प्राणायाम का वैज्ञानिक रहस्य
हमारा श्वसन तंत्र नासिका से शुरू होकर वायुकोषों तक फैला हुआ है। नाक से ली गई साँस स्वर यंत्र और ग्रसनी (फैरिंक्स) से होते हुए श्वास नली (ट्रैकिया) में पहुँचती है। गर्दन के नीचे छाती में यह पहले दाएँ-बाएँ दो भागों में विभाजित होती है और पेड़ की शाखाओं-प्रशाखाओं की तरह सत्रह-अठारह बार विभाजित होकर श्वसन वृक्ष बनाती है। यहाँ तक का श्वसन वृक्ष वायु संवाहक क्षेत्र (एयर कंडक्टिंग झोन) कहलाता है। इसकी अंतिम शाखा जो कि टर्मिनल ब्रांकिओल कहलाता है, वह भी 5-6 बार विभाजित होकर उसकी अंतिम शाखा पंद्रह से बीस वायुकोषों में खुलती है। वायुकोष अँगूर के गुच्छों की तरह दिखाई देते हैं। टर्मिनल ब्रांकिओल से वायुकोषों तक का हिस्सा श्वसन क्रिया को संपन्न करने में अपनी मुख्ये भूमिका निभाता है। इसे श्वसन क्षेत्र (रेस्पिरेटरी झोन) कहते हैं।
श्वास नली के इस वृक्ष की सभी शाखाओं-प्रशाखाओं के साथ रक्त लाने और ले जाने वाली रक्त वाहिनियाँ भी होती हैं। साँस लेने पर फूलने और छोड़ने पर पिचकने वाले इन वायुकोषों और घेरे रखनेवाली सूक्ष्म रक्त नलिकाओं (कैपिलरीज) के बीच इतने पतले आवरण होते हैं कि ऑक्सीजन और कार्बन डाई ऑक्साइड का लेन-देन आसानी से और पलक झपकते हो जाता है। पल्मोनरी धमनी हृदय से अशुद्ध रक्त फेफड़े तक लाती है और वायुकोषों में शुद्ध हुआ रक्त छोटी शिराओं से पल्मेरनरी शिरा के माध्यम से पुन हृदय तक पहुँच जाता है।
फेफड़ें आकार में शंकु की तरह ऊपर से सँकरे और नीचे से चौड़े होते हैं। छाती के दो तिहाई हिस्से में समाए फेफड़े स्पंज की तरह लचीले होते हैं। जब हम साँस लेते हैं, तो छाती की पसलियाँ, माँसपेशियों के संकुचन से उपर उठ जाती है और बाहर की ओर बढ़ जाती है। इससे छाती का आयतन आगे-पीछे और दाएँ-बाएँ बढ़ जाता है। इसी क्रम में पेट और छाती के बीच की माँसपेशी, महाप्राचीरा (डायफ्राम) भी संकुचित होकर कुछ नीचे हो जाती है। इस तरह छाती का आयतन उपर-नीचे (वर्टिकली) भी बढ़ जाता है, जिसके कारण हवा फेफड़ों में प्रवेश करती है। सामान्य अवस्था में फेंफड़ों में प्रवेश करने वाली हवा (400 से 500 मिलीलीटर) का 75 प्रतिशत हिस्सा डायफ्राम के नीचे खिसकने के कारण होता है। सामान्य साँस के समय डायफ्राम सिर्फ डेढ़ सेंटीमीटर नीचे जाता है। अंत:श्वसन (इंस्पीरेशन) के बाद डायफ्राम सहित सभी माँसपेशियाँ पुन: अपनी स्थिति में आ जाती है और फेफड़े पर दबाव पड़ने से हवा बाहर ठेल दी जाती है। माँसपेशियों, पसलियों और फेफड़े की इस प्रक्रिया को लचकदर पुनर्स्थित (इलास्टिक रिवाइकल) कहते हैं। इसीलिए जब हम साँस लेते हैं, तो छाती और पेट फूलते हैं। तथा छोड़ने पर अपनी सामान्य अवस्था में आ जाते हैं।
