मित्रों,कल की ही तो बात है। घड़ी में दोपहर के एक बज रहे थे। धर्मासती
प्राथमिक विद्यालय,जिला-सारण (बिहार) की घंटी घनघना उठी। बच्चे शोर मचाते
हुए पंक्तिबद्ध होकर बैठ गए। मिडडेमिल योजनान्तर्गत चावल,दाल और सब्जी
परोसी जाने लगी। न जाने क्यों आज सब्जी कुछ ज्यादा ही तीखी और अलग
स्वादवाली थी। रसोईया मंजू को विश्वास नहीं हुआ तो उसने भी चखकर देखा। एक
पंक्ति उठी और अभी दूसरी पंक्ति को भोजन परोसा भी नहीं गया था कि भोजन कर
चुके बच्चों के पेट में भयंकर दर्द होने लगा। कुछ तो तत्काल ही बेहोश भी हो
गए। पूरे गाँव में कोहराम मच गया। दो बच्चों ने चंद मिनटों में वहीं पर
देखते-ही-देखते दम तोड़ दिया। बाँकियों को मशरख के प्राथमिक स्वास्थ्य
केंद्र ले जाया गया और कुछ बच्चों को मशरख के ही निजी अस्पतालों में भर्ती
कराया गया। परंतु वहाँ न तो सुविधाएँ ही थीं और न तो डॉक्टर कुछ समझ ही पा
रहे थे। तब तक 5 अन्य बच्चे दुनिया को अलविदा कह चुके थे। शाम के 6 बजे
जीवित बचे 40 बच्चों को मशरख से हटाकर छपरा,सदर अस्पताल में भर्ती करवा
दिया गया लेकिन वहाँ की तस्वीर भी कोई अलग नहीं थी। वहाँ न तो कोई डॉक्टर
ही उपस्थित था और न तो जहर काटने की दवा ही उपलब्ध थी,ऑक्सीजन का तो सवाल
ही नहीं उठता। सूर्यास्त तक अस्पताल में मौत तांडव करने लगा और 9 अन्य
बच्चों ने भी दम तोड़ दिया। रात के नौ बजे स्थिति बिगड़ती देख जिंदा बचे 30
बच्चों को पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल भेज दिया गया जहाँ वे करीब 12 बजे
पहुँचे। तब तक रास्ते में भी 4 बच्चों की साँसें थम चुकी थीं। बाद में
पीएमसीएच में भी 7 बच्चों ने दम तोड़ दिया। लाशों की गिनती 27 मौतों के बाद
भी अभी थमी नहीं है और कई बच्चों की हालत गंभीर बनी हुई है। दुर्भाग्यवश
रसोईया मंजू देवी ने भी चूँकि उस भोजन को चखकर देखा था इसलिए वे भी
पीएमसीएच में दाखिल हैं लेकिन उसके भी दो बच्चे इस घटना में काल-कवलित हो
गए हैं। कल ही राज्य सरकार ने मामले की जाँच के लिए कमिश्नर और आईजी की
जाँच कमिटी बना दी थी जो अब तक भी गाँव नहीं पहुँची है। अलबत्ता सुबह-सुबह
पुलिस जरूर गाँव में आई थी और लोगों के सख्त विरोध के बाबजूद बर्तन और
तैयार भोजन समेत सारे प्रमाण अपने साथ ले गई। इस बीच बिहार के शिक्षा
मंत्री ने एक प्रेस वार्ता में कहा है कि उनका पुलिसिया जाँच में विश्वास
नहीं है क्योंकि वे मानते हैं कि पुलिस पक्षपाती होकर काम करती है। इस
मामले की जाँच से तो सरकार ने पुलिस को अलग कर दिया लेकिन उन बाँकी हजारों
मामलों का क्या जिनका अनुसंधान बिहार पुलिस कर रही है?
