11.4.16

ऑपरेशन ‘पर्दाफाश’

सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 के तहत मांगी गयी सूचना के आधार पर वन विभाग कहता है कि नवम्बर 2008 से मार्च 2010 तक हमारी जमीन पर कोई भी वृक्षारोपण कार्यक्रम आयोजित नहीं किया गया, लिहाजा पेड़ों की स्थिति की जानकारी देने का औचित्य ही नहीं उठता। इधर जिस विभाग को वृहद स्तर पर वृक्षारोपण की जिम्मेदारी दी गयी थी उसने वन विभाग की जमीन पर सफलतापूर्वक वृक्षारोपण की जानकारी मय दस्तावेज के शासन के पास भेज दी। गोलमाल का जब खुलासा हुआ तो जांच बिठायी गयी। जांच अधिकारी ने घोटाले की जानकारी तो दी लेकिन कथित भ्रष्टों को बचाने की गरज से गोलमोल जवाब भेजा। इतना ही नहीं जांच अधिकारी ने बिना इजाजत के जांच रिपोर्ट को रिव्यू करके दोबारा भेज दिया जबकि विधि स्थापित नियम है कि कोई भी अधिकारी अपनी जांच रिपोर्ट को रिव्यू नहीं कर सकता। बहरहाल मामला यहीं तक सीमित नहीं रहा। कथित भ्रष्टों ने दोबारा रिपोर्ट बनाकर शासन के पास भेजी। उसमें लिखा गया कि वृक्षारोपण पटना ;कुटकाद्ध पहाड़ी पर रोपित किए गए थे। सर्वविदित है कि पथरीली पहाड़ी पर पेड़ रोपित ही नहीं किए जा सकते। भ्रष्टाचार से जुड़ा यह सारा मामला आईने की तरह साफ हो गया। विभागीय कर्मचारियों और अधिकारियों को बस इंतजार था भ्रष्ट अधिकारियों पर कार्रवाई का। विभागीय अधिकारियों को आश्चर्य तब हुआ जब भ्रष्ट अधिकारियों को सजा देने के बजाए प्रोन्नत कर दिया गया। विभाग के कर्मचारियों को उम्मीद थी कि अखिलेश सरकार के कार्यकाल में इन दोषियों के खिलाफ कार्रवाई हो सकती है। लिहाजा समस्त दस्तावेज अखिलेश सरकार के जिम्मेदार अधिकारियों तक भी पहुंचाए गए। भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का ऐलान करने वाले मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के कार्यकाल में भी भ्रष्टों पर आंच तक नहीं आयी।


दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड के अन्तर्गत विद्युत वितरण खण्ड ललितपुर में कथित भ्रष्ट अधिकारियों का काकस वृक्षारोपण योजना के तहत लाखों रूपए डकार जाता है। सम्बन्धित विभाग से ही सरकारी योजना के धन की लूट की जानकारी मिलती है। मामले की तह तक जाने के लिए जांच बैठायी जाती है। जांच में अधिकारियों को सरकारी योजना के धन में हेरफेर का दोषी पाया जाता है। जांच अधिकारी कार्रवाई के लिए संस्तुति करता है। इतना ही नहीं उच्च स्तर से भी कथित भ्रष्ट अधिकारी के खिलाफ सख्त कार्रवाई के निर्देश दिए जाते हैं। कुछ दिनों तक भ्रष्ट अधिकारियों के सिर पर कार्रवाई की तलवार लटकी रहती है, फिर एकाएक फाइल बंद कर दी जाती है। खास बात यह है कि जिन अधिकारियों को सरकारी योजना के धन में हेरफेर का दोषी पाया जाता है सरकार उसे सजा देने के बजाए पदोन्नत कर देती है। यहां बात हो रही है उत्तर-प्रदेश जल विद्युत निगम लिमिटेड के अधीक्षण अभियंता एस.सी. बुनकर और मुख्य अभियंता (ओ.एड.एम.) उत्तर-प्रदेश एवं तीसरे जांच अधिकारी जल विद्युत निगम लिमिटेड के अशोक राठी की। यहां तक कि इस भ्रष्टाचार को दफन करने में तत्कालीन जिलाधिकारी (ललितपुर) को भी जिम्मेदार ठहराया गया है। श्री बुनकर और राठी के खिलाफ मौजूद दस्तावेज साफ बता रहे हैं कि उन्होंने लाखों पौधों का फर्जी वृक्षारोपण दिखाकर लाखों के सरकारी धन पर डाका डाला है। इधर दोनों अधिकारी ‘साम-दाम-दण्ड-भेद’ की नीति अपनाकर उच्चाधिकारी को प्रभाव में लेने की कोशिश करते हैं। इस योजना में वे काफी हद तक सफल भी हो जाते हैं लेकिन पूर्व की जांच रिपोर्ट को दबाने में वे सफल नहीं हो पाते। पूरे प्रकरण की रिपोर्ट उत्तर-प्रदेश विद्युत मजदूर संघ के हाथ लग जाती है। इसके बाद शुरू होता है अधिकारी के खिलाफ ऑपरेशन ‘पर्दाफाश’। पूर्व मायावती सरकार के कार्यकाल में किए गए इस घोटाले को तत्कालीन मायावती सरकार के कार्यकाल से लेकर वर्तमान अखिलेश सरकार के कार्यकाल तक में दोनों अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की जाती रही। कथित दोषी अधिकारियों के खिलाफ भाजपा के एक सांसद भी मोर्चा खोलते हैं। इतना ही नहीं मायावती सरकार के कार्यकाल (वर्ष 2011) में विधानसभा की कार्रवाई में भी इस मामले को उठाया जाता है। हैरत की बात है कि तमाम दस्तावेजी सुबूतों के बावजूद दोषी अधिकारियों को सजा देना तो दूर उन्हें प्रोन्नत कर घोटाले पर से पर्दा उठाने वालों को हतोत्साहित करने की कोशिश की जाती है। जिस वक्त वृक्षारोपण योजना में घोटाला हुआ उस वक्त श्री बुनकर बुन्देलखण्ड क्षेत्र अन्तर्गत माताटीला जल विद्युत गृह में अधिशाषी अभियंता के पद पर विराजमान थे और घोटाले को संरक्षण देने वाले तीसरे जांच अधिकारी श्री राठी मुख्य अभियंता के पद पर विराजमान थे। घोटाले का खुलासा होने के बाद इन्हें प्रोन्नत कर अखिलेश सरकार में अधीक्षण अभियंता बना दिया जाता है।

इधर कथित भ्रष्ट अधिकारी सरकार के इस रवैये का भरपूर फायदा उठाते हुए घोटाले का पर्दाफाश करने वालों को चुनौती देने लगते हैं। हालांकि हरित क्रांति के लुटेरों का पर्दाफाश करने वालों ने अभी तक हार नहीं मानी है लेकिन सरकार के रवैये से वे बेहद मायूस हैं। इस पूरे प्रकरण का हास्यास्पद पहलू यह है कि जिस स्थान पर माताटीला जल विद्युत गृह के तत्कालीन अधिशाषी अभियंता एस.सी.बुनकर ने वृक्षारोपण कार्य दर्शाया उसी स्थान पर अन्य दो विभागों वन विभाग एवं विद्युत वितरण खण्ड, ललितपुर ने भी वृक्षारोपण के दावे किए जबकि वन विभाग ऐसे किसी भी वृक्षारोपण कार्यक्रम से साफ इंकार कर रहा है।

पूर्ववर्ती मायावती सरकार के कार्यकाल में वर्ष 2008-2009 के बीच बुन्देलखण्ड क्षेत्र में विशेष वृक्षारोपण कार्यक्रम की योजना बनायी गयी। योजना के तहत बुन्देलखण्ड क्षेत्र में वृक्षारोपण योजना के तहत 10 करोड़ पेड़ लगाए जाने थे। इस कार्य के लिए बकायदा बजट भी पास कर दिया गया। जिस वक्त यह योजना बनी उस वक्त आई.ए.एस. अधिकारी आलोक टण्डन (तत्कालीन प्रबंध निदेशक), उप्र जल विद्युत निगम के पद पर थे। विद्युत वितरण खण्ड ललितपुर ने 5 लाख और माताटीला में 3 लाख पेड़ों का लगाया जाना था। फाइलों में वृक्षारोपण कार्यक्रम को सफल बताते हुए करोड़ों रूपयों का वारा-न्यारा हो गया। यह तो भ्रष्टाचार के बाबत चावल का एक दाना मात्र था।

