यह कोई ‘धर्म’ नहीं था, एक ‘जीवन पद्धति’ थी जिसे उस ज्योग्राफिकल एरिया में रहने वाले सभी लोगों ने एकराय से अपनाया था. जिसे अपनाना मजबूरी थी उनकी. अस्तित्व बचाने के लिए यह ‘जीवन पद्धति’ अपनानी पड़ी.
मगर अफ़सोस कि जिनको वह सब अपनाना मजबूरी नहीं था वो भी ‘जड़मति’ होने के कारण अपनाते चले गए. एक-एक बात पर गौर करते हैं – सऊदी अरब के रेतीले, धूल भरे माहौल में खुद को बचाये रखने के लिए पूरे शरीर को कवर किया जाना अति आवश्यक था. जिसके लिए पुरुषों ने ‘लबादा’ (Thawb) जैसे वस्त्र में खुद को छिपाया और अपनी ‘जननियों’ को ‘बुर्के’ के अंदर महफूज़ रखा.
कुछ अल्पबुद्धि लोग ‘जनानियां’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं. जबकि सही शब्द है ‘जननियां’ अर्थात ‘माताएँ’ ‘बहनें’. धूल भरी आंधी चलने पर ऊंट तो अपना बचाव कर लेता था चूँकि क़ुदरत ने उसे बनाया ही इस ढंग से था. मगर मानव ने अपने आप को चारों ओर से कपड़े से लपेटना मुनासिब समझा. इस प्रकार थावब (Thawb) व बुर्के (Burqa) का प्रादुर्भाव हुआ.
आपने एक बात और गौर की होगी. सभ्य समाज़ के लबादे व बुर्के का रंग सफ़ेद होता है जो कि विज्ञान सम्मत है. सफ़ेद रंग ऊष्मा का अवशोषण कम करता है. सऊदी समाज़ के बुर्कों या लबादों को देखिये झक सफ़ेद मिलेंगे. ये काला बुर्का या लबादा तो बिलकुल भी तर्कसंगत नहीं है. हाँ शायद कुछ गरीब लोगों ने बार-बार धोने के झंझट से बचने के लिए इसे काला रंग जरूर दे दिया होगा. बेचारे मुफ़लिस….
अब आते हैं ‘वज़ु’ पर. उनका वज़ु और हमारा ‘पंचमस्नान’. प्रार्थना करने से पहले शुद्धिकरण आवश्यक है. चूँकि अरब देशों में पानी की भारी किल्लत थी तो उन्होंने ‘गुसल’ अर्थात ‘पूर्ण स्नान’ करने के बज़ाय ‘वज़ु’ अर्थात ‘अर्धस्नान’ करने की वक़ालत की. उस भूभाग के लिए यह उचित भी था कि शुद्धि भी हो जाए और पानी भी कम ख़र्च हो. मगर मेरी प्यारी भेड़ों आपके पास तो पानी की कमी नहीं है ना. तो ‘गुसल’ करो ना. क्या ‘वज़ु’ ‘वज़ु’ लगा रखी है!!!
अब आते हैं ‘जलाने’ व ‘दफ़नाने’ पर. अरब देशों में मुर्दा ज़िस्म को दफ़नाने की प्रथा ने क्यों जन्म लिया? वहां जलाने के लिए लकड़ी थी ही नहीं. दूर दूर तक बस रेत ही रेत. लकड़ी कहाँ से लाए? तो चलो भाई कुछ तो करना ही है इस मुर्दे का. तो ज़मीन में ही दबा देते हैं. उनके पास ज़मीन की कमी नहीं थी. उनके लिए यह ठीक था मगर जिनके पास लकड़ियाँ प्रचुर मात्रा में है और ज़मीन है कम तो जलाना बेहतर. जलाया जाना वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ज्यादा बेहतर भी है. एनी वे उनकी मज़बूरी थी दफनाना, हमारी नहीं.
अब आते हैं एक साथ एक ही थाली में भोजन करने का फलसफा. पानी था नहीं. खाने के इतने बर्तन कैसे साफ़ होंगे? तो एक काम करो माल रखो बीच में और चारों तरफ बैठ जाओ और जीम लो. हो गया काम एक ही थाली में. उनकी तो मज़बूरी थी. हमारी तो नहीं है. तो खाओ ना भाई आराम से. क्यों लक़ीर पीट रहे हो!
अब आते हैं बहुपत्नी प्रथा पर. चिकित्सीय सुविधाएँ थी नहीं. अब जीना मरना तो लगा ही रहता है. तो अगर कोई बेवा हो गई तो क्या किया जाए? चलो भाई इसको किसी के साथ बैठा दो. मंतव्य बहुत अच्छा था. मगर आरम्भ हुआ था बेसहारा को सहारा प्रदान करने के लिए मगर दिमाग़ तो बस अपने फ़ायदे और मज़े की सोचता है ना तो भरतवंशी सरकारी बाबु की तरह.
नियम को अपने फेवर में पढ़ लिया. बहु पत्नी रखूँगा भाई. मुहम्मद साहब बोल कर गए. अरे मूढमति उन्होंने तो किसी बेवा को सहारा देने का प्रावधान किया था. तूने तो अपने वास्ते हूरों का जुगाड़ कर लिया इस जहाँ में भी और अगले जहां में तो 72 मिलेंगी ही.
अब आते हैं ‘खतना’ और ‘खफद’ पर. अरब देशों में पानी की भारी किल्लत को मद्देनजर रखते हुए इस प्रथा का प्रारब्ध हुआ. पानी की कमी के बावजूद जननांगों की साफ़ सफाई व उनमें कोई संक्रमण ना हो यह ध्यान में रखते हुए ‘खतना’ या ‘खफद’ के चलन ने जोर पकड़ा. मगर यहाँ तो ऐसा कुछ नहीं है भाई. दिन में दस बार धो लो या नहा लो.
क्यों दिमाग का दही करने पर तुले हो? समझ पैदा करो या बस बच्चे ही पैदा करते रहोगे!!!!!! वो तो मज़बूर थे अपनी भौगौलिक परिस्थिति के कारण. तुम तो शुक्र मनाओ कि भारत जैसे साधन संपन्न राष्ट्र में जन्म हुआ है तुम्हारा. मगर तुम हो कि रेत की उस चारदीवारी से बाहर ही नहीं निकलना चाहते हो. देख लेना बहुत शीघ्र ही ये रेत की दीवारें भर-भरा कर बस गिरने ही वाली हैं. इंशा अल्लाह.
Subodh Ranawat
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