मधुमेह और उच्च-रक्तचाप- दोहरी मुसीबत
उच्च-रक्तचाप की परिभाषा
उच्च-रक्तचाप वह रोग है जिसमें हृदय के संकुचन (Systole) की अवस्था में रक्त वाहिकाओं में रक्त का दबाव पारे के 140 mm से ज्यादा या हृदय के विस्तारण (Diastole) की अवस्था में 90 mm से ज्यादा रहता है या दोनों अवस्थाओं में ज्यादा रहता है।
यह दो प्रकार का होता है। पहला प्रमुख ( Essential) उच्च-रक्तचाप जिसमें हम रक्तचाप बढ़ने का कोई कारण नहीं ढूंढ़ पाते हैं, रक्तचाप के 85% से 90% रोगी इसी क्षेणी में आते हैं। अगला है द्वितीयक (Secondary) उच्च-रक्तचाप जिसमें रक्तचाप का उपचार योग्य कोई कारण विद्यमान रहता है। चूंकि आरंभिक अवस्था में रोगी में कोई लक्षण नहीं होते हैं, इसलिए इसे “मूक कातिल” भी कहते हैं।
मधुमेह और उच्च-रक्तचाप दोनों ही रोगों में हृदय रोग, वृक्क रोग तथा अन्य घातक जटिलताओं का जोखिम रहता है। यदि रोगी में दोनों एक साथ डेरा डाल लें तो उपरोक्त जटिलताओं का जोखिम दुगुना नहीं बल्कि एक और एक ग्यारह की तर्ज पर बढ़ेगा। दुर्भाग्य वश उच्च रक्तचाप रोग की संभावना सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा डायबिटीज के रोगी में कहीं ज्यादा रहती है। मधुमेह और उच्च रक्तचाप के साथ यदि रोगी में रक्त-वसा की विकृतियां (Dyslipidemia), केन्द्रीय स्थूलता (Central Obesity) और एथेरोस्क्लिरोसिस भी विद्यमान हो तो इस अवस्था को सिन्ड्रोम-एक्स (Syndrome-X) कहते हैं।
यदि डायबिटीज के रोगी को उक्त रक्तचाप भी है तो कोरोनरी धमनी रोग, हार्ट फेल्यर या हृदयवात, पेरीफ्रल वेस्कूलर रोग, क्षणिक अरक्तता दौरा (Transient Ischemic Attack) और स्ट्रोक का जोखिम अपेक्षाकृत काफी ज्यादा रहता है। डायबिटीज के रोगी में उच्च रक्तचाप रोग की उपस्थिति नेफ्रोपैथी, रेटीनोपैथी आदि जटिलताओं की संभावना को और प्रबल बनाती है। यदि डायबिटीज के रोगी को उच्च रक्तचाप रोग भी है तो रेटीनोपैथी के लक्षण जल्दी दिखाई देते हैं। यदि रक्तचाप पर कड़ा नियंत्रण रखा जाये तो रेटीनोपैथी की प्रगति धीरे होगी। डायबिटीज के रोगी को यदि उच्च रक्तचाप भी हो तो नेफ्रोपैथी तेजी से प्रगति करेगी। नेफ्रोपैथी का आरंभिक लक्षण सूक्ष्मश्वेतकमेह या माइक्रोएल्ब्युमिनुरिया है। ऐसा देखा गया है कि यदि रक्तचाप ज्यादा है तो मूत्र में एल्ब्युमिन का स्राव भी ज्यादा होगा। यदि रक्तचाप और रक्त शर्करा का नियंत्रण प्रभावशाली है तो मूत्र में एल्ब्युमिन का स्राव रूक जायेगा या न्यूनतम हो जायेगा। यदि डायबिटीज के उन रोगियों, जिनमें पहले से ही वृक्क रोग प्रगतिशील है, और उन्हें उच्च रक्तचाप रोग भी हो जाता है और अनियंत्रित छोड़ दिया जाता है तो उसमें वृक्क रोग अन्तिम अवस्था की ओर काफी शीघ्रता से प्रगति करेगा।
|
|
|
कारण
कारण जिन्हें हम बदल नहीं सकते हैं।
1- उम्र 2- प्रजाति 3- जीवन शैली 4- आनुवंशिक 5- लिंग।
कारण जिन्हें हम बदल सकते हैं।
1- स्थूलता 2- सोडियम संवेदनशीलता 3- मदिरापान 4- गर्भ निरोधक गोलियां 5- शारीरिक
निष्क्रियता (Sedantary Life) 6- दवाइयां।
आरंभिक लक्षण
