31.7.14

पत्थरों के शहर में जीते हैं सब
और जो हवा वो पीते हैं
उससे अब तक तो सबको जम जाना था
किन्तु ऐसा कभी भी नहीं हुआ
कि जीता-जीता अचानक कोई जम जाए
असल में नकली रिश्तों के बीच जीते हुए सबके
दिल ही ऐसे पत्थर हो जाया करते हैं कि फिर
देह का पत्थर हो जाना कोई मायने नहीं रखता
पत्थर कदम-कदम पर मिलते हैं
बाधाओं के रूप में और नफरत के रूप में 
जिन्दगी की इस बहती हुई नदी में
हमारा हर गलत कदम पत्थर ही होता है
किसी न किसी की राह में
यहाँ तक कि खुद हमारी ही राह में
अक्सर दिखाई देते हुए पत्थरों से
न दिखाई देने वाले पत्थर ज्यादा खतरनाक होते हैं
किन्तु उन्हीं पर हमारा ध्यान नहीं जा पाता !!
और जब ध्यान जाता है,पत्थर बहुत बड़े हो चुके होते हैं
धरती पर के हमारे कुनबे की आपसी कलह और नफरत
और हवा-पानी आदि सब कुछ के विषैले हो जाने
हमारे बीच इन पत्थरों के चट्टान हो जाने की कहानी है
जिन पत्थरों से डरने-टूटने और भय की बातें करते हुए हम
उन्हीं पत्थरों की भयावह चट्टानों पर खड़े
अब न तब गहरी घाटियों में समा जाने वाले हैं हम
और आश्चर्य कि हम अब तक तो ये भी नहीं जानते !!??

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