वृक्षारोण कार्यक्रम में लूट-खसोट की सूचना मिलने पर इसकी जानकारी मय दस्तावेज के सम्बन्धित विभाग के उच्चाधिकारियों तक पहुंचायी गयी। आरोप था कि एस.सी. बुनकर (उस वक्त अधिशाषी अभियंता, माताटीला जल विद्युत गृह में पोस्टिंग थी) ने 3 लाख पेड़ों का फर्जी भुगतान करवाकर हड़प लिया। मामला जनपद से होता हुआ राजधानी पहुंचा तो अधिकारियों ने अपनी जान बचाने की गरज से शासन को अवगत कराया कि कोई फर्जी पेड़ नहीं लगाए गए हैं। जब वनाधिकारी से इस बाबत जानकारी हासिल की गयी तो लूट का सारा खेल सामने आ गया। वन विभाग ने शासन को अवगत कराया गया कि किसी भी विभाग की तरफ से कोई भी वृक्षारोपण नहीं किया गया है। अतः जमीन देने का औचित्य ही नहीं। गौरतलब है कि वन विभाग की जमीन पर वृक्षारोपण से पहले विभाग की अनुमति लेना आवश्यक होता है। चूंकि कोई वृक्षारोपण किया ही नहीं गया था लिहाजा वन विभाग को इसकी जानकारी का प्रश्न ही नहीं उठता। इधर भ्रष्टाचार का खुलासा होते ही दस्तावेजों सहित समस्त जानकारी उत्तर-प्रदेश जल विद्युत निगम के तत्कालीन प्रबन्ध निदेशक (आई.ए.एस.) धीरज साहू को (8 अगस्त 2012) पत्र के माध्यम से दी गयी। साथ ही सरकारी योजना में सेंध लगाने वालों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने का भी अनुरोध किया गया। मामले की गंभीरता को भांपते हुए तत्कालीन प्रबन्ध निदेशक धीरज साहू ने ललितपुर के तत्कालीन जिलाधिकारी से वृक्षारोपण से सम्बन्धित आख्या मांगी। जांच में लूट के खेल का पर्दाफाश हो गया। तत्कालीन जांच अधिकारी जिलाधिकारी, ललितपुर एवं श्री बुनकर के खिलाफ लगाए गए आरोपों को सही ठहराया। जब इस घोटाले का पर्दाफाश करने वाले एक विभागीय कर्मचारी ने कार्यवाही सम्बन्धी अभिलेखों की मांग की तो उन्हें कोई जानकारी नहीं दी गयी। इसी बीच तत्कालीन तीसरे जांच अधिकारी एवं मुख्य अभियंता अशोक राठी का एक पत्र शिकायतकर्ता के हाथ लग गया। यह पत्र उसी जांच पर कार्रवाई को लेकर था। चूंकि मामला करोड़ों के गोल-माल का था लिहाजा मुख्य अभियंता श्री राठी ने शासन को भेजे पत्र में यह लिखा, ‘‘जिला प्रशासन द्वारा करायी गयी जांच (2012) के दौरान जांच समिति द्वारा विद्युत उत्पादन खण्ड माताटीला में जिन पौधों का रोपण किया गया था वह इलाका पटना (कुटका) पहाड़ी क्षेत्र में आता है। जांच टीम ने उस स्थान की जांच न करके पहाड़ी के नीचे स्थित वन विभाग/वितरण खण्ड, ललितपुर द्वारा रोपित किए गए पौधों की जांच की थी’’। तत्कालीन मुख्य अभियंता की इसी टिप्पणी ने पूरे घोटाले के कथित दोषी तत्कालीन अधिशाषी अभियंता एस.सी. बुनकर समेत घोटाले के संरक्षक जांच अधिकारी एवं कर्णधार मुख्य अभियंता अशोक राठी पर कार्रवाई होने से बचा लिया। जबकि हकीकत यह है कि जिस पहाड़ी पर पौघो को रोपे जाने की बात कही गयी थी वहां पर पौधे रोपे ही नहीं जा सकते थे। अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर तत्कालीन मुख्य अभियंता ने श्री बुनकर के घोटाले पर पर्दा क्यों डाला ? जानकार सूत्रों का दावा है कि जांच अधिकारी और मुखिया होने के नाते भ्रष्टाचार की समस्त जानकारी तत्कालीन मुख्य अभियंता अशोक राठी को पहले से ही थी। विभागीय कर्मचारियों का कहना है कि लूट में उनका कमीशन भी तय था। लिहाजा बुनकर को बचाने के सिवाए उनके पास कोई और चारा नहीं था। यही कारण है कि शिकायत कर्ता को भी जांच रिपोर्ट में की गयी टिप्पणी से अवगत नहीं कराया गया। इस पूरे प्रकरण में ललितपुर के तत्कालीन जिलाधिकारी को भी दोषमुक्त नहीं किया जा सकता।

