देहरादून में सुबह
आंख खुली तो बाहर कड़कड़ाती ठंड थी। बर्फीली हवाओं ने एहसास करा दिया था कि इस बार
कुदरत दिसंबर में बही मेहरबान हो रही है। देर रात मसूरी में हुई बर्फबारी का ही
नतीजा था कि देहरादून की फिज़ाओं में बर्फीली ठंडक घुल गई थी। छत पर जाकर देखा तो नजारा
मन को मोह लेने वाले था। मसूरी की ऊंची चोटियां बर्फ की सफेद चादर से ढ़की हुई थी...और
सूर्य की किरणें सुनहरी चमक बिखेर रही थी। मसूरी से बह रही ठंडी हवाएं दिसंबर की
शुरुआत में ही जनवरी की कड़कड़ाती ठंड का एहसास करा रही थी। सुना है दशकों पहले
सर्दियों में कभी देहरादून में भी बर्फ के दीदार हो जाया करते थे....लेकिन मसूरी
को जाने वाले राजपुर रोड ईलाके के लिए ये बात ज्यादा पुरानी नहीं है और बीते कुछ
सालों तक राजपुर रोड का कुछ ईलाका भी मामूली बर्फबारी के लिए पहचाना जाता
था...लेकिन बढ़ते शहरीकरण के बाद न सिर्फ कुदरत देहरादून से रूठ गई बल्कि राजपुर
रोड़ के इलाके को भी बर्फ के दीदार के लिए तरसा दिया। कम होती हरियाली और खत्म
होते जंगलों के बीच तेजी से फैलते कंक्रीट के जंगल का ही असर है कि मसूरी में भी
बर्फबारी का मौसम खिसक कर जनवरी तक पहुंच गया...और अक्सर जनवरी या फरवरी में ही
मसूरी में बर्फ के दीदार होते हैं...लेकिन इस बार दिसंबर की शुरुआत में मसूरी में
बर्फबारी ने मसूरी जिसके लिए जाना जाता था उसकी याद फिर से ताजा कर दी। खुद मसूरी
में रहने वाले लोगों के लिए दिसंबर में बर्फबारी इस बार किसी चमत्कार से कम नहीं
है। हालांकि ये बर्फबारी हल्की ही थी...लेकिन दिसंबर में बर्फ फिर भी यहां के
पुराने दिनों की याद ताजा करा गया। कंक्रीट का फैलता जंगल और कटते वनों के साथ ही
बढ़ता प्रदूषण निश्चित ही बदलते मौसम का मुख्य कारक है...देहरादून की ही अगर बात
करें तो इस ईलाके की हरियाली मन को मोह लेती थी...और देहरादून में सालों से रह रहे
लोग भी कहते हैं कि देहरादून की हरियाली विकास की अंधी दौड़ की भेंट चढ़ गयी।
बेतरतीब होते विकास ने जहां न सिर्फ एक खूबसूरत शहर से उसकी सुंदरता यानि की
हरियाली छीन ली बल्कि यहां का सदाबहार मौसम भी पहले जैसा नहीं रहा। देहरादून से
मसूरी को जाने वाले रास्ते पर जहां पहले हरे भरे पहाड़ सीना तान कर खड़े रहते
थे...वहां अब हरियाली के बीच में तेजी से फैलता कंक्रीट का जाल आसानी से देखा जा
सकता है...और ये बेतरतीब तरीके से जारी है। ये हाल सिर्फ देहरादून का ही नहीं है
बल्कि पूरे उत्तराखंड में अमूमन ऐसे ही हालात है...फिर चाहे नैनीताल हो या फिर
रानीखेत या फिर देश का कोई और शहर...कंक्रीट का फैलता जाल धीरे धीरे हरियाली को चट
करता जा रहा है। आंकड़ें कहते हैं कि देश में हर साल 30 से 35 हजार हेक्टेयर वन
क्षेत्र विकास की भेंट चढ़ता है लेकिन इसका सिर्फ एक तिहाई हिस्से की ही भरपाई हो
पाती है। 1980 में बना देश का वन संरक्षण कानून भी कहता है कि एक पेड़ काटने पर
उसके बदले तीन पेड़ लगाने पड़ते हैं...लेकिन आप ने अपने आस पास ही इसको महसूस किया
होगा कि वाकई में क्या ऐसा हो पाता है ? पर्यावरण मंत्रायल का अध्ययन कहता है कि देश में उत्सर्जित होने वाली 11.25
फीसदी ग्रीन हाउस गैसों यानि करीब 13.38 करोड़ टन कार्बन आक्साईड गैसों को वन सोखते हैं। वन तो
कम हो रहे हैं लेकिन ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है...आसानी से
अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर ये सिलसिला इसी तरह जारी रहा तो जलवायु में कितना
परिवर्तन आएगा। राष्ट्रीय वन नीति कहती है की देश के भू-भाग के 33 फीसदी हिस्से पर
वन होने चाहिए लेकिन हिंदुस्तान में सिर्फ 21.02 फीसदी हिस्से पर ही वन हैं जबकि 2.82
फीसदी भू-भाग पर पेड़ हैं...और अगर इनको भी वनों का हिस्सा मान लिया जाए तो देश का
कुल वन क्षेत्रफल 23.83 फीसदी ही होता है...यानि कि वन नीती के मुताबिक अभी और
वनों को विकसित करने की जरूरत है न कि विकास के लिए पेड़ों की बलि ली जाए। दिसंबर
में बर्फबारी के बहाने बात निकली है तो आईए एक संकल्प लें पेड़ों को लगाने का और
वनों को बचाने का।
deepaktiwari555@gmail.com
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