आरंभिक अवस्था में सामान्यतः कोई लक्षण नहीं होते हैं। कुछ रोगी शुरू में चक्कर, चेहरा तमतमाना, सरदर्द, थकावट, मिचली, वमन, नकसीर और बैचेनी जैसे लक्षण बताते हैं। चौथी हृदय ध्वनि भी आरंभिक संकेत हैं। बाद में दृष्टि में धुंधलापन, श्वासकष्ट (Dysnoea), हृदयाघात (Heart Attack), हृदपात (Heart Failure), क्षणिक अरक्तता दौरा (Transient Ischemic Attack), वृक्कपात (Kidney Failure), दृष्टि हीनता, परिसरीय वाहिकीय रोग (Peripheral Vascular Disease) के कारण चलते समय पैरों में दर्द आदि।
उच्च-रक्तचाप के लगभग 1% रोगी तभी चिकित्सक से संपर्क करते हैं जब रक्तचाप बहुत बढ़ जाता है जिसे दुर्दम उच्च-रक्तचाप (Malignant Hypertension) कहते हैं। दुर्दम उच्च-रक्तचाप में विस्तारण रक्तचाप 140 mm से ऊपर रहता है और स्ट्रोक या रक्तस्राव का बहुत जोखिम रहता है । इस अवस्था का तुरंत सघन उपचार आवश्यक है।
याद रहे रक्तचाप वर्षों तक चुपचाप लक्षण रहित बना रह सकता है और शरीर के महत्वपूर्ण अंगों जैसे हृदय, आँखें, वृक्क, मस्तिष्क आदि को चुपचाप क्षतिग्रस्त करता रहता है। कई बार हमें रक्तचाप होने की जानकारी तभी निलती है जब हमें हार्ट अटेक या स्ट्रोक होता है या इंश्योरेंस हेतु रक्तचाप नपवाते हैं।
निदान
भूतकाल, पारिवारिक, व्यक्तिगत और चिकित्सा इतिहास बारीकी से पूछिये।
भौतिक निरीक्षण- रक्तचाप नापें, कलाई, टखना और पैर की नब्ज़, हृदय, फेफड़े, उदर, रेटीनोपैथी आदि।
मूत्र परीक्षण- विशिष्ट घनत्व (Specific Gravity), सूक्ष्म श्वेतकमेह (Microalbuminuria), शर्करा, कास्ट आदि।
रक्त परीक्षण- संपूर्ण रक्त गणना (CBC), विद्युत अपघट्य (Eletrolytes), यूरिया, क्रियेटिनीन, जी.एफ.आर. (Glomerular Filtration Rate), लिपिड प्रोफाइल, थायराइड के T3 T4 TSH टेस्ट आदि।
छाती का एक्सरे, अल्ट्रासाउन्ड, CT स्केन, ECG, 2-डी इको, कलर डोपलर आदि।
डायबिटीज के रोगी में उच्च रक्तचाप के कुप्रभाव
सूक्ष्म वाहिका कुप्रभाव या Microvascular complications
· वृक्क रोग
· स्वायत्त नाड़ी-दोष (Autonomic Neuropathy)
सेक्स संबंधी दोष और ऑर्थ्रोस्टेटिक हाइपरटेंशन।
· नैत्र रोग
ग्लूकोमा, डायबीटिक रेटीनोपैथी और इसके फलस्वरूप दृष्टिहीनता।
दीर्घ वाहिका कुप्रभाव या Macrovascular complications
· हृदय रोग
कोरोनरी धमनी रोग, रक्ताधिक्य हृदयवात या कंजेस्टिव हार्ट फेल्यर और कार्डियोमायोपैथी।
· मस्तिष्क रोग
स्ट्रोक।
· परिसरीय वाहिकीय रोग (Peripheral Vascular Disease).
पैरों में फोड़े, पैर विच्छेदन (Foot Amputation) आदि।
कुछ विशेष पहलू
डायबिटीज के रोगी में उच्च रक्तचाप रोग का उपचार आरंभ करने के पहले मैं आपको बतलाना चाहता हूं कि यह उच्च रक्तचाप का कारण कहीं अल्प रक्त-शर्करा (Hypoglycemia) तो नहीं हैं। कभी-कभी डायबिटीज के रोगी की रात्री में शर्करा कम हो जाती है जिसके फलस्वरूप सुबह रक्तचाप बढ़ जाता है और नींद से जागते ही सरदर्द हो सकता है। इसका कारण अल्प रक्त-शर्करा की वजह से एड्रीनेलिन, कोर्टिजोल, ग्रोथ हार्मोंन, ग्लुकागोन आदि हार्मोंन्स के स्राव का बढ़ना है। अतः दवाईयां या इन्सुलिन लेने वाले डायबिटीज के रोगी में रक्तचाप का उपचार शुरू करने के पहले यह सुनिश्चित कर लें कि उच्च रक्तचाप का कारण कहीं हाइपोग्लाइसीमिया तो नहीं है।
डायबिटीज के कुछ रोगियों में ऑटोनोमिक न्यूरोपैथी के कारण पोस्चुरल हाइपोटेंशन होता है। यदि ऐसी संभावना का आभास हो तो चिकित्सक को चाहिये कि वह रक्तचाप का माप दोनों बाहों में रोगी को लेटाकर बैठा कर और खड़ा करके तीनों अवस्थाओं में ले।