उन्होंने दोषियों को  बचाने की गरज से दूसरी जांच रिपोर्ट तैयार कर शासन के पास भेजी जबकि नियमानुसार कोई भी अधिकारी अपनी जांच रिपोर्ट को रिव्यू नहीं कर सकता। जांच रिपोर्ट रिव्यू करने का अधिकार नहीं है। मंडलायुक्त और मुख्य सचिव ही यह जांच कर सकते हैं। इस प्रकरण में ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। कहा जाता है कि लूट की रकम में हिस्सेदारी की चाहत ने बड़े-बड़ों के इमान डिगा दिए। इन परिस्थितियों में यदि यह कहा जाए कि वृक्षारोपण के नाम पर करोड़ों की लूट में तत्कालीन मुख्य अभियंता अरूण कुमार से लेकर जांच का दायित्व संभालने वाले तत्कालीन जिलाधिकारी भी शामिल थे तो कोई गलत नहीं होगा।

इधर शिकायतकर्ता ने हाल ही में 9 मार्च को (पत्रांक संख्या 091/एडवोकेट/2015) उत्तर-प्रदेश जल-विद्युत निगम लिमिटेड/उत्तर-प्रदेश राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड के प्रबंध निदेशक संजय प्रसाद को लूट के इस पूरे खेल को अंजाम देने वालों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कर कार्रवाई की मांग की है। साथ ही लूट में मुख्य भूमिका निभाने वाले और वर्तमान अधीक्षण अभियंता (उत्तर-प्रदेश जल विद्युत निगम लिमिटेड) एस.सी.बुनकर को बचाने वाले तत्कालीन मुख्य अभियंता अशोक राठी को तत्काल प्रभाव से निलम्बित करने की मांग की है। साथ ही लूट की रकम की रिकवरी कराए जाने की मांग भी की गयी है। लुटेरों के खिलाफ कार्रवाई की मांग उत्तर-प्रदेश के महामहिम राज्यपाल, मुख्य सचिव आलोक रंजन से भी की गयी है।

