27.11.12


किंग मेकर बनने की हेट्रिक बनाने की चाहत पड़ी मंहगी नरेश को स्वयं ही बनना पड़ा जिला भाजपा का किंग
 किंगमेकर इज बेटर देन किंग “ लेकिन बार बार यदि यही प्रयोग दोहराने को प्रयास किया जाये तो खेल बिगड़ भी जाता हैं। ऐसा ही एक वाकया पिछले दिनों जिला भाजपा के चुनाव के दौरान देखने को मिला। किंग मेकर बनने की हेट्रिक बनाने के चक्कर में किंग मेकर को खुद ही किंग बनना पड़ गया। अब किंग मेकर से किंग बने नरेश दिवाकर, जो कि प्रदेश सरकार द्वारा महाकौशल विकास प्राधिकरण के केबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त अध्यक्ष है, अपनी इस नयी ताजपोशी को किस रूप में लेते हैं? इसका खुलासा तो वक्त आने पर ही होगा। इन दिनों जिले में मंड़ी चुनावों को लेकर राजनैतिक हल चल मची हुयी हैं। इंका और भाजपा दोनों ही पार्टियां अपने अपने तरीके से जीत की बिसात बिछाने में लगी हुयी हैं। पूर्व जिला भाजपा अध्यक्ष सुजीत जैन के कार्यकाल में हुये लखनादौन नपं के चुनाव में भाजपा की हुयी करारी हार का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा और पूरी संभावनाओं के बाद भी वे दोबारा अध्यक्ष नहीं पाये। चुनाव नजदीक आने की संभावनाओं को देखते हुये जिले में भी तीसरे मोर्चे के गठन पर प्रयास प्रारंभ हो गये हैं। युवा सपा नेता एवं एडवोकेट याहया कुरैशी की पहल पर मिशन प्रारंभ हुआ हैं। इसमें वाम दलों सहित नागरिक मोर्चे के भी शामिल होने की संभावना हैं। 
हेट्रिक बनाने की कोशिश आखिर पड़ी महंगी-एक कहावत राजनीति के क्षेत्र में बहुत अधिक प्रचलित हैं।     “ किंगमेकर इज बेटर देन किंग “ लेकिन बार बार यदि यही प्रयोग दोहराने को प्रयास किया जाये तो खेल बिगड़ भी जाता हैं। ऐसा ही एक वाकया पिछले दिनों जिला भाजपा के चुनाव के दौरान देखने को मिला। किंग मेकर बनने की हेट्रिक बनाने के चक्कर में किंग मेकर को खुद ही किंग बनना पड़ गया। जी हां हम बात कर रहें हैं नवनियुक्त जिला भाजपा अध्यक्ष नरेश दिवाकर की। यह तो सर्वविदित ही है कि पिछले दो बार से नरेश दिवाकर किंग मेकर बने हुये थे। पहले उन्होंने सुदर्शन बाझल को जिला भाजपा का अध्यक्ष बनवाया और फिर सुजीत जैन को। लगातार दोनों ही बार जब उनका यह खेल सफल रहा तो फिर उनके मन में हेट्रिक बनाने की मंशा जाग गयी। इसके लिये उन्होंने बिसात भी बहुत ही सोच समझ कर बिछायी थी। इस हेतु दिवाकर ने जातिगत और क्षेत्रीय आधार पर अपने प्रत्याशी तैयार किये थे। इस पद के लिये भाजपा में 12 उम्मीदवारों के नाम सामने आये थे। इनमें सुजीत जैन,सुदर्शन बाझल, अशोक टेकाम,अजय त्रिवेदी,गोमती ठाकुर,देवी सिंह बघेल,राजेन्द्र सिंह बघेल,वेद सिंह ठाकुर,सुदामा गुप्ता,भुवन अवधिया,संतोष अग्रवाल और ज्ञानचंद सनोड़िया के नाम प्रमुख थे। इनमें से प्रथम सात नेताओं को नरेश समर्थक माना जाता हें। इनमें ब्राम्हण, आदिवासी, पंवार,बागरी और जैन समाज के नाम थे जो कि जिले के अलग अलग क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन इस बार प्रदेश आला कमान का यह स्पष्ट निर्देश था कि चुनावी साल होने के कारण वोटिंग नहीं होना चाहिये। चुनाव के एक दिन पहले से जब आम सहमति बनाने की कवायत चालू हुयी तो यह समझ में आ गया था कि अधिकांश दावेदार नरेश दिवाकर के ही हैं। इसी बीच जिले के एक जनप्रतिनिधि ने, जिसका सीधे प्रदेश संगठन में दखल है, ने प्रदेश नेतृत्व को इस बात से अवगत करा दिया कि अधिकांश दावेदार तो भले ही नरेश दिवाकर के समर्थक हैं लेकिन अब उनके ही बीच में आम सहमति बना पाना नरेश के लिये ही संभव नहीं रह गया हैं इसलिये किसी ऐसे वजनदार नेता को जिले की कमान सौंपी जाये जिसे सभी स्वीकार करने को बाध्य हो जायें। इस खबर के मिलने के बाद प्रदेश नेतृत्व ने यह कर लिया कि नरेश दिवाकर को ही कमान सौंप दी जाये। भाजपा नेताओं का दावा तो यह भी है कि अगला चुनाव लड़ने की इच्छा प्रगट करते हुये शुरू में नरेश ने आना कानी की लेकिन बाद में उन्हें यह स्वीकार करना ही पड़ा। बताया जाता है कि सब कुछ तय हो जाने के बाद विधायक कमल मर्सकोले ने नरेश का नाम प्रस्तावित किया और उनके नाम की घोषणा जिला निर्वाचन अधिकारी ने कर दी। बताया तो यह भी जा रहा हैं कि आम सहमति बनाने जैसी कोई कवायत भी इसके बाद नहीं की गयी। अब किंग मेकर से किंग बने नरेश दिवाकर, जो कि प्रदेश सरकार द्वारा महाकौशल विकास प्राधिकरण के केबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त अध्यक्ष है, अपनी इस नयी ताजपोशी को वे किस रूप में लेते हैं? इसका खुलासा तो वक्त आने पर ही होगा। 