मित्रों,इतनी बड़ी संख्या में इन नौनिहालों की मौत के लिए जिम्मेदार कौन है? केंद्र
सरकार ने तो योजना बना दी,आवंटन भी कर दिया लेकिन उसे सही तरीके से लागू कौन करवाएगा? क्यों एफसीआई के गोदाम से ही 50 किलो की बोरी में 45 किलो अनाज होता है? फिर कैसे स्कूल तक पहुँचते-पहुँचते रास्ते में ही बोरी का वजन घटकर 30-35 किलो हो जाता है? क्यों स्कूलों के शिक्षक पढ़ाना छोड़कर दिन-रात मिडडेमिल योजना में से पैसे बनाने और आपस में बाँटने की जुगत में लगे रहते हैं? क्यों मिडडेमिल प्रभारी अधिकारियों को सड़े और फफूंद लगे चावल-दाल नजर नहीं आते? कल धर्मासती में भोजन में जहर कहाँ से आ गया? जाहिर है कि रसोईये न तो नहीं मिलाया क्योंकि अगर वो ऐसा करती तो न तो उसको खुद खाती और न ही अपने दोनों बच्चों को ही खिलाती। अगर सरसों तेल जहरीला था तो कैसे और क्यों जहरीला था? चूँकि खाद्य-सामग्री प्रधानाध्यापिका के पति की दुकान से खरीदी जाती थी जो राजद का दबंग नेता भी है इसलिए हो सकता है कि उसने राजनैतिक फायदे के लिए जानबूझकर सरसो तेल में जहर मिला दिया हो या गलती से वहीं पर तेल जहर के संसर्ग में आ गया हो। हो तो यह भी सकता है कि प्रधानाध्यापिका के दरवाजे पर ही तेल में जहर मिल गया हो क्योंकि वहाँ खाद्य-सामग्री के साथ-साथ कीटनाशक और रासायनिक खाद भी रखा हुआ था। अगर यह मान भी लिया जाए कि इस घटना के पीछे कोई राजनैतिक साजिश थी तो भी प्रधानाध्यापिका तो सरकारी अधिकारी थीं उन पर निगरानी रखना तो सरकार का काम था। इतना ही नहीं इस योजना की निगरानी के लिए राज्य में अधिकारियों व स्थानीय निकाय के जनप्रतिनिधियों की एक लंबी फौज मौजूद है फिर राज्यभर में बराबर इस तरह की घटनाएँ कैसे घटती रहती हैं,क्या सुशासन बाबू जवाब देंगे? बाद में जब सहारा,बिहार संवाददाता पंकज प्रधानाध्यापिका मीना देवी यादव जिनके पति अर्जुन यादव इलाके के जानेमाने राजद नेता भी हैं के दरवाजे पर पहुँचे तो पाया कि एक टोकरी में आलू रखा हुआ है था जो पूरी तरह से सड़ चुका था और जानवरों के खाने के लायक भी नहीं था। प्रश्न तो यह भी उठता है कि उक्त स्कूल में पिछले 3 सालों से भोजन की देखभाल करनेवाली समिति भी भंग है और संबद्ध अधिकारी कान पर ढेला डाले हुए हैं।
मित्रों,क्या उन बच्चों को गाँव से सरकारी हेलिकॉप्टर भेजकर सीधे पटना नहीं लाया जा सकता था। क्या सरकारी हेलिकॉप्टर सिर्फ मुख्यमंत्री की जागीर होती है? अगर नहीं तो फिर ऐसा क्यों नहीं किया गया? स्वास्थ्य मंत्रालय तो इस समय मुख्यमंत्री के पास ही है फिर सरकारी अस्पतालों में इंतजाम की इतनी भारी कमी क्यों है और अव्यवस्था और गैरजिम्मेदारी का माहौल क्यों है? क्यों अभी तक मुख्यमंत्री ने अभी तक पीएमसीएच,सदर अस्पताल,छपरा या धर्मासती गाँव का दौरा नहीं किया? वे जब पैर में फ्रैक्चर होने बाबजूद सांस्कृतिक कार्यक्रम को देखने जा सकते हैं तो प्रभावित गाँव क्यों नहीं जा सकते हैं? कहीं भी पुलिस फायरिंग में लोग मारे जाएँ या नरसंहार में या किसी दुर्घटना में क्यों मुख्यमंत्री लोगों को सांत्वना देने नहीं जाते? क्या उनको राज्य की जनता की कोई चिंता भी है? क्या उनको आनन-फानन में मुआवजा और जाँच समिति की घोषणा करने के बदले बचे हुए बीमार बच्चों को जल्दी-से-जल्दी पीएमसीएच लाने का इंतजाम नहीं करना चाहिए था? क्या दो-दो लाख रूपए प्रति मृतक बाँट देने से मरे हुए बच्चे जीवित हो जाएंगे?
