3 महीने में ऋणग्रस्त 116 किसानों ने की खुदकुशी तो पूर्व सैनिक हैं संसद की चौखट पर आन्दोलनरत... प्रभावशाली लोगों को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को लूटने की खुली छूट और सरकारी संरक्षण.. जरा सोचिए, आज देश की तस्वीर इसके कर्णधारों द्वारा कितनी भयावह बना दी गई है। एक तरफ देश के कृषक व रक्षक कष्ट झेलने को विवश कर दिये गये हैं तो दूसरी ओर कुछ लोग जनता के गाढ़े पसीने की कमाई को दोनों हाथों लूट कर मौज कर रहे हैं। देश में एक तरफ जहाँ किसान लगातार आत्महत्या किये जा रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर पूर्वसैनिक अपनी कुछेक मांगों को लेकर आन्दोलन को विवश हैं। जिस देश के किसानों तथा सैनिकों के हितों की अनदेखी की जाती हो और गिनती भर लुटेरे सरकारी संरक्षण में बैंकों में जमा लोगों की कमाई पर न केवल मौज कर रहे हों, बल्कि लिये गये ऋण को लौटाते भी न हों उस देश का भला कैसे हो सकता है?
देश में खेती-किसानी की कैसी दुर्दशा बना दी गई है, इसका पता खेती से जुड़ी समस्याओं के कारण इस साल अभी तक 116 किसानों द्वारा की गई आत्महत्याओं से चलता है। सब तरफ से निराश किसानों की खुदकुशी के मामले महाराष्ट्र में सबसे अधिक सामने आये हैं, उसके बाद पंजाब और तेलंगाना के किसानों ने असमय मृत्यु को गले लगाया।
केन्द्रीय कृषि राज्यमंत्री कुंदरिया ने मंगलवार को लोकसभा को बताया कि साल 2015 में खेती से जुड़ी दिक्कतों के कारण कुल 2,000 किसानों की आत्महत्या के मामले सामने आए थे। इनमें से सबसे ज्यादा 1,841 मामले महाराष्ट्र से थे। सरकार की तरफ से जो आंकड़ा पेश किया गया उसमें कहा गया कि इस साल 29 फरवरी को महाराष्ट्र में किसानों की खुदकुशी के 57 मामले सामने आए जबकि पंजाब में 11 मार्च को 56 खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या की। मंत्री ने बताया कि तेलंगाना में इस तरह के तीन मामले सामने आए। उनके अनुसार इन सभी राज्यों को मिलाकर इस साल पिछले तीन महीनों के दौरान अभी तक 116 किसान और खेतिहर मजदूर आत्महत्या कर चुके हैं। एक सवाल के जवाब में सरकार ने जवाब दिया कि साल 2014 में आत्महत्या करने वाले 2,115 किसानों में 1,163 भारी कर्ज में डूबे थे और बाकी फसल बर्बाद होने से दुखी थे। महाराष्ट्र में आत्महत्या करने वाले 1,207 किसानों में 857 किसान ऋण से परेशान थे।
उन्होंने कहा कि सरकार किसानों को सूखे के असर से बचाने, उनकी मदद करने और आत्महत्याओं का यह सिलसिला रोकने के लिए कदम उठा रही है जिसमें राहत पैकेज के अलावा डीजल और बीज के लिए अनुदान और मनरेगा के तहत 50 अतिरिक्त दिनों का रोजगार देना शामिल है। खरीफ व रवि फसलों के दौरान सूखे से प्रभावित (उत्तराखण्ड को छोड़ कर अन्य) 10 राज्यों के लिए सरकार ने 12,773.34 करोड़ रुपये का राहत पैकेज मंजूर किया है। उल्लेखनीय है कि उत्तराखण्ड के अलावा कर्नाटक, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, झारखंड और राजस्थान सूखे की समस्या से जूझ रहे हैं।
यहाँ एक बात ध्यान देने की है कि सूखा या बाढ़ जैसे प्राकृतिक कारणों से देश की खेती-किसानी को नुकसान हर साल नहीं होता। जबकि सरकारी गलत नीतियों के कारण देश की अधिसंख्य आबादी को रोजगार देने वाला तथा भारत को कृषि प्रधान बनाने वाला यह व्यवसाय चौपट हो गया है। एक ओर बीज, उर्वरक, सिंचाई, कृषि उपकरण, मजदूरी, परिवहन, कीटनाशक तथा कृषि-कर्म से जुड़े अन्य क्षेत्रों में महंगाई चरम पर होने से फसलों का उत्पादन मूल्य लगातार बढ़ता जा रहा है तो दूसरी तरफ किसान को उसकी उपज का लागत मूल्य भी नहीं मिल पाता। पूंजीपतियों की पक्षधर सरकारी नीतियों तथा शक्तिशाली बाजारू ताकतों के आगे बेबश किसान को अपनी उपज औने-पौने दामों बेचने को मजबूर होना पड़ता है क्योंकि देश के नीति नियंताओं द्वारा किसान का हाल आमदनी अठन्नी खर्चा रुपया वाला बना दिया गया है। आजादी के सात