26.7.13

जानता हूँ क्या उचित है पर करने की इच्छा नहीं है !

जानता हूँ क्या उचित है पर करने की इच्छा नहीं है !

भारत आज जिस समस्या से पीड़ित है उसमे गरीबी मुख्य समस्या बन गई है। नीति
और शास्त्र कहते हैं कि भूखा व्यक्ति पुन्य और पाप के पचड़े में नहीं पड़ता है वह तो
पेट भरने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाता है कैसा भी पाप हो वह उसे करने
के लिए तैयार रहता है और इस महामारी का ईलाज आज तक कोई भी राजनीतिज्ञ
खोजने में असक्षम रहा है ,इसके कुछ कारण है -पद का लोभ, इच्छाशक्ति का
अभाव, निजी स्वार्थ, देश प्रेम की भावना में गिरावट।

           कोई भी सरकार इस पीड़ा को ढकना चाहती है और ढकने मात्र से फोड़ा ठीक
नहीं होता है उलटे उसमे मवाद पड जाती है। वर्तमान सरकार तो इस पीड़ा को ढकने
के लिए विरोधाभासी योजनायें और आंकड़े रचने में व्यस्त है ,सरकार एक बार यह
स्वीकार कर ले कि इस देश में वर्तमान में गरीबी विकराल रूप ले चुकी है और यह
घटने की जगह बढ़ रही है तो इसको ठीक करने के उपाय भी मिल जायेंगे लेकिन
सरकार में इच्छाशक्ति और सत्य को स्वीकार करने का साहस नहीं रहा है इसलिए
वह आंकड़ो का जाल बिछाती है और प्रजा के रोष को बढाती है।

          क्या जिसका पेट भरा है वह अपराध करेगा ?किसी भी कोम का गरीब व्यक्ति
जब पेट भरने के,रोजी रोटी कमाने के सभी रास्ते खुद के लिए बंद देखता है तो वह
अनैतिक और गेरकानुनी काम करने के रास्ते को सुगम समझ उस ओर मज़बूरी से
चलने को बाध्य हो जाता है।

    हम पढ़े लिखे और अपने को निपुण समझने वाले लोग गरीबी और उसकी मज़बूरी
को समझने में जब तक असफल रहेंगे तब तक विघटनकारी तत्वों को रोक पाने में
असफल रहेंगे। गरीब चाहे किसी भी धर्म का हो उसे योग्य राह नहीं मिलने पर भटक
जायेगा यह वास्तविकता है।

     गरीब लोग पेट भरने के लिए अपना मत भी बेचने में नही झिझकता और उसकी
कमजोरी का तुच्छ स्वार्थी नेता फायदा उठाते हैं। चुनावों के समय लालच देकर वोट
पा लेना उनको भी सुगम रास्ता लगता है।

        दूसरी बात बेरोजगारी की है। हमारी सरकार करोडो युवाओं को रोजगार देने में
फिस्सडी साबित हो रही है और गुणवत्ता युक्त शिक्षा देने में नाकारा साबित हो रही है
आज पढ़े लिखे लोग बेरोजगारी का दंश भोगते हैं और समाज के ताने सुनते हैं। उनके
हाथ में थमाई गई डिग्रियां उनका और उनके परिवार का पेट भरने में नाकामयाब हो
रही है और इसका परिणाम यह आता है कि युवा हताशा और निराशा से गैरकानूनी
काम करने को मजबूर हो जाता है।

        कानुन अपराध को रोकने के लिए दण्डका विधान करता है पर यह चिंतन कोई
नहीं करता है कि आपराधिक प्रवृति का उन्मूलन कैसे हो? क्या दण्ड से सुपरिणाम
पाए जा सकते हैं ? अगर यही सर्वश्रेष्ठ उपाय होता तो चरित्र और सदाचार का निर्माण
करना कहाँ जरूरी था ,सब चीजें दण्डसे व्यवस्थित हो जाती।

     स्वामी बुधानन्द ने अपनी पुस्तक में  समस्या का मूल कारण लिखा है -

      जानामि धर्मं न च मे प्रवृति:
      जानाम्यधर्मं न च मे निवृति:  (पाण्डवगीता )  

--मैं जानता हूँ की धर्म क्या है ,उचित क्या है ,अच्छा क्या है  परन्तु उसे करने में मेरी 
प्रवृति नही है और मैं यह भी जानता हूँ की क्या अनुचित है ,अधर्म है,बुरा है,पाप है ,
परन्तु उसे किये बिना रह नहीं पाता।

    आज देश के कर्णधार,शासक,पढ़े लिखे सभी यही तो कर रहे हैं। राजनीती वाला 
कानून सिखाता है ,अर्थशास्त्री नीतिदिखाता है, समाज सुधारक राजनीती के गुर 
पढाता है………………. फिर भी हम कल्याण की चाह रखते हैं यह बड़ा आश्चर्य है !            

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