संवेदनाएं मर सी गयी हैं । जब आपको जीने के लिए जगह नहीं मिलती तो आप मर
जाते हैं । अपने लिए स्थान पाने की जद्दोजहद में । भूखे प्यासे भी । जिनसे
आपको भूख प्यास मिटाने की उम्मीद होती है वे जब मुकर जाते हैं तब ऐसा ही
होता है । मेरे दिल में जहां कभी संवेदनाओं के लिए जगह थी वहाँ अब लाशों के
ढेर हैं । संवेदनाएं अपने लिए जगह ढूंढ रही हैं लेकिन जगह है नहीं ।
ईश्वर के द्वार पर भी नहीं । उस ऊँचे आकाश में भी नहीं जहां कभी निर्गंध
हवा बहा करती थी वहाँ अब लाशों की गंध है । दूर उड़ते विमान उन गंधों से
परेशां होकर तेजी से कहीं और चले जाते हैं । संवेदनाये जिन्दा थी जब मुझे
कहीं कोई पीड़ित दीखता था । ढाढ़स बंधाता था मै भी । अब शब्द कोष की कमी है
। किस किस को ढाढ़स बंधाऊं । उस माँ को जिसका लाल पूछकर गया था कि शाम
को लौटते वक़्त आज सब्जी में क्या क्या लाना है ? उस बहिन को जिसने अपने लिए
दुपट्टा मंगाया था लाल रंग का । उस भाई को जो कई दिन से विडियो गेम का
इन्तजार कर रहा था । उस पिता को जिसके जूते अब उसके बेटे के पाँव में आने
लगे थे । उस पुत्र को जो अपने पिता से जिद करता था कि वह भी साथ जाएगा ।
मै किस किस को ढाढस बंधाऊं ? वह पत्नी जो रोज राह देखा करती थी कि कब वो
आयेंगे जिन्होंने हाल ही में घर की जिम्मेदारी उठाई है । वह बच्चे जो रोज
अपने पिता को आते देख कर कुछ पाने की लालसा में बाबा बाबा कह कर उनके आस
पास मंडराने लगते थे । घर की उस मालकिन को जो पति से रोज पूछा करती कि आज
खाना क्या बनाना है ? या फिर उन सबको पूछूं जो ईश्वर के दर्शन करने इस
लालसा से आये थे कि उनका यह लोक और परलोक अब सुधर जाएगा । शिव कल्याण
करेंगे । वे शिव हैं । ईश हैं । पशुपति भी हैं । शूली भी हैं । महेश्वर
हैं । सर्व हैं । शंकर भी हैं । चंद्रशेखर हैं । उग्र हैं तो भोले भी हैं ।
लेकिन जो शिवदर्शन को आये थे शव में बदल गए , ईश का आशीष लेने आये थे
असमर्थ हो गए , जो पशुपति की शरण मे आये थे उन्होंने देखा , उस आपदा में
मानुष क्या पशु भी बहते चले जा रहे थे , जो शूली से अपने जीवन के शूल दूर
करने आये थे ऐसे शूल अपने दिल में लिए गए हैं कि कसम खाए बैठे हैं कि
दोबारा चारों धाम नहीं आयेंगे । वे महेश्वर के पास आये और अपना ऐश्वर्य खो
बैठे , जो सर्व दर्शन को आये अपना सर्वस्व खो कर शव में बदल गए । अपने जीवन
में शम अर्थात कल्याण की कामना के साथ आये थे वे अशम यानि अकल्याण भोग
गए , जो उग्र को भोले समझ कर आये थे वे उनकी उग्रता को देखकर घबराए से
अपने घर में बैठे हैं । उस भागीरथी के प्रवाह ने उन सबको अपने साथ बहा लिया
जो कभी स्वयं भोले की जटाओं में उलझ गयी थी और उनसे अनुनय के बाद ही मुक्त
हुयी थी । उस मंदाकिनी ने उन्हें अपने आगोश में लिए जो कभी कल कल करती बहा
करती और अपने सुमधुर स्वर से अपने तट पर बैठे हुओं के कानो में मिश्री
घोल दिया करती थी । किसी ने उसके उग्र रूप की कामना क्या कल्पना भी नहीं की
थी ।
बहुत से मर गए उस भूख प्यास से जो उन्होंने कभी नहीं झेली थी और उनके शरीर अनंत आकाश में उड़ते चील कौओं का भोजन बन गए हैं । इस प्राकृतिक हिंसा ने बहुतों को जैनियों की श्रेणी में ला खडा किया है जो मरने के बाद अपने शरीर को पशुओं और पक्षिओं को दे दिए जाने की आशा के साथ अपना शरीर छोड़ते हैं । क्या आस्था हिल गयी है ? नहीं , आस्था नहीं हिली । उनके कुछ लोग फिर से अमरनाथ की यात्रा पर निकले हैं । वे अमरनाथ की यात्रा पर हैं । अमर नाथ । वही जोश । वही उमंग और वही उत्साह । उन्होंने तो लिख भी दिया है अपने बैनर में - अमरनाथ की यात्रा - २८ जून से प्रभु इच्छा तक । सही तो है प्रभु इच्छा तक।
