7.2.13

गलदश्रु भावुकतावाले राहुल गांधी-ब्रज की दुनिया

मित्रों, बड़ी पुरानी बात है। एक नदी किनारे हरा-भरा विशाल पेड़ था। उस पर खूब स्वादिष्ट फल लगे रहते। उसी पेड पर एक बंदर रहता था। बडा मस्त कलंदर। जी भरकर फल खाता, डालियों पर झूलता और कूदता-फांदता रहता। उस बंदर के जीवन में एक ही कमी थी कि उसका अपना कोई नहीं था। माँ-बाप के बारे में उसे कुछ याद नहीं था न उसके कोई भाई था और न कोई बहन, जिनके साथ वह खेलता। उस क्षेत्र में कोई और बंदर भी नहीं था जिससे वह दोस्ती गांठ पाता। एक दिन वह एक डाल पर बैठा नदी का नजारा देख रहा था कि उसे एक लंबा विशाल जीव उसी पेड़ की ओर तैरकर आता नजर आया। बंदर ने ऐसा जीव पहले कभी नहीं देखा था। उसने उस विचित्र जीव से पूछा "अरे भाई, तुम क्या चीज हो?"
विशाल जीव जिसकी आँखों से लगातार आँसुओं की धारा बहती रहती थी ने उत्तर दिया "मैं एक मगरमच्छ हूं। नदी में इस वर्ष मछलियों का अकाल पड गया हैं। बस, भोजन की तलाश में भटकता मैं अभागा,पेट का मारा इधर आ निकला हूं।"
बंदर दिल का अच्छा था। उसने सोचा कि पेड पर इतने फल हैं, इस क्षुधापीड़ित बेचारे को भी उनका स्वाद चखाना चाहिए। उसने एक फल तोडकर मगर की ओर फेंका। मगर ने फल खाया। बहुत रसीला और स्वादिष्ट। वह फटाफट फल खा गया और आशा से फिर बंदर की ओर देखने लगा।
बंदर ने मुस्कराकर और फल फेकें। मगर सारे फल खा गया और अंत में उसने संतोष-भरी डकार ली और पेट थपथपाकर बोला "धन्यवाद, बंदर भाई। खूब छककर खाया, अब चलता हूं।" बंदर ने लगे हाथ उसे दूसरे दिन भी आने का न्यौता दे दिया।
मगर दूसरे दिन भी आया। बंदर ने उसे फिर फल खिलाए। इसी प्रकार बंदर और मगर में दोस्ती जमने लगी। मगर रोज आता। दोनों फल खाते-खिलाते, गपशप मारते। बंदर तो वैसे भी अकेला रहता था। उसे मगर से दोस्ती करके बहुत प्रसन्नता हुई। उसका अकेलापन दूर हो गया। एक साथी मिला। दो मिलकर मौज-मस्ती करें तो दोगुना आनन्द आता हैं। एक दिन बातों-बातों में पता लगा कि मगर का घर नदी के दूसरे तट पर है, जहाँ उसकी पत्नी भी रहती है। यह जानते ही बंदर ने उलाहना दिया "मगर भाई, तुमने इतने दिनों तक मुझे भाभीजी के बारे में नहीं बताया मैं अपनी भाभीजी के लिए रसीले फल देता। तुम भी अजीब निखट्टू हो। अपना पेट भरते रहे और मेरी भाभी के लिए कभी फल लेकर नहीं गए।
उस शाम बंदर ने मगर को जाते समय ढेर सारे फल चुन-चुनकर दिए। अपने घर पहुंचकर मगरमच्छ ने वह फल अपनी पत्नी मगरमच्छनी को दिए। मगरमच्छनी ने वे स्वाद भरे फल खाए और बहुत संतुष्ट हुई। मगर ने उसे अपने मित्र के बारे में बताया। पत्नी को विश्वास न हुआ। वह बोली "जाओ, मुझे बना रहे हो। बंदर की कभी किसी मगर से दोस्ती हुई है?"
