जब से गुजरात चुनाव का प्रचार अभियान शुरू हुआ और उसमें नरेन्द्र मोदी ने हैट्रिक लगाई, एक जुमला सबकी जुबान पर है कि आगामी चुनावी राहुल बनाम मोदी होगा। यहां तक कि विदेशी पत्रिकाओं का भी यही आकलन है कि टक्कर तो इन दोनों के बीच ही होगी। यह आकलन एक अर्थ में तो ठीक था कि मोदी ही अकेले ऐसे नेता के रूप में उभरे हैं, जो कि भाजपा में सबसे ज्यादा चमकदार व आकर्षक हैं, बाकी सारे नेता उनके आगे फीके हैं। यहां तक कि सुषमा स्वराज व अरुण जेटली भी उनके आगे कहीं नहीं ठहरते। वे हैं भले ही दमदार वक्ता और बेदाग, मगर उनके पास मोदी जैसा जनाधार नहीं है। मगर सवाल ये उठता है कि गुजरात के शेर मोदी राष्ट्रीय स्तर पर भी वैसी ही भूमिका अदा कर पाएंगे, जैसी कि उन्होंने गुजरात में बना कर दिखाई है? कहने को भले ही वे विकास के नाम पर जीते हैं, मगर उनकी जीत में हिंदूवाद की भूमिका ही अहम मानी जाती है, ऐसे में क्या राष्ट्रीय स्तर पर धर्म निरपेक्ष दल उन्हें स्वीकार कर पाएंगे? क्या भाजपा मोदी के कारण बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार सहित अन्य के एनडीए का साथ छोडऩे से होने वाले नुकसान को बर्दाश्त करने को तैयार होगी? क्या मोदी के नाम पर हिंदूवादी शिव सेना की इतर राय को नजरअंदाज कर दिया जाए? अव्वल तो क्या भाजपा के और नेता भी उन्हें आगे आने देने को तैयार होंगे? ये ऐसे सवाल हैं जो यह तय करेंगे कि आने वाले लोकसभा चुनाव की तस्वीर कैसी होगी।
दरअसल अधिसंख्य भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए मोदी एक सर्वाधिक चमकदार आईकन हैं। हिंदूवादी ताकतों की भी इच्छा है कि मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट करने का इससे बेहतर मौका फिर नहीं मिलेगा। पूर्व में इंडिया शाइनिंग का सर्वाधिक महत्वाकांक्षी नारा धूल चाट चुका है। इसके बाद मजबूत प्रधानमंत्री के रूप में लाल कृष्ण आडवाणी को प्रोजेक्ट किया गया, मगर उनकी भी कलई खुल गई। यह सवाल तब भी उठा था कि भाजपा क्या करे? खुल कर हिंदूवाद पर कायम रहे या धर्मनिपेक्षता के आवरण में हिंदूवाद का पोषण करे? तकरीबन तीन साल बाद आज फिर यह सवाल उठ खड़ा हुआ है। संयोग से इस बार मोदी जैसा नेता उभर कर आया है, जिसकी पूंछ पकड़ कर वैतरणी पार करने का दबाव संघ व विहिप बना रहे हैं। उनका मानना है कि अब आखिरी विकल्प के रूप में प्रखर हिंदूवाद के चेहरे मोदी सर्वाधिक कारगर साबित होंगे, जिनका सितारा इन दिनों बुलंद है। उनके चेहरे के दम पर भाजपा कार्यकर्ता में जोश आएगा और कम से कम हिंदीभाषी राज्यों में अकेले भाजपा की सीटों में इजाफा होगा। अगर आंकड़ा दो सौ सीटों को भी पार कर गया तो बाद में समान व अर्ध समान विचारधारा के अन्य दल कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने के लिए मजबूरन उनका साथ देंगे। एक तर्क ये भी है कि मोदी की वजह से भले ही एनडीए में टूटन आए अथवा गैर हिंदीभाषी राज्यों में सीटें कम हो, मगर इस नुकसान की