टी जेलर नरेन्द्र द्विवेदी की चार साल पहले गोलियां बरसाकर हत्या कर दी गई थी। उनके दो मासूम बच्चे अनाथ व पत्नी बेसहारा हो गई। नरेन्द्र को भ्रष्ट सिस्टम में ईमानदारी की सजा दी गई। षडयंत्र में शामिल जेल विभाग के दो गद्दारों को अब अदालत ने उम्र कैद की सजा सुना दी है। सुकून मिला। मेरे द्वारा तब लिखी गई स्टोरी भी चस्पा है। नरेन्द्र द्विवेदी हमें माफ करना क्योंकि कलयुगी सिस्टम में तुम जिंदा नहीं रह सके।

29.3.12

कुतर्कों का माया जाल बुनने का चलन...?


भारत के थल सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह द्वारा प्रधानमंत्री को सेना के बारे में लिखे पत्र के लीक हो जाने के बाद सारे देश के मीडिया में जो हंगामा मचा है , उसे देख कर मीडिया की नियत पर संदेह होता है कि, मीडिया को देश की चिंता कम , अपने आप को मशहूर करने क़ी ज्यादा है .बजाय इसके कि देश हितों को प्राथमिकता दी जाये , ज्यादा फोकस इस बात पर है कि मामले को चटपटा कैसे बना कर दर्शकों या पाठकों के सामने कैसे परोसा जाये .
मीडिया का एक वर्ग तो इस मुद्दे पर बाकायदा बहस चला रहा है , जिसमें सेना , सरकार और भ्रस्टाचार की जम कर चीर फाड़ की जा रही है , वह भी इस हद तक कि, मानो सर्वज्ञता के एकमात्र ठेकेदार यहीं हों और जो वह कह रहे है वह गलत हो ही नहीं सकता . .
दरअसल भारत का मीडिया इस भ्रम का शिकार हो चुका है कि उससे बड़ा न कोई ज्ञानी है और न जानकार, हालाँकि ऐसा है नहीं .
अगर गौर से देखा जाये तो कटु सत्य यह है कि आज अन्शुमान मिश्र जैसे लोग मीडिया मैनेज कर किसी के खिलाफ कुछ भी ,कह कर देश को बरगला सकते हैं और अरुण जेटली के एक नोटिस पाते ही , माफ़ी मांग कर गिडगिडाने लगते हैं ..
यही हाल नेताओं का भी है , लाईम लाईट में आने के लिए कुछ भी बोल देना उनका शगल बन गया है , जैसे पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा के पुत्र कुमारस्वामी का वक्तव्य कि जब उनके पिता प्रधानमंत्री थे, तो हथियार दलालों ने उनसे सम्पर्क किया था .
भारत की ” “पवित्र गाय” बन गया है , भारत का मीडिया और नेता , कि चाहे कुछ भी कहो , जनता उनके कथन को “मन्त्र ” मान लेती है. तात्पर्य यह है कि न तो किसी को देश हित की चिंता है और न ही जन हित की .
सब अपने अपने को चमकाने में लगे हैं , देश गर्त में जाता हो तो जाये . सेना देश की रक्षा करती है और अगर सेना प्रमुख को ले कर या फिर देश की सुरक्षा व्यवस्था के मुद्दे पर सवाल खड़े किये जायेंगे . तो जनता का विश्वास कैसे कायम रहेगा .
इसी कम को करते कोई विदेशी पकड़ा जाता है , तो उसे देशद्रोह की संज्ञा दी जाती है , पर आज ये सारा कम तो हमारे अपने लोग कर रहें हैं .पर उनसे कोई इसका ज़वाब नहीं मांग रहा . क्या इसलिए कि……….देशद्रोह करना भारत में अपराध नहीं रहा ?
“”आज कुतर्कों का माया जाल बुनने का चलन चल पड़ा है ..देश भाड़ में जाता है तो जाये .”"