मित्रों,अभी पूरे गाँव में शोक का माहौल है। किसी-किसी परिवार ने तो एकसाथ अपने 5-5 नौनिहाल खोए हैं। पूरे गाँव में किसी भी घर में चूल्हा नहीं जल रहा है। कल तक जहाँ किलकारियाँ गूँजा करती थीं आज चीत्कारें आसमान का भी सीना चीर दे रही हैं। कल तक स्कूल के सामने स्थित जिस तालाब किनारे के जिस मैदान में बच्चे कबड्डी खेला करते थे आज उसी मैदान में वे 27 बच्चे सोये हुए हैं,गीली और नम मिट्टी की चादर ओढ़कर। गाँववाले अभी भी उसी मैदान में जमा हैं,हाथों में कुदाल लिए इंतजार में कि न जाने अगली बारी किसके बच्चे की हो और न तो इस समय 18 मंत्रालय संभाल रहे सुशासन बाबू का ही कहीं पता है और न तो जिले के जिलाधिकारी का ही। उत्तराखंड की ही तरह बिहार में भी पूरा-का-पूरा तंत्र लापता हो गया लगता है। दिल्ली में योजनाएँ बनाईं जाती हैं जनता का कुपोषण दूर करने के लिए और लागू करने में व्याप्त भ्रष्टाचार और लापरवाही उसे जानलेवा बना देती है। क्या केंद्र सरकार द्वारा योजना बना देने से ही और राशि का आवंटन कर देने से उसके कर्त्तव्यों की इतिश्री हो जाती है? अगर राज्य सरकारें उनको ठीक तरह से लागू नहीं करे तो उन्हें इसके लिए कौन बाध्य करेगा?
मित्रों,क्या कभी बिहार के हालात को बदला जा सकेगा? मिश्र गए,लालू भी गए और अब नीतीश भी चले जाएंगे लेकिन क्या कभी भ्रष्टाचार राज्य से जाएगा? क्या कभी तंत्र की लोक के प्रति संवेदनहीनता समाप्त होगी? या फिर गरीबों को पढ़ाई की आस ही छोड़ देनी होगी? निजी विद्यालयों की मोटी फीस तो वे भरने से रहे,बच्चों के खाली पेट को भर सकना भी जानलेवा महँगाई ने असंभव बना दिया है तभी तो वे मुफ्त की शिक्षा और भोजन के लालच में बच्चों को सरकारी स्कूल भेजते हैं। अगर बार-बार इसी तरह मिडडेमिल जान लेता रहा तो क्या वे बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने का जोखिम उठाएंगे? क्या वे अपने बच्चों की पढ़ाई छुड़वाकर उनको मजदूरी में नहीं लगा देंगे यह सोंचकर कि जिएगा तो बकरी चराकर भी पेट भर लेगा?
मित्रों,एक बात और! मैं हमेशा से इस तरह की भिक्षुक-योजनाओं के खिलाफ रहा हूँ जिनका वास्तविक उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ अपने वोट-बैंक को बढ़ाना है। देना है तो सरकार बच्चों के माता-पिता को योग्यतानुसार काम दे मिडडेमिल का घटिया भोजन खाकर और घटिया शिक्षा पाकर सरकारी स्कूलों से पास होनेवाले विद्यार्थी भविष्य में करेंगे भी तो क्या करेंगे? कैसा होगा उनका भविष्य? मेरा यह भी मानना रहा है कि शिक्षकों को शिक्षा के अलावा और किसी भी काम में नहीं लगाना चाहिए। शिक्षक पढ़ाए या भोजन बनवाए और उसकी गुणवत्ता जाँचे? इस बीच बिहार के मधुबनी में भी 15 बच्चे मिडडेमिल खाकर बेहोश हो गए हैं। इतना ही नहीं पूरे उत्तर भारत पश्चिम बंगाल से राजस्थान तक से मिडडेमिल की हालत खराब होने के समाचार लगातार हमें मिलते रहते हैं। गुजरात ने जरूर भोजन का शिक्षक द्वारा चखना अनिवार्य किया हुआ है और इस आदेश का अनुपालन भी होता है। जिस तरह कि पूरे उत्तर भारत में इस योजना में अफरातफरी और भ्रष्टाचार व्याप्त है उससे तो यही लगता है कि अच्छा होता कि बच्चों को बिस्कुट वगैरह डिब्बाबंद पौष्टिक खाद्य-पदार्थ दे दिया जाता या फिर घर ले जाने के लिए कच्चा अनाज ही दे दिया जाता। इस बीज बिहार के मुजफ्फरपुर और कई अन्य स्थानों से ऐसे समाचार भी मिल रहे हैं कि कई स्कूलों में आज बच्चों ने मिडडेमिल खाने से ही मना कर दिया है।