भरपाई मोदी के नाम पर हिंदीभाषी राज्यों में मिली बढ़त से कर ली जाएगी। भाजपा हाईकमान भी इसी दिशा में सोच रहा है, मगर वह यह सुनिश्चित नहीं कर पा रहा है, क्या यह प्रयोग कारगर होगा ही? कहीं ऐसा न हो कि भाजपा की सीटें तो कुछ बढ़ जाएं, मगर एनडीए कमजोर हो जाए और सत्ता हासिल करने का सपना फिर धूमिल हो जाए। दूर की सोच रखने वाले कुछ कट्टरवादी हिंदुओं की सोच है कि सत्ता भले ही हासिल न हो, मगर कम से कम भाजपा की अपनी सीटें भी बढ़ीं तो हिंदूवादी विचार पुष्ट होगा, जिसे बाद में और आगे बढ़ाने का प्रयास किया जा सकता है। कई तरह के किंतु-परंतु के चलते भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ को यह फरमान जारी करना पड़ा के प्रधानमंत्री के दावेदार के मामले में बयानबाजी न करें। वे जानते हैं कि इस मुद्दे पर ज्यादा बहस हुई तो पार्टी की दिशा भटक जाएगी। आज जब कि कांग्रेस भ्रष्टाचार व महंगाई के कारण नकारे जाने की स्थिति में आ गई है तो इन्हीं मुद्दों व विकास के नाम पर वोट हासिल किए जा सकते हैं। अगर मोदी के चक्कर में हिंदूवाद बनाम धर्मनिरपेक्षवाद का मुद्दा हावी हो गया तो उसमें कांग्रेस की नाकामी गौण हो जाएगी। कदाचित राजनाथ को भी ये समझ में आता हो कि मोदी को ही आगे करना बेहतर होगा, मगर अभी से इस पर ज्यादा आरोप-प्रत्यारोप हुए तो कहीं मोदी का कचरा ही न हो जाए। उनकी उहापोह इसी से झलकती है कि एक ओर वे कुंभ में हाजिरी भर कर हिंदूवाद का सहारा लेते हैं तो दूसरी ओर हिंदूवाद के नाम पर स्वाभाविक रूप से उभर कर आए मोदी पर बयानबाजी से बचना चाहते हैं।
उधर अगर कांग्रेस की बात करें, तो वह चाहती ही ये है कि मोदी का मुद्दा गरमाया रहे, ताकि उनका भ्रष्टाचार व महंगाई का मुद्दा गायब हो जाए और देश में एक बार फिर हिंदूवाद व धर्मनिरपेक्षता के बीच धु्रवीकरण हो। दिलचस्प बात है कि हिंदूवादी ताकतें अपनी ओर से ही मोदी को सिर पर बैठा कर कांग्रेस का काम आसान कर रही हैं। कांग्रेस भी अपनी ओर से इस मुद्दे को हवा दे रही है। चंद दिग्गज कांग्रेसियों ने आरएसएस व भाजपा पर भगवा आतंकवाद के आरोप इसी कारण लगाए, ताकि वे इसी में उलझी रहें। इसका यह अर्थ भी निकाला जा सकता है कि कांग्रेस को इस बात की कोई चिंता नहीं है कि आगामी चुनाव राहुल बनाम मोदी हो जाएगा।
कुल मिला कर मोदी को लेकर दो तरह की राय सामने आ रही है। एक तो ये कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात में हैट्रिक लगा कर राष्ट्रीय राजनीति में मजबूती के साथ कदम रख दिया है। दूसरी से कि मोदी की स्वीकार्यता भाजपा तक ही हो सकती है, सहयोगी दलों की पसंद वे कत्तई न हो सकते। ऐसे में मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रायोजित करना भाजपा की एक बड़ी भूल साबित हो सकती है। अगर भाजपा ने अपने कार्यकर्ताओं की जिद मान ली तो उसे मुंह की खानी पड़ सकती है। भाजपा इन दो तरह की मान्यताओं के बीच झूल रही हैं। आगे आगे देखें होता है क्या?
