4.6.13

बातों-बातों में...

मिशन के महाशय खिलाड़ी
जहां पैसे के मिशन का खेल चल रहा हो, भला वहां कैसे ‘शिक्षा का मिशन’ फलीभूत हो सकता है। यहां भी यही हाल है। जिस ध्येय से मिशन शुरू हुआ, वह किसी और ‘मिशन’ में नजर आ रहा है। इस तरह जिन नौनिहालों की फिक्र सरकार ने की थी, उनके भविष्य का बंटाधार होना तय ही है। जब खुद की जेब भरने का मिशन ही याद हो और ‘शिक्षा के मिशन’ को ‘पठेरे’ पर टांग दिया गया हो, वहां शिक्षा और छात्रों का, गर्त में जाना तो तय ही है। नौनिहालों को देश का भविष्य कहा जाता है, फिलहाल वे, उन महाशय जुगाड़ के खिलाड़ियों के भविष्य बनाने का जरिया साबित हो रहे हैं, जिनके कंधों पर नौनिहालों का बेड़ापार लगाने की जवाबदेही है। लेकिन वे समझे, तब ना।

कंकड़ के ‘लखपतिदेव’
कहा जाता है जुगाड़ू, अपना जुगाड़ बना ही लेता है। हाल में धान की व्यापक पैमाने पर खरीदी हुई। इस दौरान जैसे-तैसे कर जो कमाए, वो चटकन-बुटकन के रहे। अब असली कमाई का दौर शुरू हुआ है, खरीदे गए धान में ‘कंकड़’ मिलाने का। जाहिर है, कंकड़ मिलाएंगे तो धान भी अलग से पैसे उगलेगा। निश्चित ही बड़े साहब के मन में ‘कंकड़’ से लगाव नजर आ होगा। तभी तो कंकड़बाजों पर उनकी नजर नहीं जाती और जाती भी है तो, नजरें टेढ़ी नहीं होती। ऐसे में जब कंकड़ से ‘लखपति’ बनने का दौर चल रहा हो तो वे क्यों नहीं चाहेंगे, बहती गंगा में हाथ धोना...।

मिसफिट होने का गम...
‘खाओ-खिलाओ’ वाले विभाग के बड़े साहब की सोच व नजरिया लाजवाब है। उन्हें विभाग के घपले व गड़बड़ी नजर नहीं आती। यही वजह है कि बरसों से जमे होने के बाद भी एक बड़ी कार्रवाई नहीं कर सके। इसे अब हम उनकी सुस्ती मानें कि बरसों न खत्म होने वाली ‘मन-भूख’। दरअसल, साहब को अपने विभाग से काफी शिकवे-शिकायतें हैं। उनके पास जो गया, समझो वे ‘दुहाई’ खाकर ही बाहर आता है। साथ ही वे खुद को विभाग में ‘मिसफिट’ मानते हैं, उन्हें ये दर्द हमेशा सालते रहता है, जबकि पैसे वे चौरतफा कमा रहे हैं, एक इस तरीके से, बाकी न जाने...। विभाग में साख इतनी कमजोर कि शरीर से दबंग होने के बाद भी उन्हें कोई घास नहीं डालता। बेचारे... हमेशा रोते रहते हैं, उन्हें बनना क्या था और बन क्या गए ?

...जेब में बढ़ती हरियाली
देखिए, जिले में हरियाली लाने के लिए करोड़ों फूंक दिए गए। नतीजा, हरे-भरे पौधे, पेड़ तो नहीं बने, किन्तु साहब और बाबूओं की जेबों की हरियाली सौ फीसदी जरूर बढ़ गई। पहले जो जेबें फटी होती थीं या कहें ‘अठन्नी’ भी चाय के नाम पर नहीं निकलती थी। आज उन जेबों से ‘करारे’ निकलते हैं। जाहिर है, हरियाली की बयार अभी जेबों में ही बह रही है, अन्यत्र तो कहीं दिखाई नहीं देती। लाखों पौधों के आज जितनी पत्ती होती, मानो उतने ही ‘करारे’ के जलवे हैं। पहले के हिसाब हरियाली का आनंद हजारों लोग उठाते, इनके रहमो-करम के बाद, अब जेबों तक ही ‘हरियाली’ लहालहा रही है।

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