मजीठिया वेजबोर्ड के अनुसार वेतन का डिफरेंस दिलवाने के इकलौते (29-08-16) दावे को उत्तराखंड के " काबिल श्रम विभाग ने पीठासीन अधिकारी, श्रम न्यायालय के हवाले कर दिया। बताते चलें कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पालन कराने की कौन कहे। उत्तराखंड का श्रम विभाग इसे औद्योगिक विवाद मान बैठा और तीन-चार तारीख लगाने के बाद श्रम न्यायालय के हवाले कर अपने कर्तव्य की "इतिश्री" कर ली। श्रम विभाग ने अब गेंद न्यायपालिका के हवाले कर दिया। अब देश की सबसे बड़ी अदालत के फैसले की समीक्षा जिला स्तर की अदालत करेगी। यानी साल-छह महीने मामला श्रम न्यायालय में चलेगा, फैसला आएगा, उस फैसले के खिलाफ मेरे नियोक्ता हाईकोर्ट जाएंगे। हो सकता है कि दो-तीन साल वहां लग जाए और जब फैसला आये तो कोई एक पक्ष सुप्रीम चला जाए। तो क्या सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले की जिसके अवमानना का मामला दो साल से चल रहा है।
गौरतलब है कि उत्तराखंड के श्रम विभाग ने मेरा मामला श्रमजीवी पत्रकार एवं अन्य समाचार पत्र कर्मचारी (सेवा की शर्त) और प्रकीर्ण उपबंध अधगनियम, 1955 की धारा 17 की उपधारा (2) सपठित उत्तरांचल (उ.प्र. औद्यौगिक विवाद अधिनियम 1947) अनुकूलन एवं उपांतरण आदेश 2002 द्वारा अनुकूलित एवं उपांतरित उ.प्र. औ.वि अधि. 1947 की धारख 4-k के अंतर्गत प्रतिनिधायित राज्य सरकार द्वारा प्रयुक्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए किया है।
यहां यह मौजू है कि श्रम विभाग ने इतनी "भारी-भरकम" शक्ति ब्रह्मास्त्र" का सदुपयोग इसलिए किया कि मेरे नियोक्ता " सहारा इंडिया मास कम्युनिकेशन " ने सहायक श्रम आयुक्त की शक्तियों को ही चुनौती दे डाली। सहारा प्रबंधन ने मेरे पद और उसके अनुरूप दावा की गयी धनराशि को ही गलत नहीं बताया बल्कि अपने पत्र में यह भी कहा कि उसे इस मामले को सुनने का अधिकार ही नहीं है। अब नियुक्त प्राधिकारी/सहायक श्रम आयुक्त को मेरा मामला सुनने का अधिकार है या नहीं यह तो मालूम नहीं पर श्रम न्यायालय के हवाले मामला श्रम विभाग ने किया है और सहायक श्रम आयुक्त को मामला श्रम आयुक्त उत्तराखंड ने सौंपा है। अब प्रदेश के सभी जिलों के मामले श्रम आयुक्त तो सुनेंगे नही वे किसी न किसी सक्षम अधिकारी को नियुक्त करेंगे ही। रही क्लेम के धनराशि और पद की बात तो क्लेम की धनराशि सीए द्वारा दर्शायी गयी है। हो सकता है कि धनराशि गलत हो तो मेरे नियोक्ता को भी तो यह बताना चाहिए कि " मेरे हिसाब से इनका बकाया इतना है। जो कि उन्होंने बताया नही बल्कि सहायक श्रम आयुक्त के अधिकार को ही चुनौती दे डाली।
अब संक्षेप में अपना पक्ष रख रहा हूं। मजीठिया के अनुसार वेतन व अंतर का बकाया हासिल करने के लिए कहा गया कि इसके लिए दावा पेश करना ही पड़ेगा। इसके लिए एक्सपर्ट की शरण में जाना पड़ेगा। औरों की तरह मैं गया और लोगों को जाने के लिए प्रेरित किया। एक्सपर्ट ने नियुक्ति पत्र व 2011-2016 की वेतन पर्ची मांगी और क्लेम का विवरण भेज दिया। श्रम विभाग का कहना है कि किसी भी दावे में किसी तरह का विवाद होता है तो हम श्रम न्यायालय में भेजेंगे ही। बहरहाल, श्रम विभाग ने गेंद श्रम न्यायालय के पाले में डाल दी है। मित्रों जब मैंने अपनी मुंडी ओखली में डाल ही दी है तो धमक से काहे को डरना"। मैंने ये बातें आपसे इसलिए साझा की कि आप सावधान हो जाइए।
अरुण श्रीवास्तव
देहरादून
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