मगर ने यकीन दिलाया "यकीन करो भाग्यवान! वर्ना सोचो यह फल मुझे कहाँ से मिले? मैं तो पेड़ पर चढ़ने से रहा।"
मगरनी को यकीन करना पड़ा। उस दिन के बाद मगरनी को रोज बंदर द्वारा भेजे फल खाने को मिलने लगे। उसे फल खाने को मिलते यह तो ठीक था, पर मगर का बंदर से दोस्ती के चक्कर में दिनभर दूर रहना उसे खलने लगा। खाली बैठे-बैठे ऊँच-नीच सोचने लगी।
वह स्वभाव से ही दुष्टा थी। एक दिन उसका दिल मचल उठा "जो बंदर इतने रसीले फल खाता है,उसका कलेजा कितना स्वादिष्ट होगा?" अब वह चालें सोचने लगी। एक दिन मगर शाम को घर आया तो उसने मगरनी को कराहते पाया। पूछने पर मगरनी बोली "मुझे एक खतरनाक बीमारी हो गई है। वैद्यजी ने कहा है कि यह केवल बंदर का कलेजा खाने से ही ठीक होगी। तुम अपने उस मित्र बंदर का कलेजा ला दो।"
मगर सन्न रह गया। वह अपने मित्र को कैसे मार सकता है? न-न, यह नहीं हो सकता। मगर को इनकार में सिर हिलाते देखकर मगरनी जोर से हाय-हाय करने लगी "तो फिर मैं मर जाऊंगी। तुम्हारी बला से और मेरे पेट में तुम्हारे बच्चे हैं। वे भी मरेंगे। हम सब मर जाएंगे। तुम अपने बंदर दोस्त के साथ खूब फल खाते रहना। हाय रे, मर गई... मैं मर गई।"
पत्नी की बात सुनकर मगर सिहर उठा। बीवी-बच्चों के मोह ने उसकी अक्ल पर पर्दा डाल दिया। वह अपने दोस्त से विश्वासघात करने, उसकी जान लेने चल पड़ा।
मगरमच्छ को सुबह-सुबह आते देखकर बंदर चकित हुआ। आज मगरमच्छ की आँखों से अनवरत बह रहे आँसुओं का प्रवाह कुछ ज्यादा ही तेज था और कदाचित रोते-रोते उसकी आँखें बुरी तरह सूज भी गई थीं। कारण पूछने पर मगर बोला "बंदर भाई, तुम्हारी भाभी बहुत नाराज हैं। कह रही हैं कि देवरजी रोज मेरे लिए रसीले फल भेजते हैं, पर कभी दर्शन नहीं दिए। सेवा का मौका नहीं दिया। आज तुम न आए तो देवर-भाभी का रिश्ता खत्म। तुम्हारी भाभी ने मुझे भी सुबह ही भगा दिया। अगर तुम्हें साथ न ले जा पाया तो वह मुझे भी घर में नहीं घुसने देगी।"
बंदर खुश भी हुआ और चकराया भी "मगर मैं आऊं कैसे? मित्र, तुम तो जानते हो कि मुझे तैरना नहीं आता।" मगर बोला "उसकी चिन्ता मत करो, मेरी पीठ पर बैठो। मैं ले चलूंगा न तुम्हें।"
बंदर मगर की पीठ पर बैठ गया। कुछ दूर नदी में जाने पर ही मगर पानी के अंदर गोता लगाने लगा। बंदर चिल्लाया "यह क्या कर रहे हो? मैं डूब जाऊंगा।"
मगर हँसा "तुम्हें तो मरना है ही।"
उसकी बात सुनकर बंदर का माथा ठनका, उसने पूछा "क्या मतलब?"