दशकों के बाद भी किसान द्वारा अपनी उपज का मूल्य स्वयं निर्धारित करने की व्यवस्था न बना पाना देश के कर्णधारों की अदूरदर्शिता ही नहीं बल्कि उनकी सबसे बड़ी अयोग्यता है। मूर्ख शासकों ने लालची मुट्ठी भर उद्योगपतियों के बहकावे में आकर और उनसे सांठ-गांठ कर कृषि की अपेक्षा उद्योगों को बढ़ावा देकर देश की अर्थ-व्यवस्था को रातों-रात सातवें आसमान पर पहुँचा देने के सपने देश की जनता को दिखाये। नेताओं तथा उद्योगपतियों की कुटिल चालों ने ही इस कृषि-प्रधान देश को न केवल भारी विदेशी कर्ज में डुबो दिया बल्कि यहाँ के अन्नदाता किसान को आत्महत्या करने को मजबूर कर दिया।
वर्तमान राष्ट्रीय परिदृश्य पर गौर करें तो हालात बहुत ही गंभीर दिखाई दे रहे हैं। जिसमें एक तरफ भारी ऋण के बोझ से दबे किसान मजबूरी में आत्महत्या कर रहे हैं तो दूसरी तरफ बैंकों में जमा जनता की गाढ़े पसीने की कमाई पर असरदार लोगों द्वारा मौज तथा उसकी लूट जारी है जिसमें सिर्फ बीते तीन साल के दौरान ही सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को प्रभावशाली लोगों ने एक लाख 14 हजार करोड़ रुपए का चूना लगा दिया। बैंकों ने उनसे यह रकम वसूलने को सख्त कानूनी कार्रवाही करने की अपेक्षा ऋण राशशि बट्टे खाते में डाल दी।
सार्वजनिक क्षेत्र के 28 बैंकों ने वित्तीय वर्ष 2013 से 2015 के दौरान 1.14 लाख करोड़ रु की रकम ‘राइट ऑफ’ कर दी यानी बट्टे खाते में डाल दी। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो उन्होंने यह मान लिया कि अब इस रकम की वसूली नहीं हो सकती। बैंकों का ऐसा करना कोई नई बात नहीं है। आइडीबीआइ. बैंक ने 2009 में विजय माल्या की कंपनी किंगफिशर एयरलाइंस को नेगेटिव क्रेडिट रेटिंग के बाद भी 950 करोड़ रुपए का लोन दे दिया था। बैंक ऑफ इंडिया ने बीते छह साल के दौरान 41 हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा की रकम बट्टे खाते में डाली है।
पिछले तीन साल के दौरान बैंकों ने न केवल 1.14 लाख करोड़ रुपए की रकम बट्टे खाते में डाली है बल्कि उनके फँसे हुए ऋण का आंकड़ा भी लगातार बढ़ता गया है। रिजर्व बैंक के अनुसार मार्च 2012 में खत्म हुए वित्तीय वर्ष में इस तरह के ऋण का आंकड़ा 15,551 करोड़ रुपए था लेकिन अगले तीन साल के दौरान यानी मार्च 2015 तक यह तीन गुना से भी ज्यादा होकर 52,542 करोड़ रुपए हो गया। इस तरह की खबरों का संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में रिजर्व बैंक को निर्देश दिया था कि वह उसे उन लोगों के नाम बताए जिन्होंने बैंकों की 500 करोड़ रुपए से ज्यादा की रकम डकार ली और जो इसके बाद भी ऐशो आराम की जिंदगी जी रहे हैं।
कुछ समय पहले आई खबरों के मुताबिक मोदी सरकार एक ऐसेट रीकंस्ट्रक्शन एजेंसी (एआरए) बनाकर गैर निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) को उसके हवाले कर देगी ताकि बैंक अपनी मुख्य कारोबारी गतिविधि यानी कर्ज देने पर ध्यान केंद्रित कर सकें। रिजर्व बैंक के मुखिया रघुराम राजन बार-बार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की गिरती सेहत पर चिंता जता रहे हैं। बीते कुछ समय से बैकिंग क्षेत्र में सुधारों की सुगबुगाहट चल रही है। इसमें एआरए का गठन और छोटे बैंकों का बड़े बैंकों में विलय शामिल है। लेकिन इसकी गारंटी किसी के पास नहीं कि जो छोटे बैंक अभी अच्छा कारोबार कर रहे हैं, बड़े बैंकों में विलय के बाद उनकी भी वही दुर्गति हो जायेगी जो सार्वजनिक क्षेत्र के इन 28 बैंकों की कर दी गई है। जबकि देश के आर्थिक स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए भ्रष्ट नेता-उद्योगपति-नौकरशाहों की तिकड़ी द्वारा सांठ-गांठ कर दोनों हाथों की जा रही लूट रोकने को प्रभावी ढांचा विकसित करने की नितांत आवश्यकता है।
श्यामसिंह रावत
वरिष्ठ पत्रकार
ssrawat.nt@gmail.com
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