हम गीता के उपदेश को दूसरी तरह से समझने का प्रयास क्यों न करें ? यह किसी भगवान ने कहा हो या न कहा हो , हमें अपना काम मन लगाकर निष्ठांपूर्वक करना ही है | यह तो जीवन व्यापार है , कभी लाभ होगा तो कभी हानि | हानि की आशंका से हम काम से तो विरत नहीं हो सकते ! और जब हम अपना काम मनोयोग से करेंगे , तो प्रकारांतर से वह ईश्वर का आज्ञा पालन , उसकी पूजा हो ही जायगी ! यही कृष्ण का उपदेश भी था | उन्होंने कहा - कर्म करना तुम्हारा अधिकार है , फल की चाह करना नहीं | हमने उसे यूँ समझा - कि कर्म तो हमारा कर्तव्य ही है , उसके लिए हमें ताकीद क्या करना ? उसे न करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता | न कर्तव्य हमारा अधिकार है , न उसके फल की हमें चिंता है |
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