-कुमार कृष्णन-
सस्ती दवाएँ बनने के बाद भारत को ‘गरीब देशों की दवा की दुकान’ कहा जाने लगा क्योंकि यहाँ से एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिकी देशों में सस्ती दवाएँ उपलब्ध कराई जा रही हैं। सबसे बड़ी त्रासदी है कि देश का 60 फीसदी तबका दवाओं से वंचित है। बदले हालातों में भारतीय कम्पनियाँ दवाओं के निर्माण की बजाय सिर्फ व्यापार में लिप्त हैं जिससे चीन का दवा बाजार पर कब्जा बढ़ा है। हाल में आयी एनएसओ की रिपोर्ट के मुताबिक गाँवों की 86 फीसदी तथा 82 फीसदी शहरी आबादी के पास इलाज का कोई इन्तज़ाम नहीं होता है। इनके लिए न तो सरकारी योजना है और न ही कोई निजी स्वास्थ्य बीमा। पूरा जीवन भगवान भरोसे गुजरता है। लोग 80 फीसदी दवा पर खर्च अपने कीमत पर करते हैं। आम आदमी के पहुँच से दूर होती जा रही है स्वास्थ्य सेवा। असमानता की खाई का आलम यह है कि जहाँ गरीबों तथा आम लोगों को इलाज के लिए अपना पैसा खर्च करना पड़ता है, वहीं दूसरी ओर लोग सरकारी धन पर विदेश जाकर इलाज कराते हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती है दवाओं के व्यापार और इसमें तरह-तरह के गठजोड़ ने पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था को कम्पनियों के हवाले करने पर आमादा है।
अमेरिका में हथियार के बाद सबसे बड़ा व्यापार दवा है। दवा कम्पनी ईली लिल्ली ने दवाओं के दुष्परिणाम के फलस्वरूप 57 हजार करोड़ रुपये का जुर्माना अदा किया, तो दूसरी ओर इस जुर्माने से कम 120 करोड़ की आबादी वाले भारत का स्वास्थ्य बजट 35 हजार करोड़ रुपये का है। इन्हीं महत्त्वपूर्ण सवालों पर केन्द्रित रहा झाबुआ में विकास संवाद की ओर से आयोजित तीनदिवसीय राष्ट्रीय पत्रकार समागम का दूसरा दिन। इस महत्त्वपूर्ण सत्र की अध्यक्षता जानेमाने पत्रकार प्रसून लतांत ने की।
इन्हें मुख्य वक्ता के रूप में सम्बोधित करते हुए ‘जन स्वास्थ अभियान’ के राष्ट्रीय संयोजक डॉ. अमित सेन गुप्ता ने कहा कि दवाओं की राजनीति में नाटक हो रहा है। उस नाटक के अलग-अलग पात्र हैं-दवा कम्पनी और दवा के व्यापारी, मरीज उपभोक्ता, लिखने वाले डॉक्टर और प्रतिबंधित करनेवाली ऐजेंसी। भारत जैसे देश में दवाओं का बाजार 60 से 70 हजार करोड़ का सालाना है। यह दुनिया का एक फीसदी है। दवा के व्यापार को यूरोेपीय देश तथा उत्तरी अमेरिका संचालित करती आयी और इसका दबदबा कायम रहा। बाद के वर्षों में भारत ने दवा के क्षेत्र में कामयाबी हासिल की। दवा निर्माण में भारत तीसरे नम्बर पर है। दुनिया की 8 फीसदी दवाओं का निर्माण भारत में होता है। इसके बावजूद 20 से 40 फीसदी लोगों को ही दवा उपलब्ध हो पाती है। हिन्दुस्तान में दवाओं के दाम अधिक थे उसे आयात कर लाया जाता था और मनचाहे दामों पर बेची जाती थी। जर्मनी की ओर से तकनीक मिली। पहली बार जर्मन के सहयोग से भारत के ऋषीकेश में ‘आईपीडीएल’ नाम से दवा कम्पनी स्थापित की गई जो अब खण्डहर है। बाद के वर्षों में अमेरिकी बाजार का भारत में प्रसार बढ़ा और वे देश में छा गई।
उन्होंने कहा कि महँगी दवाइयों के मद्देनजर संसद की ‘हाथी कमेटी’ की रिपोर्ट पर 1978 में नई दवा नीति बनाई गई जिसमें तय हुआ कि हिन्दुस्तान की कम्पनियों को मदद किया जाए और विदेशी कम्पनियों को बाहर रखा जाए। सस्ती दवाएँ बनने के बाद भारत को ‘गरीब देशों की दवा की दुकान’ कहा जाने लगा क्योंकि यहाँ से एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिकी देशों में सस्ती दवाएँ उपलब्ध कराई जा रही हैं। सबसे बड़ी त्रासदी है कि देश का 60 फीसदी तबका दवाओं से वंचित है। बदले हालातों में भारतीय कम्पनियाँ दवाओं के निर्माण की बजाय सिर्फ व्यापार में लिप्त हैं जिससे चीन का दवा बाजार पर कब्जा बढ़ा है। उन्होंने मूल्य नियंत्रण, अपराधीकरण, दवा के नाम पर जहर आदि के सवाल उठाये।
