मित्रों,इसलिए मैं कहता हूँ कि अगर कोई संन्यासी अनैतिक कर्म में रत पाया जाए तो हिन्दू-समाज को जबरन उसकी शादी कर देनी चाहिए और अगर फिर भी वो नहीं सुधरे तो उसको सूली पर चढ़ा देना चाहिए या फिर उससे ऐसा व्रत करवाना चाहिए जिससे उसका प्राणान्त हो जाए क्योंकि इस तरह के लोग समाज के लिए किसी भी तरह से लाभदायक नहीं हो सकते। मैं देखता हूँ कि जिस भी व्यक्ति को किसी अखाड़े का महामंडलेश्वर बनाया जाता है अखाड़े में भगवान के साथ-साथ उसकी भी मूर्तियाँ लगाई जाती हैं और उसको भी भगवान का दर्जा दे दिया जाता है। मेरे हिसाब से ऐसा करना पूरी तरह से अनुचित है। कोई भी ईन्सान सिर्फ ईन्सान है वह किसी पद पर जाने मात्र से कैसे भगवान हो जाएगा जबकि उसका मन अब भी पूरी तरह से पाप में डूबा हुआ होता है? मैं अपने पहले के एक आलेख में अर्ज कर चुका हूँ कि गरिमा व्यक्ति में निहित होती है न कि पद में। इसलिए महामंडलेश्वरों की मूर्ति लगाकर पूजने का पाखंड भी तत्क्षण बंद होना चाहिए क्योंकि पाखंड से धर्म को नुकसान ही होता है कभी लाभ नहीं हो सकता। तुलसी ने रामचरितमानस में कहा भी है कि हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ। जिमि पाखंड बाद तें लुप्त होहिं सदपंथ॥ (मैंने यहाँ गुप्त को लुप्त और सदग्रंथ को सदपंथ कर दिया है)
16.2.13
क्या संन्यास आश्रम भी भ्रष्ट नहीं हो गया है?
मित्रों,इसलिए मैं कहता हूँ कि अगर कोई संन्यासी अनैतिक कर्म में रत पाया जाए तो हिन्दू-समाज को जबरन उसकी शादी कर देनी चाहिए और अगर फिर भी वो नहीं सुधरे तो उसको सूली पर चढ़ा देना चाहिए या फिर उससे ऐसा व्रत करवाना चाहिए जिससे उसका प्राणान्त हो जाए क्योंकि इस तरह के लोग समाज के लिए किसी भी तरह से लाभदायक नहीं हो सकते। मैं देखता हूँ कि जिस भी व्यक्ति को किसी अखाड़े का महामंडलेश्वर बनाया जाता है अखाड़े में भगवान के साथ-साथ उसकी भी मूर्तियाँ लगाई जाती हैं और उसको भी भगवान का दर्जा दे दिया जाता है। मेरे हिसाब से ऐसा करना पूरी तरह से अनुचित है। कोई भी ईन्सान सिर्फ ईन्सान है वह किसी पद पर जाने मात्र से कैसे भगवान हो जाएगा जबकि उसका मन अब भी पूरी तरह से पाप में डूबा हुआ होता है? मैं अपने पहले के एक आलेख में अर्ज कर चुका हूँ कि गरिमा व्यक्ति में निहित होती है न कि पद में। इसलिए महामंडलेश्वरों की मूर्ति लगाकर पूजने का पाखंड भी तत्क्षण बंद होना चाहिए क्योंकि पाखंड से धर्म को नुकसान ही होता है कभी लाभ नहीं हो सकता। तुलसी ने रामचरितमानस में कहा भी है कि हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ। जिमि पाखंड बाद तें लुप्त होहिं सदपंथ॥ (मैंने यहाँ गुप्त को लुप्त और सदग्रंथ को सदपंथ कर दिया है)
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