देश तरक्की पर है ,सरकार को भारतीय सभ्यता में समलैंगिकता के प्रमाण मिल गए


देश तरक्की पर है , समलैंगिकता की सरकारी इजाजत के बाद अब बारी पशु मैथुन की इजाजत की

    
खबर : 

केंद्र ने की गे-सेक्स की पुरजोर पैरवी


और दूसरी खबर : 

सरकार के महिला आयोग की अधिकारिणी जी ने एक सभा में यह कहा  कि किसी को देख किसी को सेक्सी कहना अश्लील नहीं है. उन्होंने शब्दकोष के हवाले से कहा कि सेक्सी का मतलब स्त्री का आकषर्क व सुंदर होने का पर्याय है. यह एक विशेषण भर है! 

यानी यदि कोई कांग्रेसी महिला नेताओं को सेक्सी बोले तो एतराज नहीं  जैसे : आब आपके सामने सेक्सी शीला जी, या सेक्सी सोनिया जी कुछ कहेंगी . 

सरकार नेसमलैंगिकता को  भारतीय संस्कृति के हवाले से उचित ठहराया . 

यही सरकार सुप्रीम कोर्ट में कह रही थी , हमें पता नहीं , भगवान राम थे कि नहीं , 

मगर समलैंगिकता के प्रमाण उन्हें भारतीय संस्कृति में मिल गए . 

बलिहारी है हमारी काम करने वाली सरकार की व् उसके आई ऐ एस अधिकारी सेना की .
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कितने आकर्षक मुद्दे हैं देश के सामने, 

क्यों न लगे हाथ पशुओं से विवाह को भी जायज़ करार दिया जाये . 

जब पशु को खाने पर पाबन्दी नहीं तो विवाह में पाबन्दी क्यों : 

हम कब प्रगतिशील होंगे !

हम कब पश्चिमी सभ्यता को टक्कर दे कर पीछे छोडेंगे . 

   

आम लोगों ने कहा- समझ से परे है ममता का यह फरमान

शंकर जालान





कोलकाता। सरकारी व सरकारी सहायताप्राप्त राज्य के विभिन्न पुस्तकालयों में रखे जाने वाले समाचारपत्रों को लेकर राज्य की मुख्यमंत्री व तृणणूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी सरकार के फरमान को विभिन्न पार्टियां जहां गलत बता रही हैं, वहीं आम लोग भी इस आदेश को सहज रूप से गले नहीं उतार पा रहे हैं। आम लोगों का कहना है कि संभवत: देशभर में ममता बनर्जी पहली ऐसी मुख्यमंत्री या किसी पार्टी की प्रमुख होंगी, जिन्होंने इस तरह का फरमान जारी किया है। लोगों का मत है कि समाचार पत्र को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है और ममता ने अपने फैसले से इस स्तंभ को ध्वस्त करने की कोशिश की है।
इस बारे में वृहत्तर बड़ाबाजार के कई लोगों से पूछा गया तो लगभग सभी लोगों ने इस गैर जरूरी बताया। लोगों ने कहा- ममता बनर्जी की अपनी पसंद हो सकती है वे निजी तौर पर किसी अखबार को पंसद या नापसंद कर सकती हैं, लेकिन पुस्तकालय में रखे जाने वाले अखबारों के बारे में उनका आदेश सरासर गलत है।
सर हरिराम गोयनका स्ट्रीट के रहने वाले साधुराम शर्मा ने बताया कि खर्च में कटौती करने के मसकद से मुख्यमंत्री या राज्य सरकार उन पुस्तकालयों को राय दे सकती है कि सरकार तीन या चार या फिर पांच अखबार का खर्च ही वहन करेगी। जहां तक अखबारों के चयन की बात थी यह अगर पुस्तकालय अध्यक्ष पर छोड़ा जाता तो ज्यादा बेहतर होता।
इसी तरह रवींद्र सरणी के रहने वाले आत्माराम तिवारी ने कहा कि संख्या और भाषा तक तो ममता बनर्जी की हां में हां मिलाई जा सकती है। लेकिन ममता बनर्जी ने हिंदी, बांग्ला और उर्दू के अखबारों के नाम का जिक्र कर लोगों को उनके खिलाफ बोलने का मौका दे दिया है। लोगों ने बताया कि मुख्यमंत्री ने अपने फरमान में हिंदी का एक, उर्दू का दो और बांग्लाभाषा के पांच अखबारों को जिक्र किया है। इससे उनकी मंशा साफ हो जाती है कि वे पुस्तकालय में आने वाले लोगों को वही पढ़ाना चाहती है, जो उनके या उनकी सरकार के पक्ष में हो।
वहीं, पेशे से वकील कुसुम अग्रवाल का कहना है कि आर्थिक तंगी तो एक बहाना है। बात दरअसल पैसे की होती तो ममता पुस्तकालयों में केवल अंग्रेजी अखबार रखने की वकालत करती। क्योंकि हिंदी, बांग्ला और उर्दू की तुलना में अंग्रेजी अखबार सस्ते हैं। मजे की बात यह है कि रद्दी में भी अंग्रेजी अखबार अन्य भाषाओं के अखबार की अपेक्षा अधिक कीमत पर बिकते हैं।
ध्यान रहे कि ममता ने जिन तीन भाषाओं के आठ अखबारों के नाम का उल्लेख किया है, वे कहीं ना कहीं तृणमूल कांग्रेस से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। ममता द्वारा सुझाव गए आठ अखबारों के नामों में से हिंदी, बांग्ला और उर्दू अखबार के प्रमुख को ममता ने ही में पश्चिम बंगाल से राज्यसभा में भेजा है।