उन्होंने कहा कि राजनीति का हिस्सा असमानता है। यह राजनीति निर्धारित करती है। वरिष्ठ पत्रकार सुधीर जैन ने मिश्रित अर्थव्यवस्था और उसके दुष्परिणाम को रेखांकित करते हुए कहा कि इसका असर स्वास्थ्य सेवा पर पड़ा है। मंदी के दौर में स्वास्थ्य के क्षेत्र को खरीदने और बेचने की वस्तु बनाकर रख दिया। भारत में जनस्वास्थ्य की स्थिति टूटी साईकिल की तरह है। स्वास्थ्य के बजट में लगातार कटौती कर यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज करने और प्राइवेट सेक्टर में पैसा लगाने की बात की जा रही है।
भड़ास डॉट कॉम के यशवंत सिंह ने मीडिया और उसकी बीमार मानसिकता को विस्तार से रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि अब कम उम्र में ही पत्रकारों को हार्टएटैक आने लगे हैं। सरकार ने वेज बोर्ड बनाया, अब उसकी सिफारिशों को लागू नहीं करवा पा रही है। मीडिया निजी अस्पतालों की पक्षधर बन गयी है और सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का विकृत चेहरा मीडिया में पेश किया जाता रहा है। इस साजिश को समझना होगा।
आशुतोष सिंह ने कहा कि दवा के क्षेत्र में ब्रांड की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने लागत और अकूत मुनाफा की प्रवृति का पर्दाफाश किया। अध्यक्षीय उद्गार व्यक्त करते हुए चर्चित पत्रकार प्रसून लतांत बोले काम के अधिकार, शिक्षा के अधिकार की तरह स्वास्थ्य के अधिकार की भी लड़ाई लड़ी जानी चाहिए।
आउटलुक की एसोसिएट एडीटर भाषा सिंह ने व्यापम से लेकर अन्य सवालों को रखा। उन्होंने इस बात पर चिन्ता का इजहार किया कि मीडिया में लोकतांत्रिक और बुनियादी मसले हाशिये पर चले गए हैं। प्रदीप सुरीन ने स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में मनमानेपन को नियंत्रित करने की नीति पर सवाल खड़े किए। उन्होंने कहा कि ऐसा इसलिए नहीं हो पा रहा है कि 50 फीसदी सांसद उनकी मुट्ठी में हैं। आबादी के लिहाज से डॉक्टर और पैरा मेडिकल स्टॉफ की कमी है।
साकेत दूबे ने कहा कि भोपाल गैस त्रासदी और उसके बाद निजी अस्पताल खुलने की साजिशों का खुलासा किया। पत्रकार विद्यानाथ झा ने संवेदनशीलता के हनन का मामला उठाया तो उमाशंकर मिश्र ने राजनीतिक ढाँचा पर सवाल खड़ा किया। वरिष्ठ पत्रकार अरुण त्रिपाठी से सवालों के जरिए संवाद करते हुए विकास संवाद के सचिन जैन ने जनस्वास्थ के उन गम्भीर पक्षों पर चर्चा की जिसे आमतौर पर दरकिनार कर दिया जाता है। कार्यक्रम का संचालन करते हुए वरिष्ठ पत्रकार चिन्मय मिश्र ने देश में स्वास्थ और चिकित्सा की दुर्दशा और इसमें हो रही लूट को विभिन्न उदाहरणों से सभागार में रखा खासकर सरोगेसी और महँगी चिकित्सा से वंचित,पीड़ित आम आदमी की व्यथा को।
दूसरे दिन के सत्र में महिला स्वास्थ्य और मीडिया पर चर्चा की गयी। चर्चा में भाग लेते हुए संदीप नायक ने कहा कि मीडिया में महिलाओं के स्वास्थ्य के सवाल को सिर्फ ग्लैमर तक सीमित रखा जाता है। उन्होंने कहा कि कुपोषण तथा अन्य सवाल गौण कर दिए जाते है। पत्रकार अन्नू आनंद ने कहा कि महिलाओं के स्वास्थ्य के नीति आधारित मुद्दे गौण हैं। आज भी प्रसव के लिए ग्रामीण क्षेत्र में महिलाएँ चारपाई पर लाद कर लायी जा रही हैं। उन्होंने नीतियों के स्तर पर बदलाव की बात की। कुमूद सिंह ने विज्ञापन तथा अन्य सवाल उठाए।
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