भाजपा और इंका के लिये परीक्षा होगी मंड़ी चुनाव -इन दिनों जिले में मंड़ी चुनावों को लेकर राजनैतिक हल चल मची हुयी हैं। इंका और भाजपा दोनों ही पार्टियां अपने अपने तरीके से जीत की बिसात बिछाने में लगी हुयी हैं। पद भार ग्रहण करते ही नव नियुक्त जिला भाजपा अध्यक्ष के लिये ये एक राजनैतिक चुनौती सामने आ गयी हैं। पूर्व जिला भाजपा अध्यक्ष सुजीत जैन के कार्यकाल में हुये लखनादौन नपं के चुनाव में भाजपा की हुयी करारी हार का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा और पूरी संभावनाओं के बाद भी वे दोबारा अध्यक्ष नहीं पाये। वैसे तो जिला कांग्रेस अध्यक्ष हीरा आसवानी के कार्यकाल का भी यही पहला चुनाव था जहां कांग्रेस का अध्यक्ष पद का प्रत्याशी ही नदारत हो गया था लेकिन पार्षदों के चुनावों में मिली सफलता को आधार बनाकर कांग्रेस के किंग मेकर हरवंश सिंह ने किंग को बचा लिया। इस तरह मंड़ी चुनाव ना सिर्फ दोनों पार्टियों के लिये वरन उनके अध्यक्षों के लिये भी प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गयें हैं। वैसे तो प्रदेश की शिवराज सरकार यह नहीं चाहती थी कि 2013 के विस चुनाव के पहले ग्रामीण क्षेत्र के मतदाताओं का रुझान उजागर हो। इसलिये पिछले दो साल से किसी ना किसी बहाने मंड़ी चुनाव टाले जा रहे थे। लेकिन हाई कोर्ट के आदेश पर जब मंड़ी चुनाव अनिवार्य हो गया तब प्रदेश सरकार ने अध्यक्ष के प्रत्यक्ष निर्वाचन की प्रणाली को ही बदल दिया और सदस्यों के    माध्यम से अध्यक्ष निर्वाचित करने का प्रावधान कर दिया। कांग्रेस के पास यह एक बहुत बड़ा मुद्दा हैं। यदि इसे पूरे जोर शोर से मतदाताओं के बीच उठाया जाता हैं तो इसका लाभ मिल सकता हैं। वैसे भी प्रत्यक्ष निर्वाचन ना होने के कारण अध्यक्ष पद का पूरा दारोमदार जन समर्थन पर कम और “चुनाव     प्रबंधन“ पर अधिक निर्भर करेगा। इसमें हरवंश सिंह और नरेश दिवाकर दोनो ही माहिर हैं। फिर दोनों के बीच समन्वय से राजनीति करने का पिछले 15 सालों से जो खेल चल रहा हैं उसे देखते हुये राजनैतिक क्षेत्रों में यह कयास लगाया जा रहा हैं कि अपने अपने राजनैतिक लाभ के हिसाब से मंड़ी चुनावों में मिले जुले परिणाम सामने आयेंगें। 
जिले में तीसरे मोर्चे के गठन के प्रयास प्रारंभ -चुनाव नजदीक आने की संभावनाओं को देखते हुये जिले में भी तीसरे मोर्चे के गठन पर प्रयास प्रारंभ हो गये हैं। युवा सपा नेता एवं एडवोकेट याहया कुरैशी की पहल पर मिशन प्रारंभ हुआ हैं। इसमें वाम दलों सहित नागरिक मोर्चे के भी शामिल होने की संभावना हैं। बसपा तो इसमें शामिल होने से रही लेकिन यदि गौगपा इसमें शामिल हो जाती हैं तो तो यह चुनावी संभावनाओं पर असर डाल सकता हैं। वैसे तो पूरे प्रदेश सहित जिले में भी राजनैतिक ध्रुवीकरण इंका और भाजपा के बीच में ही है लेकिन ऐसे मोर्चे किसी की हार और किसी की जीत में निर्णायक साबित हो सकते हैं। सियासी हल्कों में यह जरूर माना जा रहा हैं कि जिले में इंका और भाजपा में व्याप्त गुट बाजी का यदि कोई मोहरा बन जायेगा तो उसकी मारक क्षमता कम हो जायेगी क्योंकि आज कल आम मतदाता इतना जागरूक हो गया हैं कि वो इन सब हथकंड़ों को को बखूबी समझने लगा हैं और यह भी समझ चुका हैं कि चुनावी समीकरण अपने पक्ष में करने के लिये जिले के कौन कौन महारथी ऐसे कारनामें करते रहते हैं। वैसे याहया कुरैशी का नाम एक ऐसा नाम है जिस पर अभी कोई ब्रांड़ चस्पा नहीं हैं। इसलिये उनकी अगुवायी में यदि ऐसा कोई प्रयास होता है तो उन्हें बहुत सावधानी से कदम उठाने पड़ेंगें और अतीत के प्रयोंगों से सबक भी लेना पड़ेगा। वरना नतीजा वही ढाक के तीन पात के समान हो जायेगा। “मुसाफिर“ 

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