डायबिटीज में रोगी के रक्तचाप का कड़ा नियंत्रण रखना हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिये। चिकित्सक को हर बार डायबिटीज के रोगी का रक्तचाप नापना चाहिए। रोगी को स्पष्ट हिदायत दे देनी चाहिए कि उसे अपनी शर्करा और रक्तचाप आजीवन नियंत्रण में रखने है। जहां तक संभव हो रक्तचाप 120/80 के आस-पास रखना चाहिए। दुर्भाग्यवश कई रोगी ऐसा सोचते हैं कि यदि उन्हें रक्तचाप के सामान्य लक्षण जैसे सर दर्द आदि नहीं है तो रक्तचाप सामान्य ही होगा और वे दवा लेना बन्द कर देते हैं। लेकिन यह गलत है उच्च रक्तचाप शांत रहकर वार करने वाला शत्रु है। कई बार रक्तचाप बहुत ज्यादा होते हुये भी रोगी में कोई लक्षण नहीं होते। यदि हम यह सोचें कि रक्तचाप के लक्षण दिखाई देने पर उपचार शुरू करेंगे तो यह बड़ा त्रुटि पूर्ण निर्णय होगा क्योंकि तब तक वह शरीर को काफी क्षति पहुंचा चुका होता है।
रक्तचाप नापने के संबंध में सावधानियां -
· रक्तचाप नापने के पहले यह सुनिश्चित कर ले कि रोगी ने पिछले 30 मिनट में केफीन, गुटखा, बीड़ी या सिगरेट का सेवन न किया हो।
· रक्तचाप मापने के पहले रोगी को शांत वातावरण में 5-10 मिनट विश्राम करने को कहें।
· यह सुनिश्चित कर लें कि रक्तचाप मापक यंत्र ठीक से काम कर रहा हो। इसका नियमित रखरखाव आवश्यक है।
· रक्तचाप को दो से अधिक बार नापें।
· दोनों बाहों का रक्त चाप नापें।
· हमेशा ध्यान रखे की यंत्र का कफ रोगी के बांह के नाप का हो।
अपने रोगियो को यह अच्छी तरह समझा दे की वे अपना रक्त चाप नियमित नपवाते रहें यदि रक्तचाप ज्यादा या कम हो तो चिकित्सक से सम्पर्क करें। रक्तचाप मापने के लिये पारे वाला या डायल वाला यंत्र ही सबसे अच्छा माना गया है। इलेक्ट्रानिक रक्तचाप यंत्र पर भरोसा न करें, यह कई बार गलत निर्णय देता है। नोन-सलेक्टिव बीटा ब्लॉकर जैसे प्रोप्रेनालोल और सलेक्टिव बीटा ब्लॉकर जैसे ऐटीनोलोल और मेटोप्रोलोल दोनों ही ट्राइग्लीसराइड्स की मात्रा 30-40 % और HDL कॉलेस्ट्रोल की मात्रा 10-15 % बढ़ाते हैं। सिम्पेथेटिक प्रभाव वाले
बीटा-ब्लॉकर जैसे प्रेक्टोलोल और पिंडोलोल वसा की मात्रा को प्रभावित नहीं करते है। वेरापेमिल और नीफेडिपिन कालेस्ट्रॉल को कम करती हैं। ACE इनहीबिटर्स और ARB लिपिड प्रोफाइल को प्रभावित नहीं करते हैं।
एक पहलू जिसे हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं, वह है पुरुषों में स्तंभन दोष। यह डायबिटीज के पुरूष रोगियों की महत्वपूर्ण समस्या है। ऐसा देखा गया है कि डायबिटीय होने के कुछ वर्षों बाद लगभग 50-60 % पुरूष रोगियों को स्थम्भन दोष की शिकायत हो जाती है। इसके कारण इससे रोगियों को काफी मानसिक आघात पहुँचता है। इसके बारे में वह अपने चिकित्सक से भी नहीं कह पाता है। ऐसे कितने चिकित्सक है जो अपने रोगियों से इस विषय के बारे में भी खुलकर प्रश्न करते हैं। जबकि आज हमारे पिटारे में नपुंसकता के लिये ढ़ेर सारे उपचार हैं। दुर्भाग्यवश ज्यादातर रक्तचाप की दवाईयों का दुष्प्रभाव नपुंसकता है। हमें चाहिये कि ऐसी दवाईयों का उपयोग बन्द करें। और किन्हीं विषम परिस्थितियों में उन्हें देना भी पड़े तो रोगी को उनके दुष्प्रभाव पहले से बताये जायें।