मित्रों,इतनी बड़ी संख्या में इन नौनिहालों की मौत के लिए जिम्मेदार कौन है? केंद्र
सरकार ने तो योजना बना दी,आवंटन भी कर दिया लेकिन उसे सही तरीके से लागू कौन करवाएगा? क्यों एफसीआई के गोदाम से ही 50 किलो की बोरी में 45 किलो अनाज होता है? फिर कैसे स्कूल तक पहुँचते-पहुँचते रास्ते में ही बोरी का वजन घटकर 30-35 किलो हो जाता है? क्यों स्कूलों के शिक्षक पढ़ाना छोड़कर दिन-रात मिडडेमिल योजना में से पैसे बनाने और आपस में बाँटने की जुगत में लगे रहते हैं? क्यों मिडडेमिल प्रभारी अधिकारियों को सड़े और फफूंद लगे चावल-दाल नजर नहीं आते? कल धर्मासती में भोजन में जहर कहाँ से आ गया? जाहिर है कि रसोईये न तो नहीं मिलाया क्योंकि अगर वो ऐसा करती तो न तो उसको खुद खाती और न ही अपने दोनों बच्चों को ही खिलाती। अगर सरसों तेल जहरीला था तो कैसे और क्यों जहरीला था? चूँकि खाद्य-सामग्री प्रधानाध्यापिका के पति की दुकान से खरीदी जाती थी जो राजद का दबंग नेता भी है इसलिए हो सकता है कि उसने राजनैतिक फायदे के लिए जानबूझकर सरसो तेल में जहर मिला दिया हो या गलती से वहीं पर तेल जहर के संसर्ग में आ गया हो। हो तो यह भी सकता है कि प्रधानाध्यापिका के दरवाजे पर ही तेल में जहर मिल गया हो क्योंकि वहाँ खाद्य-सामग्री के साथ-साथ कीटनाशक और रासायनिक खाद भी रखा हुआ था। अगर यह मान भी लिया जाए कि इस घटना के पीछे कोई राजनैतिक साजिश थी तो भी प्रधानाध्यापिका तो सरकारी अधिकारी थीं उन पर निगरानी रखना तो सरकार का काम था। इतना ही नहीं इस योजना की निगरानी के लिए राज्य में अधिकारियों व स्थानीय निकाय के जनप्रतिनिधियों की एक लंबी फौज मौजूद है फिर राज्यभर में बराबर इस तरह की घटनाएँ कैसे घटती रहती हैं,क्या सुशासन बाबू जवाब देंगे? बाद में जब सहारा,बिहार संवाददाता पंकज प्रधानाध्यापिका मीना देवी यादव जिनके पति अर्जुन यादव इलाके के जानेमाने राजद नेता भी हैं के दरवाजे पर पहुँचे तो पाया कि एक टोकरी में आलू रखा हुआ है था जो पूरी तरह से सड़ चुका था और जानवरों के खाने के लायक भी नहीं था। प्रश्न तो यह भी उठता है कि उक्त स्कूल में पिछले 3 सालों से भोजन की देखभाल करनेवाली समिति भी भंग है और संबद्ध अधिकारी कान पर ढेला डाले हुए हैं।
मित्रों,क्या उन बच्चों को गाँव से सरकारी हेलिकॉप्टर भेजकर सीधे पटना नहीं लाया जा सकता था। क्या सरकारी हेलिकॉप्टर सिर्फ मुख्यमंत्री की जागीर होती है? अगर नहीं तो फिर ऐसा क्यों नहीं किया गया? स्वास्थ्य मंत्रालय तो इस समय मुख्यमंत्री के पास ही है फिर सरकारी अस्पतालों में इंतजाम की इतनी भारी कमी क्यों है और अव्यवस्था और गैरजिम्मेदारी का माहौल क्यों है? क्यों अभी तक मुख्यमंत्री ने अभी तक पीएमसीएच,सदर अस्पताल,छपरा या धर्मासती गाँव का दौरा नहीं किया? वे जब पैर में फ्रैक्चर होने बाबजूद सांस्कृतिक कार्यक्रम को देखने जा सकते हैं तो प्रभावित गाँव क्यों नहीं जा सकते हैं? कहीं भी पुलिस फायरिंग में लोग मारे जाएँ या नरसंहार में या किसी दुर्घटना में क्यों मुख्यमंत्री लोगों को सांत्वना देने नहीं जाते? क्या उनको राज्य की जनता की कोई चिंता भी है? क्या उनको आनन-फानन में मुआवजा और जाँच समिति की घोषणा करने के बदले बचे हुए बीमार बच्चों को जल्दी-से-जल्दी पीएमसीएच लाने का इंतजाम नहीं करना चाहिए था? क्या दो-दो लाख रूपए प्रति मृतक बाँट देने से मरे हुए बच्चे जीवित हो जाएंगे?