कम से कम बची तो है जान....

संसार के जंगल में रोज जाती है वो
गठरी मजबूरियों के भर-भर लाती है वो
चूल्हा धधकता तभी है पेट का
चुन-चुन बूंद जिंदगी को बुझाती हो वो
ओहदे, चेहरे, नाम, धर्म सबने कहा
चंद दिनों का और मुफलिसी का जीवन रहा
पर, मगर, सदियां बीत गईं सुनते-सुनते यही
अब तो बात बस उसके नहीं रही
बसें तो नहीं पर बस्तर पहुंचे लक्कड़. लोहा,
मिट्टी, गिट्टी, रेती, पानी, हवा,
पत्ते, पौधे, यहां तक कि जिंदगियों को चोर
मैना, कोयल, कूक, शाल, बीज
दशहरा, सल्फी, शहद, और मसूली भी
छोड़ हटरी उसकी बिक रही देश में चारो ओर
सियासत आती कहने मत रखो फूल पर
दुनियावी नाइंसाफियां भूलकर
रमन, रहनुमा है तुम्हारा
क्या नहीं जानते यह एहसान हमारा
छोड़ दो संस्कृति, संसार, मनाओ खैर कि
कम से कम बची तो है जान...
-सखाजी

बढ़ चलो ए जिंदगी



बढ़ चलो ए जिंदगी

                            
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हर अँधेरे को मिटाकर बढ़ चलो ए जिंदगी
आगे बढ़कर ही तुम्हारा पूर्ण स्वप्न हो पायेगा.




गर उलझकर ही रहोगी उलझनों में इस कदर,
डूब जाओगी भंवर में कुछ न फिर हो पायेगा.




आगे बढ़ने से तुम्हारे चल पड़ेंगे काफिले,
कोई अवरोध तुमको रोक नहीं पायेगा.


तुमसे मिलकर बढ़ चलेंगे संग सबके होसले,
जीना तुमको इस तरह से सहज कुछ हो पायेगा.


संग लेकर जब चलोगी सबको अपने साथ तुम,
चाह कर भी कोई तुमसे दूर ना हो पायेगा.


जुड़ सकेंगे पंख उसमे आशा और विश्वास के ,
''शालिनी'' का नाम भी पहचान नयी पायेगा.


      भारतीय हॉकी टीम के हौसले बुलंद करने में लगी शिखा कौशिक जी की एक शानदार प्रस्तुति को यहाँ आप सभी के सहयोग हेतु प्रस्तुत कर रही हूँ आशा है आप सभी का इस पुनीत कार्य में शिखा जी को अभूतपूर्व सहयोग अवश्य प्राप्त होगा.उनकी प्रस्तुति के लिए इस लिंक पर जाएँ-


हॉकी  हमारा राष्ट्रीय खेल 
        
            शालिनी कौशिक 




  