आज जब हमारे पास बेहतर दवाईयां उपलब्ध है जो रक्तचाप का स्निग्ध नियंत्रण करने के साथ-साथ रोगी में कोई सेक्स विकार भी नहीं करती हैं। तो हम क्यों अज्ञानवश पुरानी दवाईयां ही रोगियों को खिलाये जा रहे हैं। डाययुरेटिक्स, बीटा ब्लॉकर्स और हाईड्रेलेजील भी स्थम्भन दोष के लिये जिम्मेदार है। ACEi’s और ARB’s पूर्णतः सुरक्षित है।
हमने उपर देखा था कि ओटोनोमिक न्युरोपैथी के कारण कई रोगियों में पोस्चुरल हाइपोटेंशन की शिकायत होती है। ऐसे रोगियों को वे दवाईयां नहीं देनी चाहिये जिनका पार्श्व प्रभाव पोस्चुरल हाइपोटेंशन है जैसे- प्रेजोनिन, हाइड्रेनेजिन, मिनोक्सीडिल और कुछ डाइयुरेटिक्स बीटा ब्लॉकर्स में पिन्डोलोल काफी सुरक्षित मानी गयी है। CCB’s, ACEi’s और ARB’s भी इस मामले में अपेक्षाकृत सुरक्षित है।
रक्तचाप की देखभाल
सेकन्ड्री हाइपरटेंशन
हमारा अगला कदम उच्च रक्तचाप के उन कारणों का पता लगाना है, जिनका संपूर्ण उपचार शल्य क्रिया या अन्य तरीकों द्वारा संभव है, जैसे गर्भ निरोधक गोलियां, स्टिरोयड्स, एक्रोमेगाली, कशिंग्स सिंड्रोम, थायरोटोक्सिकोसिस, कोन्स सिंड्रोम, फियोक्रोमोसाइटोमा और रिनो-वेस्कुलर हाइपरटोंशन। हालांकि सामान्यतः विषमताओं के निदान हेतु विशेष जांचे नहीं करवाई जाती हैं, लेकिन एक अनुभवी चिकित्सक उपरोक्त कारणों को आरंभिक अवस्था में भी ताड़ ही लेता है।
नियंत्रण
रक्तचाप नियंत्रण की कई दवाइयों को हम विषम पार्श्व प्रभावों के कारण डायबिटीज में प्रयोग नहीं कर पाते हैं। हमें औषधियों के साथ साथ रक्तचाप के अन्य प्राकृतिक उपचार भी अपनाने चाहिये जैसे योग, ध्यान, प्राणायाम या जड़ी बूटियां । स्थूलता से रक्तचाप बढ़ता है और वजन कम करने से रक्तचाप कम होता है। इसलिए मोटे डायबीटिक को हमेशा वजन कम करने की सलाह दी जाती है।
नमक (सोडियम क्लोराइड) का सेवन कम करने से रक्तचाप पर बड़ा अनुकूल प्रभाव पड़ता है। जब रक्तचाप बढ़ता है तो आरंभिक अवस्था में रक्त का आयतन भी बढ़ता है, जिसका कारण बढ़ी हुई ग्लुकोज का रसाकर्षण (Osmosis) प्रभाव है। इसमें सोडियम की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है। ऐसा देखा गया है कि यदि डायबिटीज के रोगी को ब्लड प्रेशर भी है तो उसका सोडियम अपेक्षाकृत 10% ज्यादा होता है।
रक्तचाप बढ़ने में सोडियम की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और सोडियम की मात्रा कम करना रक्तचाप के उपचार का कैंद्र बिंदु है। सोडियम की मात्रा कम करने के दो उपाय हैं, सोडियम का सेवन कम करना या डाइयुरेटिक्स लेना। डाइयुरेटिक्स के कई विषम पार्श्व प्रभाव हैं अतः डायबिटीज के रोगी को सोडियम (नमक) का सेवन कम से कम करना ही श्रेष्टतम होगा।
उच्च रक्तचाप में दी जाने वाली मुख्य दवाइयां
एंजियोटेंसिन कनवर्टिंग एंजाइम इन्हिबिटर्स (ACEi’s)