मित्रों,अभी पूरे गाँव में शोक का माहौल है। किसी-किसी परिवार ने तो एकसाथ अपने 5-5 नौनिहाल खोए हैं। पूरे गाँव में किसी भी घर में चूल्हा नहीं जल रहा है। कल तक जहाँ किलकारियाँ गूँजा करती थीं आज चीत्कारें आसमान का भी सीना चीर दे रही हैं। कल तक स्कूल के सामने स्थित जिस तालाब किनारे के जिस मैदान में बच्चे कबड्डी खेला करते थे आज उसी मैदान में वे 27 बच्चे सोये हुए हैं,गीली और नम मिट्टी की चादर ओढ़कर। गाँववाले अभी भी उसी मैदान में जमा हैं,हाथों में कुदाल लिए इंतजार में कि न जाने अगली बारी किसके बच्चे की हो और न तो इस समय 18 मंत्रालय संभाल रहे सुशासन बाबू का ही कहीं पता है और न तो जिले के जिलाधिकारी का ही। उत्तराखंड की ही तरह बिहार में भी पूरा-का-पूरा तंत्र लापता हो गया लगता है। दिल्ली में योजनाएँ बनाईं जाती हैं जनता का कुपोषण दूर करने के लिए और लागू करने में व्याप्त भ्रष्टाचार और लापरवाही उसे जानलेवा बना देती है। क्या केंद्र सरकार द्वारा योजना बना देने से ही और राशि का आवंटन कर देने से उसके कर्त्तव्यों की इतिश्री हो जाती है? अगर राज्य सरकारें उनको ठीक तरह से लागू नहीं करे तो उन्हें इसके लिए कौन बाध्य करेगा?
मित्रों,क्या कभी बिहार के हालात को बदला जा सकेगा? मिश्र गए,लालू भी गए और अब नीतीश भी चले जाएंगे लेकिन क्या कभी भ्रष्टाचार राज्य से जाएगा? क्या कभी तंत्र की लोक के प्रति संवेदनहीनता समाप्त होगी? या फिर गरीबों को पढ़ाई की आस ही छोड़ देनी होगी? निजी विद्यालयों की मोटी फीस तो वे भरने से रहे,बच्चों के खाली पेट को भर सकना भी जानलेवा महँगाई ने असंभव बना दिया है तभी तो वे मुफ्त की शिक्षा और भोजन के लालच में बच्चों को सरकारी स्कूल भेजते हैं। अगर बार-बार इसी तरह मिडडेमिल जान लेता रहा तो क्या वे बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने का जोखिम उठाएंगे? क्या वे अपने बच्चों की पढ़ाई छुड़वाकर उनको मजदूरी में नहीं लगा देंगे यह सोंचकर कि जिएगा तो बकरी चराकर भी पेट भर लेगा?
मित्रों,एक बात और! मैं हमेशा से इस तरह की भिक्षुक-योजनाओं के खिलाफ रहा हूँ जिनका वास्तविक उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ अपने वोट-बैंक को बढ़ाना है। देना है तो सरकार बच्चों के माता-पिता को योग्यतानुसार काम दे मिडडेमिल का घटिया भोजन खाकर और घटिया शिक्षा पाकर सरकारी स्कूलों से पास होनेवाले विद्यार्थी भविष्य में करेंगे भी तो क्या करेंगे? कैसा होगा उनका भविष्य? मेरा यह भी मानना रहा है कि शिक्षकों को शिक्षा के अलावा और किसी भी काम में नहीं लगाना चाहिए। शिक्षक पढ़ाए या भोजन बनवाए और उसकी गुणवत्ता जाँचे? इस बीच बिहार के मधुबनी में भी 15 बच्चे मिडडेमिल खाकर बेहोश हो गए हैं। इतना ही नहीं पूरे उत्तर भारत पश्चिम बंगाल से राजस्थान तक से मिडडेमिल की हालत खराब होने के समाचार लगातार हमें मिलते रहते हैं। गुजरात ने जरूर भोजन का शिक्षक द्वारा चखना अनिवार्य किया हुआ है और इस आदेश का अनुपालन भी होता है। जिस तरह कि पूरे उत्तर भारत में इस योजना में अफरातफरी और भ्रष्टाचार व्याप्त है उससे तो यही लगता है कि अच्छा होता कि बच्चों को बिस्कुट वगैरह डिब्बाबंद पौष्टिक खाद्य-पदार्थ दे दिया जाता या फिर घर ले जाने के लिए कच्चा अनाज ही दे दिया जाता। इस बीज बिहार के मुजफ्फरपुर और कई अन्य स्थानों से ऐसे समाचार भी मिल रहे हैं कि कई स्कूलों में आज बच्चों ने मिडडेमिल खाने से ही मना कर दिया है।
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