क्या कहती है जांच रिपोर्ट
भारतीय मजदूर संघ से सम्बद्ध उत्तर-प्रदेश विद्युत मजदूर संघ के महामंत्री, (जल विद्युत इकाई) के एक शिकायती पत्र (दिनांक 8 अगस्त 2012) पर केन्द्रित जांच का कार्य ललितपुर के तत्कालीन अपर जिलाधिकारी महेश प्रसाद ने किया। महेश प्रसाद ने प्रबंध निदेशक, उत्तर-प्रदेश जल विद्युत निगम लिमिटेड, लखनऊ को भेजी अपनी रिपोर्ट (1 सितम्बर 2012) में लिखा है कि उक्त प्रकरण की जांच के लिए दो टीमें गठित की गयी थीं। प्रथम टीम में जिला विकास अधिकारी (ललितपुर) और द्वितीय टीम में परियोजना निदेशक (डी.आर.डी.ए. ललितपुर) एवं उप प्रभागीय वनाधिकारी, महरौनी से कराई गयी। 31 अगस्त 2012 को जांच आख्या भी उपलब्ध हो गयी थी। जांच आख्या के अनुसार ग्राम डोगरा खुर्द परियोजना में 50 हेक्टेयर क्षेत्र में 35 हजार पौधों के रोपण के लिए जल विद्युत निगम माताटीला ने योजना तैयार की थी। विभाग द्वारा उपलब्ध कराए गए अभिलेखों के अनुसार मे. सचिन्द्र कुमार जैन, माताटीला रोड, तालवेहट को इस परियोजना में कार्य करने के लिए आदेशित किया गया था। परियोजना के तहत निर्धारित संख्या से अधिक पौध रोपित किए गए थे। जिसमें से 26377 पौधों को जीवित और 8792 पौधों को मृत दिखाया गया। इसी विवरण के अनुसार तत्कालीन अवर अभियंता कमलेश कोली के वीरेन्द्र फारेस्टर को उपरोक्त सम्पत्ति 24 दिसम्बर 2008 को हस्तांरित कर दी थी। रोपित पौधों का अनुरक्षण एक वर्ष तक सम्बन्धित फर्म को करना था। इस परियोजना में सागौन, शीतल और अर्जुन के पेड़ लगाए गए थे। कार्यस्थल पर बोना नाली खोदे जाने की बात कही गयी है लेकिन नाली पर कोई पौधे नहीं पाए गए थे। रिपोर्ट में कहा गया था कि पानी की उचित व्यवस्था, निराई, गुड़ाई, वाचर और सुरक्षा खाई की व्यवस्था न होने के कारण अधिकतर पौधे सूख गए हैं। वर्तमान में 10 से 12 प्रतिशत पौधे ही बचे हैं। हास्यासपद पहलू यह है कि एक तरफ तो वन विभाग ऐसी किसी प्रकार की योजना से परिचित नहीं है। वन विभाग का तो यहां तक कहना है कि जब उसने जमीन ही नहंी दी तो पौधे कहां से लग गए ? ऐसा ही कुछ पटना (कुटका) में देखने को मिला। उपलब्ध अभिलेखों के अनुसार इस स्थान पर मे. भूपेन्द्र कुमार, 18 हींगन, कटरा, झांसी को कार्य के लिए आदेशित किया गया था। परियोजना के तहत 20 हजार 183 पौधों के रोपे जाने की बात कही गयी थी। जांच के दौरान 15137 पौधों को जीवित और 5046 पौधों को मृत बताया गया था। जांच रिपोर्ट में कहा गया है कि यहां भी उपरोक्त अव्यवस्था के चलते मात्र 10 प्रतिशत पौधे ही जीवित बचे हैं। जांच अधिकारियों द्वारा सत्यापित की गयी यह जांच रिपोर्ट ही अपने आप में झूठ की कहानी बयां कर रही है। गौरतलब है कि परियोजना के तहत 20 हजार 183 पौधों को रोपे जाने की बात कही गयी थी। साथ ही 5046 पौधों को मृत दर्शाया गया। यदि 5 हजार पौधों को मृत मान भी लिया जाए तो जीवित पौधों की यह संख्या 15 हजार के आस-पास होती है। जोकि रिपोर्ट में भी कहा गया है। अंत में मात्र दस प्रतिशत पौधों के जीवित होने की बात कही जा रही है। यदि औसत 20 हजार पौधों में दस प्रतिशत जीवित पौधों की बात मानी जाए तो यह संख्या लगभग 2 हजार से ज्यादा नहीं होनी चाहिए थी लेकिन रिपोर्ट में जहां एक ओर जीवित पौधों की प्रतिशत में संख्या दस बतायी जा रही है वहीं दूसरी ओर आंकड़ों में जीवित पौधों की संख्या 15 हजार से भी ज्यादा यानि लगभग 75 प्रतिशत पौधों के जीवित होने का दावा किया जा रहा है। इसी तरह से अन्य इलाकों में भी पौधों के रोपण से लेकर उनकी रखवाली तक में करोड़ों रूपए पानी की तरह बहा दिए गए लेकिन पौधों का नामो-निशान तक नहीं है।