सामान्य श्वसन क्रिया (टाइटल रेस्पिरेशन) में फेफड़े के सिर्फ 20 प्रतिशत भाग को ही कम करना पड़ता है। शेष हिस्से निष्क्रि य से रहते हैं और नैसर्गिक रूप से इस निष्क्रिय से हिस्सों में रक्त का प्रवाह भी अत्यंत मंद रहता है। सामान्य श्वसन क्रिया में फेफड़े के मध्य भाग को ही कार्य मिलता है। यदि हम प्रतिदिन व्यायाम न करें, तो वायुकोषों को पर्याप्त ताजी हवा और बेहतर रक्त प्रवाह से वंचित रह जाना पड़ता है। यही वजह है कि जब हम सीढ़ियाँ या छोटा सा पहाड़ चढ़ते हैं या दौड़ लगा लेते हैं, तो बुरी तररह हाँफने लगते हैं, क्योंकि आलसी हो चुके करोड़ों वायुकोष बेचारे कितना दम मारेंगे? गुरुत्वाकर्षण के कारण और गहरी साँस न लेने के कारण फेफड़े के शीर्षस्थ भाग में रक्त प्रवाह काफी कम होने से ट्यूबरकुलोसिस जैसी गंभीर बीमारी सबसे पहले फेफड़ें के शीर्षस्थ भाग को अपनी गिरफ्त में लेती है।
जब प्राणायाम करते हैं, तो डायफ्राम सात सेंटीमिटर नीचे जाता है, पसलियों की माँसपेशियाँ भी ज्यादा काम करती हैं। इस तरह फेफड़े में ज्यादा हवा प्रवेश करती है यह सामान्य की तुलना में लगभग चार-पाँच गुना होती है यानी सभी 100 प्रतिशत वायुकोषों को भरपूर ताजी हवा का झोंका लगातार आनंदित करता है, साथ ही रक्त का प्रवाह भी बढ़ जाता है। इसी तरह दोनों फेफड़ों के बीच बैठा हृदय सब तरफ से दबाया जाता है, परिणाम स्वरूप इसको भी ज्यादा काम करना ही पड़ता है। इस तेज प्रवाह के कारण वे कोशिकाएँ भी पर्याप्त रक्तसंचार, प्राणवायु और पौष्टिक तत्व से सराबोर हो जाती हैं, जिन्हें सामान्य स्थिति में व्रत-सा करना पड़ रहा था। नैसर्गिक रूप से वहाँ मौजूद विजातीय पदार्थ भी हटा दिए जाते हैं।
यह तो सीने में हो रहे परिवर्तन की बात हुई। अब जो उदर में हो रहा है, उसकी दास्तान जान लेते हैं। डायफ्राम जैसी मजबूत और मोटी माँसपेशी तथा नीचे कूल्हे की हड्डियों के बीच की जगह में लीवर, अग्नाशय और 30 फुट लम्बा पाचन तंत्र, पैंक्रियाज, स्प्लीन, गुर्दे, एड्रिनल ग्लैंड्सं, मूत्राशय, मलाशय और स्त्रियों के मामले में गर्भाशय और अण्डाशय आदि होते हैं। जब डायफ्रॉम सात सेंटीमीटर नीचे आता है, तो इन सबकी स्थिति बेचारों जैसी होती है, आखिर जाएँ तो जाएँ कहाँ? पैरों में जा नहीं सकते। एक ही रास्ता बचता है, वह यह कि हर बार सभी अंग कुछ-कुछ सिकुड़े ताकि डॉयफ्राम को 5-6 सेंटीमीटर ज्यादा जगह मिल सके। ऐसी स्थिति में यदि भस्त्रिका या अग्निसार किया जाए, तो मामला और भी मुश्किल हो जाता है। उदर की दीवार (एंटीरियर एब्डामिनल वॉल) भी आगे जगह देने की बजाय दबाव डालने लगती है। इस आंतरिक मालिश के परिणाम स्वरूप उदर के ये तमाम अंग तेज रक्त संचार, ताजी प्राणवायु और पौष्टिक तत्वों से अनायास या बिना प्रयास लाभान्वित हो जाते हैं।