-तेजवानी गिरधर7742067000
tejwanig@gmail.com
दरअसल अधिसंख्य भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए मोदी एक सर्वाधिक चमकदार आईकन हैं। हिंदूवादी ताकतों की भी इच्छा है कि मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट करने का इससे बेहतर मौका फिर नहीं मिलेगा। पूर्व में इंडिया शाइनिंग का सर्वाधिक महत्वाकांक्षी नारा धूल चाट चुका है। इसके बाद मजबूत प्रधानमंत्री के रूप में लाल कृष्ण आडवाणी को प्रोजेक्ट किया गया, मगर उनकी भी कलई खुल गई। यह सवाल तब भी उठा था कि भाजपा क्या करे? खुल कर हिंदूवाद पर कायम रहे या धर्मनिपेक्षता के आवरण में हिंदूवाद का पोषण करे? तकरीबन तीन साल बाद आज फिर यह सवाल उठ खड़ा हुआ है। संयोग से इस बार मोदी जैसा नेता उभर कर आया है, जिसकी पूंछ पकड़ कर वैतरणी पार करने का दबाव संघ व विहिप बना रहे हैं। उनका मानना है कि अब आखिरी विकल्प के रूप में प्रखर हिंदूवाद के चेहरे मोदी सर्वाधिक कारगर साबित होंगे, जिनका सितारा इन दिनों बुलंद है। उनके चेहरे के दम पर भाजपा कार्यकर्ता में जोश आएगा और कम से कम हिंदीभाषी राज्यों में अकेले भाजपा की सीटों में इजाफा होगा। अगर आंकड़ा दो सौ सीटों को भी पार कर गया तो बाद में समान व अर्ध समान विचारधारा के अन्य दल कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने के लिए मजबूरन उनका साथ देंगे। एक तर्क ये भी है कि मोदी की वजह से भले ही एनडीए में टूटन आए अथवा गैर हिंदीभाषी राज्यों में सीटें कम हो, मगर इस नुकसान की भरपाई मोदी के नाम पर हिंदीभाषी राज्यों में मिली बढ़त से कर ली जाएगी। भाजपा हाईकमान भी इसी दिशा में सोच रहा है, मगर वह यह सुनिश्चित नहीं कर पा रहा है, क्या यह प्रयोग कारगर होगा ही? कहीं ऐसा न हो कि भाजपा की सीटें तो कुछ बढ़ जाएं, मगर एनडीए कमजोर हो जाए और सत्ता हासिल करने का सपना फिर धूमिल हो जाए। दूर की सोच रखने वाले कुछ कट्टरवादी हिंदुओं की सोच है कि सत्ता भले ही हासिल न हो, मगर कम से कम भाजपा की अपनी सीटें भी बढ़ीं तो हिंदूवादी विचार पुष्ट होगा, जिसे बाद में और आगे बढ़ाने का प्रयास किया जा सकता है। कई तरह के किंतु-परंतु के चलते भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ को यह फरमान जारी करना पड़ा के प्रधानमंत्री के दावेदार के मामले में बयानबाजी न करें। वे जानते हैं कि इस मुद्दे पर ज्यादा बहस हुई तो पार्टी की दिशा भटक जाएगी। आज जब कि कांग्रेस भ्रष्टाचार व महंगाई के कारण नकारे जाने की स्थिति में आ गई है तो इन्हीं मुद्दों व विकास के नाम पर वोट हासिल किए जा सकते हैं। अगर मोदी के चक्कर में हिंदूवाद बनाम धर्मनिरपेक्षवाद का मुद्दा हावी हो गया तो उसमें कांग्रेस की नाकामी गौण हो जाएगी। कदाचित राजनाथ को भी ये समझ में आता हो कि मोदी को ही आगे करना बेहतर होगा, मगर अभी से इस पर ज्यादा आरोप-प्रत्यारोप हुए तो कहीं मोदी का कचरा ही न हो जाए। उनकी उहापोह इसी से झलकती है कि एक ओर वे कुंभ में हाजिरी भर कर हिंदूवाद का सहारा लेते हैं तो दूसरी ओर हिंदूवाद के नाम पर स्वाभाविक रूप से उभर कर आए मोदी पर बयानबाजी से बचना चाहते हैं।
उधर अगर कांग्रेस की बात करें, तो वह चाहती ही ये है कि मोदी का मुद्दा गरमाया रहे, ताकि उनका भ्रष्टाचार व महंगाई का मुद्दा गायब हो जाए और देश में एक बार फिर हिंदूवाद व धर्मनिरपेक्षता के बीच धु्रवीकरण हो। दिलचस्प बात है कि हिंदूवादी ताकतें अपनी ओर से ही मोदी को सिर पर बैठा कर कांग्रेस का काम आसान कर रही हैं। कांग्रेस भी अपनी ओर से इस मुद्दे को हवा दे रही है। चंद दिग्गज कांग्रेसियों ने आरएसएस व भाजपा पर भगवा आतंकवाद के आरोप इसी कारण लगाए, ताकि वे इसी में उलझी रहें। इसका यह अर्थ भी निकाला जा सकता है कि कांग्रेस को इस बात की कोई चिंता नहीं है कि आगामी चुनाव राहुल बनाम मोदी हो जाएगा।
कुल मिला कर मोदी को लेकर दो तरह की राय सामने आ रही है। एक तो ये कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात में हैट्रिक लगा कर राष्ट्रीय राजनीति में मजबूती के साथ कदम रख दिया है। दूसरी से कि मोदी की स्वीकार्यता भाजपा तक ही हो सकती है, सहयोगी दलों की पसंद वे कत्तई न हो सकते। ऐसे में मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रायोजित करना भाजपा की एक बड़ी भूल साबित हो सकती है। अगर भाजपा ने अपने कार्यकर्ताओं की जिद मान ली तो उसे मुंह की खानी पड़ सकती है। भाजपा इन दो तरह की मान्यताओं के बीच झूल रही हैं। आगे आगे देखें होता है क्या?
-तेजवानी गिरधर7742067000
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