सरकारी आंकड़े चौंकाने वाले हैं
बुन्देलखण्ड की सूरत संवारने के लिए सरकार के पास जो आंकड़े मौजूद हैं वे ही आपस में विरोधाभासी हैं। जनपद बांदा, चित्रकूट, हमीरपुर, महोबा, मथुरा, भदोही, मैनपुरी में प्रादेशिक/राष्ट्रीय राजमार्गों के किनारे लगाये गये वृक्ष एवं काटे गये वृक्षों में बताये गये आंकड़े सन्देहास्पद हैं। वहीं महोबा जनपद ने सूचना ही नहीं दी। साफ जाहिर है कि वृक्षारोपण के नाम पर यहां भी व्यापक स्तर पर करोड़ों का खेल खेला गया है। प्राप्त जानकारी के मुताबिक बुन्देलखण्ड के चित्रकूट धाम मण्डल वाले चार जनपदों में वर्ष 2000 से 2010 तक राजमार्गों के किनारे किये गये वृक्षारोपण में कुल 9 अरब रूपये खर्च किये जा चुके हैं और प्रशासन का दावा है कि 52 प्रतिशत वृक्षों को सुरक्षित रखा गया है। कुल प्राप्त बजट का 25 प्रतिशत सिंचाई पर व्यय होता है। स्वैच्छिक संगठनों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं के मुताबिक वर्ष 2008-2009 में मनरेगा योजना के विशेष वृक्षारोपण अभियान में दस करोड़ पौधे बुन्देलखण्ड के सात जनपदों में लगाये गये थे। उन्हें भी बचाया नहीं जा सका। जाहिर है राजमार्गों के किनारे खर्च किये गये 9 अरब रूपये भी फर्जी प्रशासनिक आंकड़ों के सिवा कुछ नहीं है। वर्ष 1887 से 2009 तक 17 सूखे और 2007 से वर्ष जून 2011 तक 9 मर्तबा बुन्देलखण्ड की धरती अलग-अलग जगहांे पर 350 मीटर से 700 फिट लम्बी फट चुकी है। जिसे भूगर्भ वैज्ञानिक और पर्यावरण कार्यकर्ता लगातार सूखा, जंगलों के विनाश और जलदोहन की वजह से जमीन के अन्दर आये ‘गैप’ को बता रहे हैं। वहीं ग्रेनाइट उद्योग से खनन माफियाओं द्वारा खदानों से पम्पिग सेट लगाकर जमीन का पानी बाहर फेंकने से भी जमीन फटने की घटनाओं में इजाफा हुआ है।

लकड़हारों की करतूतें
स्थानीय निवासियों का दावा है कि बुन्देलखण्ड की धरती पर जिस किसी अधिकारी ने कदम रखे ;यदि कुछ को अपवाद मान लिया जाएद्ध उसी ने कमीशन के चक्कर में बुन्देलखण्ड को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। स्थानीय प्रशासन के जिम्मेदार अधिकारियों से लेकर वन विभाग के जिम्मेदार अधिकारियों ने सुविधा शुल्क के रूप में मोटी रकम लेकर दबंग छवि के लकड़हारों को जंगल पर कुल्हाड़ी चलाने की खुली छूट दे दी। परिणामस्वरूप तमाम प्रयासों के बावजूद जंगल को लगातार नष्ट होने से बचाया नहीं जा पा रहा है। कार्रवाई के नाम पर छोटे लकड़हारों पर कार्रवाई की तलवार चलायी जाती है जबकि ट्रैक्टर और ट्रॉली से जंगलों का सफाया करने वाले बाहुबली लकड़हारों को छुआ तक नहंी जाता। ज्ञात हो उत्तर प्रदेश वृक्ष संरक्षण अधिनियम 1976 के अन्तर्गत जनपदों में वृक्ष स्वामी को भी जमानत राशि अदा करने के बाद ही वृक्ष काटने की अनुमति दी जाती है। यह जमानत इसलिए तय की जाती है ताकि नियमानुसार वृक्ष काटने वाला काटे गये वृक्ष के स्थान पर दो पौधे रोपित करे। बकायदा इसका प्रमाण पत्र 15 दिनों में प्रभागी वन अधिकारी को दिखाना पड़ता है तभी जमानत राशि वापस मिलती है। गौरतलब है कि हाईकोर्ट लखनऊ की खण्डपीठ ने एक अहम आदेश में प्रदेश से होकर गुजरने वाले राष्ट्रीय/प्रादेशिक राजमार्गों के किनारे काटे गये और उनकी जगह लगाये गये वृक्षों का ब्यौरा मायावती सरकार के कार्यकाल में 18 जून 2010 को तत्कालीन प्रमुख सचिव वन संरक्षक से तलब करते हुए पूछा था कि राजमार्गों के किनारे वृक्षारोपण के लिये राज्य सरकार के पास क्या प्रस्ताव है? न्यायमूर्ति देवी प्रसाद सिंह व योगेन्द्र कुमार संगल की ग्रीष्म अवकाशकालीन खण्डपीठ ने लखनऊ की एक संस्था द्वारा दाखिल पी.आई.एल. पर यह सवाल याची की उस प्रार्थना पर किया था जिसमें उसने काटे गये पेड़ों के स्थान पर उसी प्रजाति के वृक्ष लगाने की याचिका में मांग की थी।