सभी अंगों के क्रियाकलाप सम्यक रूप से होने लगते हैं। ग्रंथियों से रसायन समुचित मात्रा में निकलते हैं, विजातीय पदार्थ हटा दिए जाते हैं, तेज प्रवाह बैक्टीरिया को रास नहीं आता, पर्याप्त भोजन प्राणवायु मिलने से कोशिकाओं की रोगों से लड़ने की शक्ति बढ़ जाती है, बोन मेरो में नए रक्त का निर्माण बढ़ जाता है। आँतों में जमा मल विसर्जित होने लगता है। खाया-पीया अंग लगने लगता है, अंत: स्मरण शक्ति, सोचने-समझने और विश्लेषण की शक्ति बढ़ने लगती है। धैर्य और विवेकशीलता में वृद्धि होने लगती है, अत: स्मरण शक्ति, सोचने-समझने और विश्लेषण की शक्ति बढ़ने लगती है। धैर्य और विवेकशीलता में वृद्धि होने लगती है। क्रोध, अहंकार, लोभ, मोह, मद धीरे-धीरे अपने अस्तित्व के लिए तरसने लगते हैं। निष्कर्ष यह कि आयुर्वेद में स्वस्थ व्यक्ति की जो परिभाषा दी है, वह जीवन में घटित हो जाती है, 'प्रसन्नत्मेन्द्रियमना स्वस्थ्य इत्यभिधयते' अर्थात शरीर, इन्द्रियाँ, मन तथा आत्मा की प्रसन्नतापूर्ण स्थिति ही स्वास्थ्य है।
कालांतर से बना है कैलेंडर
यह कथन पूर्णत: सत्य है कि भारतीय काल गणना पद्धति सबसे प्राचीन है और वैज्ञानिक भी। हमारे यहां सृष्टि की रचना के साथ ही कालगणना का शुभारंभ माना गया है। ऎसा कहा जाता है कि सृष्टि की रचना का प्रथम दिन चैत्र मास का प्रथम दिवस था। ब्रह्मपुराण के मुताबिक "चैत्रमास के प्रथम दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की थी।" यथा चैत्रं मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेùहनि। ज्योतिष शास्त्र में इस बात का उल्लेख है कि जब सृष्टि की रचना हुई और पूर्व क्षितिज पर सूर्यदेव प्रकट हुए तब सूर्य का होरा था, अतएव सृष्टि की रचना का प्रथम दिवस रविवार माना गया है। दरअसल, ज्योतिष मतानुसार एक अहोरात्र (दिन रात) में 24 होरा होते हैं और 25वां होरा जिस ग्रह का होता है उससे संबंधित वार होता है। इस पच्चीसवें होरा में सूर्योदय भी होता है। उदाहरणार्थ रविवार की शुरूआत के पश्चात पच्चीसवां होरा चंद्रमा का होता है अतएव रविवार के पश्चात सोमवार आता है। इसी क्रमानुसार मंगलवार, बुधवार, गुरूवार, शुक्रवार और शनिवार का नामकरण हुआ है। हमारे राष्ट्रीय ध्वज में अवस्थित अशोक चक्र के 24 खंड भी इस सतत प्रवाहमान होरा चक्र के प्रतीक बताए गए हैं। समूचे विश्व में वारों का यही क्रम है। अंग्रेजी के सैटरडे सैटर्न अथवा शनि, संडे सूर्यवार और मन डे या मून डे चंद्रवार के ही पर्याय हैं।
