7.1.14

धूर्त नीति

धूर्त नीति  

एक जँगल के धूर्त सियार सभा कर रहे थे। सबके मन में डर था और लालसा भी। डर
इस बात का था कि जंगल पर सिंह का राज हो गया तो बेघर होना पड़ जायेगा और
लालसा यह थी कि किस उपाय से सिंह को परास्त कर मौज का जीवन जीये।

 एक सियार बोला -काठ की हांड़ी बार-बार नहीं चढ़ती ,हमने अपनी धूर्तता के कौशल
से दो बार चढ़ा दी। पिछली बार छल कपट से दूर रहने वाली गाय को अपने पक्ष में
लिया और उसका राजतिलक कर सब जानवरों को समझाया कि गाय एक अहिंसक
जंतु है उसके नेतृत्व में जँगल में शान्ति रहेगी। सब जानवरों ने यह बात मान ली
और हम गाय के नेतृत्व में गुलछरे उडाते रहे।

तभी दूसरा सियार बोला -क्यों ना तीसरी बार ही गाय को आगे कर दिया जाए?

 इस बात का उत्तर देता हुआ पहला सियार बोला -जब हमने उस गाय को पहली
बार आगे किया था तब उसका रँग सफेद था मगर अब उसका रँग काला हो गया है
हमने जितनी कालिख पोतनी थी उस पर पोत दी अब तो वह इतनी डरावनी दिखती
है कि उसका नेतृत्व किसी को स्वीकार न होगा।

कुछ देर की  चुप्पी के बाद एक मोटा सियार बोला - गाय जैसा कोई दूसरे प्राणी को
खोज जाए ताकि सिंह को मांद में बंद रखा जा सके और हम निर्विघ्न ताजा गोस्त
उडाते रहे।

काफी सोच विचार करने के बाद एक बुड्ढा सियार बोला -जँगल के मुर्ख और लालची
बकरे का नेतृत्व स्वीकार कर लेना चाहिये। आज तक बकरे के ऊपर हिँसा फैलाने का
आरोप नहीं लगा है।

सब सियारों ने एकराय होकर बकरे के नाम पर मुहर लगा दी। जब बकरे को मालूम
हुआ की उसका नेतृत्व बहुमत से स्वीकृत हो गया है तो वह उछलने लगा। कुछ
सियारो को अपने साथ लेकर वह शेर की मांद की ओर बढ़ने लगा।

शेर ने अपने आसपास सियारों और बकरे की आवाज सुनी तो मांद से बाहर निकला।
शेर को देखते ही सियार तो भाग खड़े हुये और बकरा शेर के पंजे से मारा गया।  

बहुत ऊँची महत्वाकाँक्षा की लालसा और धूर्त की मित्रता संकट में डालती है     

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