खैर , अब मै क्या करूं । ऐसे ही बैठा रहूँ या उनकी चिंता करूं जो मर गए उस संवेदन हीन सिस्टम के कारण जो कहीं भी तब पहुँचता है जब सब कुछ ख़त्म हो जाता है । या संवेदना व्यक्त करूं उन नेताओं के प्रति जो सिर्फ इसलिए लड़ रहे थे कि वे अपने लोगों को ले जायेंगे । लेकिन उन नेताओं के प्रति कैसे संवेदनाएं व्यक्त करूं जिनकी वजह से मेरी संवेदनाएं ख़त्म हो रही है , दम तोड़ रही हैं ।
मैं तो उनके प्रति संवेदनाएं व्यक्त कर सकता हूँ जो चले गए , संवेदना के शब्द तो नहीं हैं मेरे पास , लेकिन खोजूं तो मिल जायेंगे । क्योकि शब्द ब्रह्म होता है और नित्य भी होता है उसी आत्मा की तरह जो उन तमाम शवों को छोड़कर निकल गयी है जो इस वक़्त राम के उस बाड़ा में बिखरे दबे पड़े हैं या पेड़ों पर शरण लिए पड़े हैं । मैं जिस राम के बाड़ा को राम की बाड़ समझता था वह अब टूट गयी है और मरघट में तब्दील है । शायद वे सभी उस श्वेत द्वीप नगर में चले गए हों जिसका जिक्र महाभारत का शांतिपर्व करता है । जो प्रकाश पुरुषों का स्थान है । मेरी संवेदनाएं हैं सब के प्रति - आत्मा एक है शरीर भिन्न - उस एक आत्मा की शान्ति के लिए -
न जायते म्रियते व कदाचित
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोयं पुरानो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
बहुत से मर गए उस भूख प्यास से जो उन्होंने कभी नहीं झेली थी और उनके शरीर अनंत आकाश में उड़ते चील कौओं का भोजन बन गए हैं । इस प्राकृतिक हिंसा ने बहुतों को जैनियों की श्रेणी में ला खडा किया है जो मरने के बाद अपने शरीर को पशुओं और पक्षिओं को दे दिए जाने की आशा के साथ अपना शरीर छोड़ते हैं । क्या आस्था हिल गयी है ? नहीं , आस्था नहीं हिली । उनके कुछ लोग फिर से अमरनाथ की यात्रा पर निकले हैं । वे अमरनाथ की यात्रा पर हैं । अमर नाथ । वही जोश । वही उमंग और वही उत्साह । उन्होंने तो लिख भी दिया है अपने बैनर में - अमरनाथ की यात्रा - २८ जून से प्रभु इच्छा तक । सही तो है प्रभु इच्छा तक।
खैर , अब मै क्या करूं । ऐसे ही बैठा रहूँ या उनकी चिंता करूं जो मर गए उस संवेदन हीन सिस्टम के कारण जो कहीं भी तब पहुँचता है जब सब कुछ ख़त्म हो जाता है । या संवेदना व्यक्त करूं उन नेताओं के प्रति जो सिर्फ इसलिए लड़ रहे थे कि वे अपने लोगों को ले जायेंगे । लेकिन उन नेताओं के प्रति कैसे संवेदनाएं व्यक्त करूं जिनकी वजह से मेरी संवेदनाएं ख़त्म हो रही है , दम तोड़ रही हैं ।
मैं तो उनके प्रति संवेदनाएं व्यक्त कर सकता हूँ जो चले गए , संवेदना के शब्द तो नहीं हैं मेरे पास , लेकिन खोजूं तो मिल जायेंगे । क्योकि शब्द ब्रह्म होता है और नित्य भी होता है उसी आत्मा की तरह जो उन तमाम शवों को छोड़कर निकल गयी है जो इस वक़्त राम के उस बाड़ा में बिखरे दबे पड़े हैं या पेड़ों पर शरण लिए पड़े हैं । मैं जिस राम के बाड़ा को राम की बाड़ समझता था वह अब टूट गयी है और मरघट में तब्दील है । शायद वे सभी उस श्वेत द्वीप नगर में चले गए हों जिसका जिक्र महाभारत का शांतिपर्व करता है । जो प्रकाश पुरुषों का स्थान है । मेरी संवेदनाएं हैं सब के प्रति - आत्मा एक है शरीर भिन्न - उस एक आत्मा की शान्ति के लिए -
न जायते म्रियते व कदाचित
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोयं पुरानो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