पौधों की सुरक्षा में भी घोटाला
गौरतलब है कि 27 अगस्त 2008 को दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड ने पौधों की सुरक्षा के लिए जो निर्देश दिए थे उसके मुताबिक जमीन के चारों ओर एक सुरक्षा नाली, जिसकी ऊंचाई 1.2 मीटर, निचली चौड़ाई 0.9 मीटर और गहराई 1.00 मीटर बनाए जाने के निर्देश दिए थे। निर्देश में साफ कहा गया था कि पौधों की सुरक्षा के लिए इन मानकों को अविलम्ब पूरा कर लिया जाए। इतना ही रोपित पौधों की सुरक्षा के लिए उसके ऊपर बबूल के कांटों वाली झाड़ियां लगायी जाएं ताकि जानवर पौधों को नुकसान न पहुंचा सकें। सूख चुके पौधों के स्थान पर नए पौधे लगाने के आदेश भी जारी किए गए थे। पौधों की सुरक्षा की दृष्टि से साफ निर्देश थे कि जिन पौधों को 2 फिट से कम ऊंचाई पर लगाया गया है उन्हें निर्धारित ऊंचाई पर लगाया जाए। पौधों की सुरक्षा के लिए इसी तरह के लगभग आधा दर्जन निर्देश जारी किए गए थे। इस कार्य के लिए बकायदा 24 लाख 20 हजार रूपयों का बजट भी पास किया गया था। इसके बावजूद जांच के दौरान मात्र दस प्रतिशत पौधों को ही जीवित बताया जाना भ्रष्टाचार की ओर साफ इशारा कर रहा है।

भाजपा सांसद ने भी उठाया था मुद्दा
भाजपा सांसद भानु प्रताप सिंह वर्मा ने भी भ्रष्टाचार के इस मुद्दे पर सवाल उठाते हुए जांच की मांग की थी। उन्होंने बकायदा सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 का सहारा लेते हुए सूचनाएं मांग कर भ्रष्टाचार का खुलासा किया था। 28 जुलाई 2012 में क्षेत्रीय वनाधिकारी, गौना रेंज ने जो जानकारी उन्हें दी, उसके मुताबिक किसी भी विभाग ने उनके क्षेत्र में नवम्बर 2008 से मार्च 2010 तक किसी प्रकार का वृक्षारोपण ही नहीं कराया था। यहां तक कि उस दौरान वन विभाग ने भी कोई वृक्षारोपण नहीं कराया था। क्षेत्रीय वनाधिकारी ने जानकारी देेते हुए बताया है कि किसी ठेकेदार ने भी किसी तरह का वृक्षारोपण कार्यक्रम उनकी भूमि पर नहीं चलाया। वन विभाग से सूचना के अधिकार के तहत जब यह पूछा गया कि रखरखाव के अभाव में कितने पेड़ बचे हैं तो उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा कि ‘जब वृक्षारोपण कार्यक्रम हुआ ही नहीं, तो कितने पेड़ बचे हैं ? इस सवाल का कोई औचित्य ही नहीं होता। वन विभाग ने जानकारी देते हुए साफ लिखा है कि वन विभाग की जमीन पर उपरोक्त अवधि में किसी प्रकार का वृक्षारोपण कार्यक्रम हुआ ही नही।

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