28.3.12

लॉयल्टी


लॉयल्टी
ज़माना जरूर बेईमानी का है...लेकिन बेईमाने के धंधे में भी लॉयलटी की ही कदर है...जो लॉयल नहीं है वो किसी काम के नहीं...फिर चाहे धंधा बेईमानी का हो...या फिर...राजनीति। कहते भी हैं कि लॉयल्टी में बड़ी ताकत होती है...अपने काम के प्रति हमेशा लॉयल रहो...जिसके लिए काम कर रहे हो...जिसके साथ काम कर रहे हो उसके लिए हमेशा लॉयल रहो...देर सबेर लॉयल्टी का ईनाम आपको जरूर मिलेगा...लेकिन ज़रा सोचो तब किसी पर क्या गुजरती होगी...जब लॉयल रहने के बाद आपको किनारे कर दिया जाए। आप भी सोच रहे होंगे कि आखिर ये लॉयल्टी का बात आखिर उठी क्यों है...दरअसल उत्तराखंड में चुनाव के नतीजे क्या आए...मानो कांग्रेस के विधायकों औऱ नेताओं ने दिखाना शुरू कर दिया कि वे अपने नेताओं के प्रति कितने लॉयल हैं। सवाल मुख्यमंत्री की कुर्सी का था...लेकिन कुर्सी एक थी औऱ दावेदार कई...ऐसे में दावेदारों में ही जंग छिड़ गयी कि पार्टी के लिए किसने कितनी सेवा की है...पार्टी के लिए कौन कितना लॉयल है। कसर तो किसी ने नहीं छोड़ी थी...चाहे हरीश रावत हों...विजय बहुगुणा हों...सतपाल महाराज हों...हरक सिंह रावत हों...इंदिरा हृद्येश हों या फिर यशपाल आर्य...लेकिन सबको चौंकाते हुए बाजी मार ले गये विजय बहुगुणा...औऱ मिल गयी मुख्यमंत्री की कुर्सी...ऐसे में दूसरे दावेदारों इसे कैसे बर्दाश्त करते...उनके समर्थक विधायकों को मिल गया मौका...अपने पसंदीदा नेता के लॉयल्टी टेस्ट में पास होने का...फिर उन्होंने देर कहां करनी थी...खोल दिया आलाकमान के फैसले के खिलाफ मोर्चा...आखिर ऐसे मौके बार – बार तो आते नहीं...यहां जो दौड़ में पीछे थे...उन्होंने तो आलाकमान के फैसले को ही नियति मान लिया...लेकिन जो दौड़ में आगे रहने के बाद पिछड़ गये थे...उन्होंने हार नहीं मानी औऱ अपना लिए बगावती तेवर। आलाकमान पर फैसला बदलने के लिए खूब जोर डाला...लेकिन जब लगा दाल नहीं गलने वाली तो समझौता का रास्ता तो था ही...कुर्सी न मिली न सही समझौते के बहाने कुछ तो हाथ लगेगा...सीधा मतलब है भागते भूत की लंगोटी ही सही। चुनाव में खंडित जनादेश मिला था...निर्दलीय, यूकेडी पी ऱऔ बसपा विधायकों के समर्थन की बैसाखी से सरकार खडी थी...तो दस जनपथ भी बेबस था...समझौते के बिंदुओं पर लगा दी मुहर। अब समझौते के बहाने हरीश रावत एंड कंपनी को तो मिल गयी सरकार में बड़ी हिस्सेदारी...लेकिन जो बहुगुणा के लॉयल रहे...पार्टी के लॉयल रहे वे रह गये खाली हाथ...यानि कि लॉयल्टी टेस्ट में पास होने के बाद भी उम्मीद के विपरित सौगात तो मिली नहीं दरकिनार कर दिए गये...यानि की लॉयल्टी...राजनीति से मात खा गयी...कहते भी हैं राजनीति में सब चलता है...सब कुछ होता है...या कहें कुछ भी हो सकता है...इसलिए जनाब जब राजनीति के मैदान में हो...तो हर चीज के लिए तैयार रहो...राजनीति में लॉयल्टी से कुछ नहीं होता...होता है तो सही समय पर सही फैसला लेने से...यानि मौका देखो के चौका मारो...यही राजनीति है...औऱ कुर्सी पानी है तो सिर्फ लॉयल्टी से काम नहीं चलने वाला।
दीपक तिवारी