16.12.12

व्यंग्य - मीठी बातों का फसाना

‘मीठी बातें’ किसे पसंद नहीं होती। हर कोई मीठी बातों का मुरीद होता है। हों भी क्यों नहीं, डायबिटीज, भले ही हो जाए, भला कोई मीठे से परहेज करता है। कहीं मीठा दिखा नहीं कि आ गया, मुंह में पानी। ऐसा ही है, मीठी बातों का फसाना, जिसके आगे-पीछे केवल मिठास का ही बिन सुनाई देता है, जिसके आगे कोई सांप नहीं नाचता, बस नाचता है तो मन मोर। मीठी बातों के आगोश में हर कोई समाना चाहता है। चाहे वह बातें क्यों न, तन-मन में कड़ुवाहट घोल दे। क्या कहें, मन की चंचलता के आगे कहां कोई ठहरता है। जो मन को काबू में कर ले, वह तो मीठी बातों की चरम सीमा को पार पा ही लेता है।
अब देख लो, हमारे नेताओं को। चुनाव आते ही मुंह से ‘मीठे बोल’ निकल पड़ते हैं और निगाहें ऐसी होती हैं, जैसी ‘मीठी बरसात’ हो जाए। आलम यहीं नहीं रूकता, मीठी-मीठी घोषणाओं से मन को रमने की कोशिश होती है और हम उन्हें पांच साल के लिए वोट की ‘मीठी बोतल’ थमा देते हैं, मगर उस मीठी बोतल से हमारे नेताओं को चढ़ जाता है, नशा का शुरूर। जिसे उतरने में लगता है, फिर पांच साल।
देश में जिन्हें हमने सरकार चलाने की जिम्मेदारी दी है, वे क्या, कम मीठी बातें करते हैं। महंगाई को सौ दिनों में खत्म करने की मीठी कहानी, आज भी कानों में गूंजती है। न जाने, वो ‘सौ दिन’ कब पूरे होंगे, जिसके बाद महंगाई ‘डायन’ से निजात मिल सके। सरकार की मीठी बातें सुनने की जैसी आदत हो गई है। गैस सिलेण्डर में सब्सिडी घटाने की ‘कड़वी बातें’ सुनने के बाद सरकार पर गुस्सा आ गया। जिनके पहले कार्यकाल में जो मीठी बातें कही गई थीं, वो बातें सपने बनकर ही रह गई हैं। शायद, सरकार के एक महाशय को पता चला होगा कि देश का आम आदमी उनके इस निर्णय से कितना परेशान है। इन बातों के उधेड़बुन में खबर आई कि अब गैस सब्सिडी बढ़ाई जाएगी। सरकार की मीठी बातें सुनंे, एक अरसा बीत चुका था, लिहाजा मन को बहुत सुकून मिला, क्योंकि मीठी बातें निश्चित ही किसी दवा की खुराक से कम नहीं होती, जो शरीर के लिए संजीवनी का काम करती हैं। महंगाई के कारण शरीर की जिन नसों में जकड़न आ चुकी थी, गैस सब्सिडी बढ़ाने की मीठी बात से उसमें नई जान आ गईं।
इतना तो है कि गरीबी के कई झटके के बाद, आम आदमी मीठी बातें भूल सा जाता है, उन्हें याद होती हैं तो बस ‘दो जून रोटी’ की बातें। फिर भी सरकार की मीठी बातों पर वह पूरा विश्वास करते नजर आता है। आजादी के बाद से मीठी बातों का जो फुहार शुरू हुई है, वह आज तक नहीं रूकी है। गरीबों को इन मीठी बातों से कितना लाभ हुआ, वो तो ‘हाड़मांस’ होते गरीबों और दुबराए जा रहे हमारे कर्णधारों को देखकर ही पता चल जाता है।
मीठी बातें निश्चित ही प्रिय होती हैं। जीवन में इसकी जरूरत भी है, लेकिन हर तरफ जिस तरह मीठी बातों का फसाना शुरू हुआ है, उसके बाद मीठी बातें भी अब कड़वी समझी जाने लगी हैं। मीठी बातों के भी दो अर्थ निकाले जाने लगे हैं, ये तो अर्थ निकालने वाले के नजरिये पर निर्भर होता है। इससे ही समझा जा सकता है कि मीठी बातों में कितनी गहराई छिपी है। ये तो, ‘मीठी बातों के सागर’ में डूबकी लगाने वाले की सहनशीलता की बात है। लगता है, ऐसी सहनशीलता ‘गरीबों’ के ही बस की बात है।

राजकुमार साहू
लेखक व्यंग्य लिखते हैं।

जांजगीर, छत्तीसगढ़
मोबा. - 074897-57134, 098934-94714






    


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