सन् 1981 से प्रचलित ACEi’s विषेशतौर पर डायबिटीज के रोगियों में उच्च रक्तचाप के उपचार की लोकप्रिय दवा है। डायबिटीज के रोगी में नेफ्रोपैथी की आरंभिक अवस्था (माइक्रोएल्ब्युमिनुरिया) से ही इसे शुरू कर देना चाहिये चाहे रक्तचाप सामान्य रहता हो। ऐसे पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं कि यह ग्लोमेर्युलस की केशिकाओं में रक्त का दबाव कम करती हैं जिसके फलस्वरूप नेफ्रोपैथी के कारण हुई आरंभिक क्षति को या तो उलट कर सही कर देती है या कम से कम क्षति की प्रगति को अवरुद्ध तो करती ही है। यह डायबिटीज में उच्च रक्तचाप की पसंदीदा औषधि है। यह उन रोगियों के लिए भी हितकारी है जिन्हें हृदयाघात, कंजेस्टिव हार्ट फेल्यर या डायबीटिक किडनी रोग हो चुका हो। हाल ही हुए परीक्षणों से यह निश्कर्ष निकला है कि यह स्ट्रोक, कोरोनरी धमनी रोग और अन्य हृदय रोगों के जोखिम को 20% से 30% कम करते हैं। ये इंसुलिन संवेदनशीलता बढ़ाते हैं। इनका लिपिड प्रोफाइल पर कोई कुप्रभाव नहीं है। ये रेटीनोपैथी की प्रगति में अवरोध पैदा करते हैं।
कार्य प्रणाली
एंजियोटेंसिन कनवर्टिंग एंजाइम (ACE) एक प्रोटीन है जो निष्किय तत्व एंजियोटेंसिन-I को एंजियोटेंसिन-II में बदल देता है। एंजियोटेंसिन-II एक प्रबल तत्व है जो रक्त वाहिकाओं का संकुचन करता है। एंजियोटेंसिन कनवर्टिंग एंजाइम इन्हिबिटर्स (ACEi’s) इस एंजाइम को निष्क्रिय कर रक्त में एंजियोटेंसिन-II का मात्रा को कम करते हैं। एंजियोटेंसिन-II प्रबल रक्त वाहिका संकुचक है और एल्डोस्टेरोन का स्राव बढ़ाता है। एल्डोस्टेरोन सोडियम और जल को रोकता है। इस तरह ACEi’s एंजियोटेंसिन-II के स्राव को कम कर रक्त वाहिकाओं का विस्तारण करते हैं और एल्डोस्टेरोन के प्रभाव को निष्क्रिय करते हैं, फलस्वरूप रक्तचाप कम होता है।
वर्जना
अतिसंवेदनशीलता, गर्भावस्था, सोडियम ज्यादा होना, दोनों रीनल धमनियों का संकुचन। यदि यह दवा शुरू करते ही क्रियेटिनीन बढ़ने लगे तो मान कर चलें कि हो न हो यह दोनों रीनल धमनी के संकुचन के कारण ही बढ़ा हो। पहले इस संभावना का निदान कीजिये।
पार्श्व प्रभाव
ब्रेडीकाइनिन जमा होने के कारण बिना बलगम वाली सूखी खांसी, एंजियोऐडीमा, हाइपोग्लाइसीमिया, रक्तचाप कम हो जाना, एंजाइना (छाती में दर्द), , चक्कर आना, सर दर्द, कमजोरी, थकावट, मिचली, वमन, दस्त, कब्जी, श्वेत रक्त कण कम हो जाना, त्वचा में चकत्ते, चेहरा तमतमाना, सोडियम ज्यादा होना और मूत्र में प्रोटीन का स्राव।
एंजियोटेंसिन रिसेप्टर ब्लॉकर (ARBs)
एंजियोटेंसिन रिसेप्टर ब्लोकर उच्च रक्तचाप की दवाइयों की सबसे नई क्षेणी है जो ACEi’s के समान प्रभावशाली है। नये परीक्षणों से सिद्ध हुआ है कि अन्य दवाइयों की अपेक्षा ARBs वृक्कों की सुरक्षा बहतर ढंग से करती हैं। उच्च रक्तचाप की अनुपस्थिति में भी ये मूत्र में एल्ब्युमिन के स्राव (माइक्रोएल्ब्युमिनुरिया) कम करते हैं।
कार्य प्रणाली
ये एंजियोटेंसिन-II की उसके अभिग्राहक (रिसेप्टर) से समन्वय को बाधित करते हैं और इस तरह एंजियोटेंसिन-II का रक्त वाहिका संकुचन नहीं कर पाता है तथा एल्डोस्टेरोन का स्राव भी कम होता है। एल्डोस्टेरोन सोडियम और जल को रोकता है और रक्त का आयतन बढ़ाता है। ARBs इस तरह एल्डोस्टेरोन के प्रभाव को निष्क्रिय करते हैं, और रक्तचाप कम होता है।
वर्जना
अतिसंवेदनशीलता, गर्भावस्था, सोडियम ज्यादा होना, दोनों रीनल धमनियों का संकुचन। यदि यह दवा शुरू करते ही क्रियेटिनीन बढ़ने लगे तो सबसे पहले रीनल धमनियों के संकुचन की संभावना पर गौर कीजिये।
पार्श्व प्रभाव
ऑर्थोस्टेटिक हाइपरटेंशन, एंजियोऐडीमा, चक्कर आना, सर दर्द, थकावट, अपच, दस्त, मांस पेशियों में एंठन, त्वचा में चकत्ते, चेहरा लाल होना, सोडियम ज्यादा होना और मूत्र में प्रोटीन का स्राव।
