15.1.16

एक सांस्कृतिक संवाददाता की डायरी : आने वाली समस्त विश्व जनता के लिए विद्या को प्रयोगों से जोड़ें – विद्यानिवास मिश्र

‘ओरियंटल’ शब्द के पीछे एक छल था- उपनिवेशवादियों का । पूरी परंपरा को हाशिये पर ले जाने का यह प्रयास था। कि यह एक “अप्रासंगिक” और  पिछड़ेपन का प्रतीक है। हम जितने अतीत हैं उतने ही अनागत हैं, प्राचीन और अर्वाचीन हैं। आज समय है औपनिवेशिकता के छाप को छोड़कर अपना स्वरूप प्रतिष्ठापित करें। इसलिए मेरी राय है कि इसके नाम में परिवर्तन होना चाहिए-यह बदलाव अध्ययन की दिशा में परिवर्तन का सूचक होगा।


संस्कृत भाषा में निरंतरता रही है। बाजार की दृष्टि से ऊपर उठकर हम विश्व की चरम आवश्यकता पर विचार करते हैं। सृष्टि की आवश्यकता  के लिए इस विद्या की आवश्यकता है। जीवन की परस्पर पूरकता की बात हमने की थी-जिसे आज विज्ञान कह रहा है। वस्तुओं में परस्पर अवलंबन भाव है। सभी विद्याओं का मूल तत्व एकत्व की तलाश है। सब कुछ प्राचीन-वर्तमान ज्ञान ग्राह्य नहीं है। जो हाथ में नहीं आता – उसकी ( उस ज्ञान की ) बराबर तलाश की जानी चाहिए।

विश्व की आवश्यकताओं के साथ हम जितने जागरूक हो सकते हैं- उतने हैं नहीं,  जबकि हमारी परंपरा जागरूक है। जागरूक रहने की है । तप से यह विद्या ‘प्राच्य संस्कृत’ आगे बढ़ी है- संस्थाओं से नहीं। इसके प्रति विश्वास भरिये अपने भीतर........ अभिमान मत करिए । क्योंकि अभिमान की पात्रता हमारे पास नहीं है। जड़ता छोड़कर किसी भी नये चिंतन का – चाहे उत्तर आधुनिकता हो अथवा कोई और आदर करना चाहिए। आधुनिक ज्ञान -विज्ञानं और विचारों को देखना -परखना चाहिए ।

रक्षणीय है, गोपनीय है- के कारण उसकी (संस्कृत) निरंतरता ह्रास की ओर चली गयी। शास्त्रीय चिंतन की निरंतरता सत्य के अन्वेषण की दिशा में कारगर होगी। विद्या स्थानों, अनुशीलन केंद्र बड़ी दयनीय अवस्था को प्राप्त है। इसलिए ज्ञान की निरंतरता, मंथन की धारा को स्थापित करने के लिए कुछ ठोस उपाय किये जाय। पारंपरिक संस्थाओं में भी अंखण्ड दृष्टि से पढ़ाने वाले कम हो रहे हैं। समग्रता में अर्थ ग्रहण करना चाहिए, खण्डश: नहीं।

एक हीन भाव हमें ग्रस्त कर रहा है। जबकि पूरा विश्व हमारी ओर ताक रहा है। स्थूल और सूक्ष्म के परस्पर रूपांतरण, संयोजन में हम विश्वास करते हैं। या तो कभी हम एकदम आत्म सम्मोहन के शिकार होते हैं या लज्जास्पद होते हैं। हम क्यों नहीं प्रयोगों से जुड़ते हैं? आनंद कुमार स्वामी ने कहा था- "पश्चिम के ‘ज्ञान’ (knowledge) और पूर्व की ‘प्रज्ञा’ (wisdom) का  जब तक समागम नहीं होगा तब तक विश्व का कल्याण नहीं होगा।" प्रज्ञा पुश्त दर पुश्त रहती है। इसलिए आने वाली विश्व की समस्त जनता के लिए आप कुछ करेंगे- भले ही आप उसका सुख न ले। यह विश्वास है !

संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी में आयोजित 42 वां 'अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन' में मु.अ. पद से समापन भाषण के महत्वपूर्ण अंश...(06/10/2004)

डायरी : १४ जनवरी २००६  ‘परिस्पंद ’ , वाराणसी

विद्यानिवास मिश्र जयंती के अवसर पर काशीनाथ सिंह

पंडितजी  के  बारे में कुछ भी कहना अपने घर के सबसे बड़े बुजुर्ग के बारे में कहने के बराबर है।  ४५ -५०
वर्ष पहले पंडितजी के दर्शन का सौभाग्य मिला था। लोलार्क कुण्ड वाले घर में ।
‘‘का हो नमवर बांटें  ? ’’
मैंने देखा  ...नामवर को नमवर कहने वाला पहला व्यक्ति देखा।  १९६० से जो सिलसिला शुरू हुआ  ...हमारे परिवार और पंडितजी के बीच वह अंत तक जारी रहा। नामवर से कुछ कहना हो ...मां को कुछ कहलाना हो , भाभी को कुछ कहलाना हो  ...पंडितजी ही माध्यम बनते थे। इसलिए उनके बारे में कुछ भी कहना अपने परिवार के सबसे बड़े बुजुर्ग के बारे में कहना है। मेरा भतीजा विजय उन्हीं के सान्निध्य में उनके घर रहकर पढ़ा । मेरे भीतर उनके लिए जो सम्मान है , मैं कह नहीं सकता।
पंडितजी लोहियावादी थे। उनके चिंतन और सर्जना का विकास क्रम देखा जाना चाहिए । प्रेमचंद के मुकाबले मृदुला श्रीवास्तव को रखना कमियां भी हैं। उनके वैचारिक सौंदर्य का तटस्थ मूल्यांकन होना चाहिए। जो आदमी अज्ञेय , केदारनाथ अग्रवाल ,  केदारनाथ सिंह को एक साथ पसंद करता हो उसको छोटा क्यों बनाएं!
ब्रेस्ट उनके प्रिय कवि थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की अनुपस्थिति में हम उन्हें द्विवेदी जी की कड़ी के रूप में देखते हैं। भविष्य में  १४ जनवरी को सार्वजनिक बनाएं । इस मौके पर बहस, नोंक-झोंक, विमर्श होना चाहिए ।

गोदान विशाल वाद्य वृन्द है -----

नामवर सिंह-

“उपन्यास अगर पाठ ही है, तो मर जायेगा। गोदान में गुठली है। ‘रस’ न हो तो कालजयी कृति हो ही नहीं सकता। युगों-युगों तक गोदान पढ़ा जाता रहेगा तो ‘रस’ के कारण, कलाकृति के कारण। क्योंकि वो वर्णन इतिहास, समाजशास्त्र में भी मिल जाएगा। बंधी-बंधायी विचारधारा के आधार पर न मूल्यांकन किया जाए। रचनाकार की कृति में जो राग बना है, उसको देखें। गोदान का यही बड़प्पन है। सीपीआई, सीपीएम,सीपीआई एमएल वाले अपनी-अपनी विचारधारा ढूंढ़े? गोदान विचारधारा को अतिक्रमित करता है। उसके मर्म को जानने के लिए विचारधाराओं के चक्कर में नहीं पडऩा चाहिए।

‘गोदान’ विशाल वाद्य वृंद्य है। सबने अपना-अपना सुर मिलाया है। जो लोग ‘गोदान’ में केवल दलित विमर्श देखते हैं, स्त्री विमर्श देखते हैं, यह देखना गोदान के टुकड़ों को देखना है। संपूर्ण की उपेक्षा करना है। गाय ‘गोदान’ में यदि रूपक है, प्रतीक है, अनेक आदर्शों का प्रतीक बन जाती है। होरी खुद गाय है। गाय की इच्छा रखने वाला खुद गाय है। गाय जानवर या संपत्ति  नहीं है। उसके मरजाद, आत्मसम्मान का भी सूचक है। गाय के साथ जमीन भी जुड़ा, है, उसके समूचे मनुष्यत्व का प्रतीक है। उस दौर में प्रेमचंद का वह ‘स्वराज्य’ है। उसके सपने का अर्थ हमें खोजना चाहिए। प्रश्न कर रहा हूं...क्या गोदान प्रेमचंद के लिए वही है जो कैपिटल में माक्र्स के लिए ‘मनी’ थी। किस गांधी का उन्होंने अतिक्रमण नहीं किया? ‘गांधीवाद’ नहीं छोड़ा था इसकी और व्याख्या करनी चाहिए। प्रेमचंद को विचारधाराओं के फंडे में न बांधों। प्रगतिशीलों को और सावधानी बरतनी चाहिए।’’   सीनेट हॉल , स्वतंत्रता भवन, बीएचयू, ६-११-२००५ (गोदान को  फिर  सॆ पढतॆ हुए )

Pramod K Pandey
9457267936
pramodsudarshantvacademy@gmail.com

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