मगर ने बंदर को कलेजे वाली सारी बात बता दी। बंदर हक्का-बक्का रह गया। उसे अपने मित्र से ऐसी बेइमानी की आशा नहीं थी।
बंदर चतुर था। तुरंत अपने आप को संभालकर बोला "वाह, तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया? मैं अपनी भाभी के लिए एक तो क्या सौ कलेजे दे दूँ। पर बात यह है कि मैं अपना कलेजा पेड़ पर ही छोड़ आया हूं। तुमने पहले ही सारी बात मुझे न बताकर बहुत गलती कर दी है। अब जल्दी से वापिस चलो ताकि हम पेड़ पर से कलेजा लेते चलें। देर हो गई तो भाभी मर जाएगी। फिर मैं अपने आपको कभी माफ नहीं कर पाऊंगा।"
अक्ल का मोटा मगरमच्छ उसकी बात सच मानकर बंदर को लेकर वापस लौट चला। जैसे ही वे पेड़ के पास पहुंचे बंदर लपककर पेड़ की डाली पर चढ़ गया और बोला "मूर्ख, कभी कोई अपना कलेजा बाहर छोड़ता हैं? दूसरे का कलेजा लेने के लिए अपनी खोपड़ी में भी भेजा होना चाहिए। अब जा और अपनी दुष्ट बीवी के साथ बैठकर अपने कर्मों पर रो।" ऐसा कहकर बंदर तो पेड़ की टहनियों में लुप्त हो गया और अक्ल का दुश्मन मगरमच्छ अपना माथा पीटता हुआ लौट गया।
मित्रों, इन दिनों नेहरू-गांधी परिवार कथित रूप से कुछ ज्यादा ही भावुक हो रहा है बात-बात पर माँ सोनिया गांधी और पुत्र राहुल गांधी रोने लगे हैं। इस गलदश्रु भावुकता के भी ऊपर वर्णित घड़ियाल की तरह नकली होने की संभावना ही ज्यादा दिख रही है। रोते तो सारे मगरमच्छ हैं और चौबीसो घंटे रोते रहते हैं। परन्तु क्या इससे उसके स्वभाव पर कोई असर पड़ता है? क्या उसके ऐसा करने से उसका हिंस्रभाव चला जाता है? जब पूरा देश दामिनी की मौत पर रो रहा था तब राहुल कहाँ थे और चुप्पी क्यों लगा रखी थी? क्या तब वे नया साल की छुट्टियों का मजा लेने में मशगूल नहीं थे? फिर अचानक वे इतना भावुक क्यों और कैसे हुए जा रहे हैं? बात-बात पर रोना अगर अयोग्यता नहीं है तो योग्यता भी तो नहीं हो सकती। कम-से-कम एक राजनेता के लिए तो बिल्कुल भी नहीं। मुझे इस बात का भय लग रहा है कि कहीं वे मगरमच्छ और बंदर वाली पंचतंत्र की कथा को सत्य साबित करने की तो नहीं सोंच रहे हैं? राहुल के रोल मॉडल मनमोहन ने भी तो जनता को अब तक सिर्फ रूलाया ही है कभी डीजल-पेट्रोल के आँसुओं से तो कभी आटा-दाल के और आजकल प्याज के आँसुओं में रूला रहे हैं। राहुल व्यवस्था-परिवर्तन की बात तो कर रहे हैं मगर अब तक उनके मार्गदर्शन में चल रही सरकार ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया है जिससे लगे कि राहुल वास्तव में व्यवस्था को बदलना चाहते हैं और न ही राहुल ने अब तक अपना इस बारे में कोई रोडमैप ही जनता के सामने रखा है कि वे किस प्रकार और किन-किन कदमों के माध्यम से व्यवस्था-परिवर्तन करना चाहते हैं। फिर जनता को क्यों उन पर और उनके आँसुओं पर विश्वास कर लेना चाहिए? केंद्र में पिछले 9 सालों से उनकी पार्टी और उनके परिवार का शासन है। उनको व्यवस्था-परिवर्तन की दिशा में सार्थक कदम उठाने से किसने रोक रखा है? वे इस दिशा कोई पहल क्यों नहीं कर रहे हैं? सशक्त लोकपाल,चुनाव-सुधार,प्रशासनिक-सुधार और न्यायिक-सुधार सहित कई क्षेत्र ऐसे हैं जो इस दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकते हैं और वर्षों से सरकारी ईच्छा-शक्ति की प्रतिक्षा कर रहे हैं। अगर राहुल और उनकी माँ सचमुच जनता के दुःखों से विगलित हो रही हैं तो उनको अविलंब इस दिशा में कदम उठाना चाहिए नहीं तो जनता यही समझेगी कि वे पंचतंत्र वाला मगरमच्छ हैं और जनता को उन्होंने बंदर समझ लिया है। ऐसे में प्रश्न यह भी उठता है कि क्या बंदर जनता इतनी चतुर है कि वह इन मगरमच्छों से खुद की रक्षा कर सके?

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