केल्शियम चेनल ब्लॉकर (CCBs)
केल्शियम चेनल ब्लॉकर (CCBs) को उच्च रक्तचाप और एंजाइना के उपचार में व्यापक रूप से प्रयोग में लिया जाता है। कुछ वर्षों पहले ऐसी जानकारियां मिली थी कि इसके सेवन करने वाले रोगियों को हार्ट अटेक हो रहे हैं। यह बड़ी अचरज भरी घटना थी। हालांकि ये हार्ट अटेक निफेडिपिन के कारण हो रहे थे, जो वास्तव में उच्च रक्तचाप के उपचार हेतु कभी भी स्वीकृत नहीं की गई थी। सामान्यतः दीर्घ प्रभावी CCBs को काफी सुरक्षित माना जाता है क्योंकि ये धीरे धीरे और सहजता से रक्तचाप कम करते हैं। ये आजकल पुनः लोकप्रिय हो रही हैं।
CCBs दो तरह के होते हैं। डाइहाइड्रोपाइरिडीन्स CCBs (जैसे एम्लोडिपिन, डिलटायजेम) और नोनडाइहाइड्रोपाइरिडीन्स CCBs (जैसे वेरापेमिल)।
CCBs और ACEi’s को साथ दिया जाय तो मूत्र में एल्ब्युमिन का स्राव कम होता है।
कार्य प्रणाली
रक्त वाहिका की पैशी कोशिका (Muscle Cell) की झिल्लियों में केल्शियम के प्रवेश हेतु विशेष मार्ग होते हैं जिन्हें केल्शियम चेनल्स कहते हैं। केल्शियम इन चेनल्स से गुजरती हुई कोशिका में प्रवेश करती हैं और पैशी कोशिका का संकुचित करती हैं। जैसा कि नाम से स्पष्ट है केल्शियम चेनल ब्लॉकर (CCBs) झिल्लियों की केल्शियम चेनल्स को बंद कर देती हैं और पैशी कोशिका के संकुचन को कमजोर करती हैं। इससे रक्त वाहिकाओं का विस्तारण (Dilatation) होता है और रक्तचाप कम होता है। हृदय की पैशियां भी केल्शियम पर निर्भर हैं लेकिन इनका विन्यास कुछ अलग तरह का होता है, जिसके फलस्वरूप कुछ CCBs सिर्फ हृदय की पैशियों पर ही काम करती हैं और अन्यत्र नहीं। CCBs का कोरोनरी धमनियों को विस्तारित करना एंजाइना और उच्त रक्तचाप के लिए हितकारी है।
वर्जना
अतिसंवेदनशीलता, दूसरे या तीसरे दर्जे का हार्ट ब्लॉक, सिक साइनस सिन्ड्रोम, सिंपेथेटिक हाइपोटेंशन, कंजेस्टिव कार्डियक फैल्यर, कोरोनरी धमनी रोग।
पार्श्व प्रभाव
एवी हार्ट ब्लॉक, परिधीय एडीमा, सर दर्द, चक्कर, मसूढ़े बढ़ जाना, कब्जी आदि।
बीटा ब्लॉकर्स
हृदय की विषमताओं पर अनुकूल प्रभाव के कारण पहले बीटा ब्लॉकर्स डायबिटीज में उच्च रक्तचाप के उपचार में खूब लिखे जाते थे। लेकिन हाल ही हुई शोध से कुछ प्रतिकूल बातें सामने आई हैं जैसे हाइपोग्लाइसीमिया के लक्षणों का महसूस न होने के कारण रोगी का बेफिक्र बने रहना, पेरीफ्रल वेस्कुलर रोग में वृद्धि, रक्त-शर्करा और LDL-कॉलेस्ट्रोल का बढ़ना, जिससे कारण इनका प्रयोग काफी कम हुआ है।
नोन सेलेक्टिव बीटा ब्लॉकर्स जैसे प्रोप्रेनोलोल उपवास और आहार दोनों समय इंसुलिन का स्राव कम करते हैं और रक्त-शर्करा को 25%-30% बढ़ाते हैं। हालांकि सेलेक्टिव बीटा ब्लॉकर्स जैसे मेटोप्रोलोल, एटीनोलोल आदि सामान्यतः इंसुलिन के स्राव को प्रभावित नहीं करते हैं।
यह सत्य है कि रक्त-शर्करा की 30% बढ़त कोई विशेष नहीं है और इसे दवाइयों की मात्रा बढ़ा कर कम किया जा सकता है।