इसी तरह भारतीय मासों के नामकरण में तारा विज्ञान का हाथ रहा है। चैत्रमास की पूर्णिमा के दिन चंद्रमा चित्रा नक्षत्र में भ्रमण करता है और वैशाख पूर्णिमा को विशाखा नक्षत्र में। दूरबीन द्वारा तारामंडल को देखकर उक्त कथन की वैज्ञानिक पुष्टि की जा सकती है। अर्थात् भारतीय माहों के नामकरण पूर्णत: तारा विज्ञान के आधार पर किए गए हैं। इस तारतम्य मे यह कहना कतई अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं है कि कैलेंडर शब्द पूर्णत: भारतीय है। वास्तव में कैलेंडर शब्द कालान्तर शब्द का बिगड़ा हुआ स्वरूप है। समय को संस्कृत में कालान्तर कहा जाता है। कैलेंडर शब्द की रोमन उत्पत्ति की कथा अविश्वसनीय और अजीब है। भारतीय वर्ष का प्रारंभ चैत्र अर्थात मार्च में होता है। वस्तुत: कैलेंडर शब्द कालांतर का ही अपभ्रंश है।
मार्च अथवा अप्रैल में सायन अथवा निरयन सूर्य आकाश-पथ की प्रथम राशि मेष में प्रवेश करता है, और तभी वर्ष का प्रारंभ होता है और यह खगोल विज्ञान के अनुरूप है। कैलेंडर के प्रचलित इतिहास के अनुसार मार्च, अप्रैल, मई, जून, जुलाई और अगस्त माहों के नाम देवी-देवताओं से संबंधित हैं और सितम्बर, अक्टोबर, नवम्बर और दिसम्बर शब्द लातीनी भाषा के क्रमश: सेप्टेम, आक्टो, नोवज और डेसेज शब्द से बने हैं। इस बात का कहीं भी जिक्र नहीं है कि इनके आगे अम्बर शब्द जोड़ने की क्या वजह रही है। कहा जाता है दस माह के कैलेंडर वर्ष में दो माह और जोडे गए और बारह मास का पूर्ण वर्ष उन्होंने नियत किया। अजीब बात यह है कि इन दो माहों को कुछ सालों बाद ग्यारहवें और बारहवंर स्थान की बजाय जनवरी और फरवरी नाम देकर पहले और दूसरे स्थान पर स्थापित कर दिया गया। यह भी अज्ञात है कि सदियों बाद किए गए इस दो के गठजोड़ से कालगणना को किस तरह का खामियाजा भुगतना पड़ा होगा। भारतीय खगोलशाçस्त्रयों ने शुरूआत से ही आकाशपथ को बारह राशियों में विभक्त कर सदैव बारह मास के कालान्तर को अपना मानक वर्ष माना।
भारतीय ग्रह, तारा और नक्षत्र विज्ञान वैज्ञानिकों का आज भी पथ प्रदर्शन कर रहे हैं। हमारे शास्त्रों में नक्षत्रों और तारों के जिस रूप और आकार का वर्णन है, आधुनिक वैज्ञानिक विशाल उपकरणों के जरिए उनकी पुष्टि कर रहे हैं। अन्य देशों में भारतीय ज्योतिष एवं ज्योतिष गणना विज्ञान प्रचलन में हैं ही, पाकिस्तान भी इसमें पीछे नहीं है। यहां वर्तमान में 150 जंतरियां यानी पंचांग हर साल प्रकाशित होते हैं। भविष्यवाणियां में विश्वास न करने वाले कट्टर इस्लामिक पाकिस्तान में वहां के लगभग सभी नेताओं की जन्म कुंडलियां भारतीय पंचांगों के अनुसार बनती हैं और पत्र-पत्रिकाओं में भविष्य कथन के साथ प्रकाशित होती हैं। यह हमारी वैज्ञानिकता का ही परिचायक है। हमारे यहां वार, नक्षत्र, राशियां एवं माहों का नामकरण धार्मिक अथवा सांस्कृतिक आधार पर न होते हुए शुद्धत: वैज्ञानिक आधार पर किया गया है। यही कारण है कि सारी दुनिया प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमारे कालान्तर को मानती है।
-डॉ. मनोहर भंडारी
एम.बी.बी.एस., एम.डी. (फिजियोलॉजी)
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