ग्लुकागोन का स्राव भी बीटा एड्रिनर्जिक के नियंत्रण में रहता है। प्रोप्रेनोलोल का सेवन ग्लुकागोन का स्राव कम करता है। ग्लुकागोन हाइपोग्लाइसीमिया से सुरक्षा कि मुख्य कड़ी है। बीटा ब्लोकर्स आवश्यकता पड़ने पर यकृत में गिलाइकोजन से ग्लुकोज के निर्माण को भी बाधित करते हैं। बीटा ब्लोकर्स कोशिकाओं में ग्लुकोज को ऊर्जा के निर्माण हेतु भेजते हैं। हालांकि ये सभी क्रियाएं डायबिटीज के रोगी के लिए हितकारी हैं। लेकिन बीटा ब्लोकर्स लेने वाले रोगी में हाइपोग्लाइसीमिया होने की संभावना ज्यादा रहती है, खास तौर पर इन्सुलिन लेने वाले रोगियो में। बीटा ब्लोकर्स लेने वाले रोगी को हाइपोग्लाइसीमिया की स्थिति से बाहर निकलने में भी समय लगता है। बीटा ब्लोकर्स नोरएपिनेफ्रीन का स्राव भी बाधित करते हैं, जो हाइपोग्लाइसीमिया से बाहर निकलने में मदद करता है।
नोनसेलेक्टिव और सलेक्टिव बीटा ब्लोकर्स ट्राइग्लिसराइड्स को 30% से 40% बढ़ाते है और HDL कॉलेस्ट्रोल को 10% से 15% कम करते है। सिम्पेथेटिक प्रभाव वाले बीटा ब्लोकर्स जैसे प्रेक्टोलोल और पिन्डोलोल लिपिड प्रोफाइल को नहीं छेड़ते है।
हालांकि बीटा ब्लोकर्स रक्त-शर्करा भी थोड़ी बढ़ाते हैं, कॉलेस्ट्रोल को भी बढ़ाते है और हाइपोग्लाइसीमिया का जोखिम भी ज्यादा रहता है, लेकिन ये हृदय रोगों की जोखिम को काफी कम करते हैं। इसलिए बीटा ब्लोकर्स को मधुमेह में उच्च रक्तचाप के उपचार हेतु दूसरे या तीसरे विकल्प के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
कार्य प्रणाली
जैसा कि नाम से स्पष्ट बीटा ब्लॉकर्स बीटा रिसेप्टर्स को अवरुद्ध करते हैं। स्वायतः नाड़ी तंत्र या सिम्पेथेटिक नर्वस सिस्टम हृदय और रक्त वाहिकाओं की विभिन्न क्रियाओं का नियंत्रण करता है। यह नर्व एडिंग्स से नोरएपिनेफ्रीन नामक रसायन का स्राव करता है जो हृदय और रक्त वाहिकाओं की कोशिका की सतह पर स्थित रिसेप्टर्स से क्रिया कर उनका संकुचन और विस्तारण करता है। बीटा ब्लॉकर्स इन रिसेप्टर्स पर चिपक जाते हैं और नोरएपिनेफ्रीन रिसेप्टर्स से क्रिया नहीं कर पाते हैं।
हृदय की पैशियों पर स्थित बीटा-1 रिसेप्टर्स के अवरोध के कारण हृदय गति कम होती है, पैशियों का संकुचन और एवी-कंडक्शन धीमा पड़ जाता है।
वर्जना
अतिसंवेदनशीलता, कार्डियोजनिक शोक या कार्डयक फैल्यर, तीव्र साइनस ब्रेडीकार्डिया, दूसरे या तीसरे दर्जे का हार्ट ब्लॉक, ब्रोंकियल अस्थमा या COPD सीओपीडी।
पार्श्व प्रभाव
रक्तचाप कम होना, हृदय गति कम होना, अवसाद, सर दर्द, चक्कर, अनिद्रा, ट्राइग्लिसराइड्स तथा LDL कॉलेस्ट्रोल का बढ़ना और HDL कॉलेस्ट्रोल का कम होना, ब्रोंकोस्पाज्म, कामेच्छा कम होना और पुषहीनता। एवी हार्ट ब्लॉक, परिधीय एडीमा, सर दर्द, चक्करआना, मसूढ़े बढ़ जाना, कब्ज़ी आदि। सुस्ती आना भी बड़ा कष्टदायक कुप्रभाव है।
अल्फा ब्लॉकर्स
अल्फा ब्लॉकर्स को डायबिटीज में उच्च रक्तचाप के उपचार हेतु पहले विकल्प के रुप में प्रयोग नहीं किया जाता है। इसका प्रयोग अन्य दवाईयों के साथ दूसरे या तीसरे विकल्प के रूप में तभी किया जाता है जब रक्तचाप को नियंत्रित करना काफी मुश्किल हो रहा हो।
कार्य प्रणाली
अल्फा ब्लॉकर्स सिम्पेथेटिक नाड़ी तंत्र के प्रभाव से होने वाले रक्त वाहिकाओं के संकुचन को बाधित करते हैं। ये रक्त वाहिकाओं की पेशी कोशिकाओं पर स्थित अल्फा रिसेप्टर्स को निष्क्रिय करते हैं और नोरएपिनेफ्रीन नामक रसायन को कोशिका की पेशियों का संकुचन करने से रोकते है। फलस्वरूप वाहिका तंत्र का परिधीय प्रतिशोध कम होता है और रक्तचाप स्वतः कम हो जाता है।
वर्जना
अतिसंवेदनशीलता, कार्डियोजनिक शोक या कार्डियक फैल्यर, तीव्र साइनस ब्रेडीकार्डिया, दूसरे या तीसरे दर्जे का हार्ट ब्लॉक, ब्रोंकियल अस्थमा या COPD सीओपीडी।
पार्श्व प्रभाव
आम तौर पर इनकी पहली खुराक से रक्तचाप एक दम गिरता है हालांकि बाद की खुराकों से रक्तचाप में ऐसी नाटकीय गिरावट नहीं होती है। रक्तचाप में इस गिरावट के कारण खड़े होने पर रोगी चक्कर खाकर गिर सकता है। इसलिए आरम्भ में अल्फा ब्लॉकर्स को कम मात्रा से शुरू किया जाता है और खुराक रात में दी जाती है। अल्फा ब्लॉकर्स के अन्य कुप्रभाव हैं - दिल की धड़कन बढ़ना, ब्रेडीकार्डिया, एडीमा, सर दर्द, चक्कर आना, थकावट, मिचली, वमन, दस्त, कब्ज़ी, ट्राइग्लिसराइड्स तथा LDL कॉलेस्ट्रोल का कम होना और HDL कॉलेस्ट्रोल का बढ़ना, अतिमूत्रता, पुरूष हीनता, अविरत शिश्नोत्थान (Priapism) ।
डाइयुरेटिक्स
थायजाइड
ग्लुकोज और लिपिड प्रोफाइल पर प्रतिकूल प्रभावों और हृदय रोगों के जोखिम के कारण कुछ वर्षों पहले तक डायबिटीज के रोगियों में रक्तचाप के हेतु डाइयुरेटिक्स को ज्यादा पसंद नहीं किया जाता था। लेकिन इन दिनों डाइयुरेटिक्स पुनः चर्चा में हैं और ACEi’s तथा ARB’s के बाद पसंदीदा विकल्प मानी जाती हैं।
इसके कई कारण हैं। भोजन में नमक की मात्रा सिमित करने और डाइयुरेटिक्स लेने से डायबिटीज के रोगी में रक्तचाप कम होता है। नमक कम लेने से रक्त का बढ़ा हुआ आयतन कम हो जाता है। आयतन कम होने से रेनिन और एंजियोटेंसिन-II का स्राव बढ़ता है जो मूत्र विसर्जन कम करता है और ACEi’s के कार्य को गति देता है। जिस तरह डाइयुरेटिक्स ACEi’s और ARB’s की मदद करते हैं उसी तरह ACEi’s और ARB’s डाइयुरेटिक्स के चयापचय जनित कुप्रभावों जैसे सोडियम कम होना (एंजियोटेंसिन-II के प्रभाव से स्रावित एल्डोस्टेरोन को कम करके), यूरिक एसिड का बढ़ना और रक्त-वसा की विकृतियों को रोक देते हैं या कम करते हैं। इस तरह रक्तचाप की दवाइयों की दो श्रेणियां आपस में एक दूसरे को सहयोग करती हैं। वैसे डाइयूरेटिक्स के कुप्रभाव तभी होते हैं जब इन्हें ज्यादा मात्रा में दिया जाता है।
कार्य प्रणाली
ये वृक्क की डिस्टल ट्युब्यूल में सोडियम और क्लोराइड का अवशोषण बाधित कर सोडियम और जल का विसर्जन बढ़ाते हैं। रक्त वाहिकाओं का सीधा विस्तारण कर रक्तचाप कम करते हैं।
वर्जना
अतिसंवेदनशीलता और मूत्र का स्राव बंद होना।
पार्श्व प्रभाव
रक्त में सोडियम, मेग्नीशियम, केल्शियम तथा पोटेशियम कम होना, रक्त-शर्करा बढ़ना, यूरिक एसिड बढ़ना, एरिद्मिया, रक्त-वसा विकृतियां, प्रकाश संवेदनशीलता आदि।
पोटेशियम स्पेरिंग डाइयूरेटिक
कार्य प्रणाली
एमिलोराइड और ट्रायमटेरीन डिस्टल ट्युब्यूल में सोडियम और क्लोराइड के आदान-प्रदान को प्रभावित करते हैं। स्पाइरोनोलेक्टोन एल्डोस्टिरोन विरोधी है। चूंकि एल्डोस्टिरोन सोडियम और जल को रक्त में रोक कर रखता है। स्पाइरोनोलेक्टोन एल्डोस्टिरोन के कार्य को बाधित करता है और रक्त का आयतन कम करता है अतः रक्तचाप कम होता है।
वर्जना
अतिसंवेदनशीलता, वृक्कवात या किडनी फैल्यर, मूत्र का स्राव बंद होना, यूरिया, क्रियेटिनीन व पोटेशियम का बढ़ना।
पार्श्व प्रभाव
रक्त में पोटेशियम बढ़ना, जी घबराना, उलटी, दस्त, भूख न लगना, नपुंसकता, पुरुषों में स्तन बड़ा हो जाना।
No comments:
Post a Comment