14.10.17

अब मुझे वो पत्रकार नहीं दिखता (कविता)

ये मेरी एक रचना है...एक युवा पत्रकार हूँ...और पिछले 8 वर्षों से पत्रकारिता कर रहा हूं...अब जो पत्रकार नहीं दिखते रचना उन पत्रकारों पर है...
प्रकाश फुलारा
प्रोड्यूसर
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JK24X7 NEWS
NEW DELHI
fulara1990@gmail.com


अब मुझे वो पत्रकार नहीं दिखता

(प्रकाश फुलारा)

कांधे पर झोला लटकाए वो पत्रकार नहीं दिखता
बखियाँ उधेड़ता अब वो नहीं दिखता
नेताओं से दूर जनता के करीब नहीं दिखता।
कलम का शहनशाह अब गुम है,
खादी का कुर्ता, जेब में पेन अब कम है ।
सच्चाई के नज़दीक, सवालों का पिटारा,
वो भीड़ में अकेला दौड़ने वाला।
कांधे पर झोला लटकाए वो पत्रकार नहीं दिखता।
टाई, सूट से दूर वो पत्रकार नहीं दिखता,
किसी हरे भरे पेड़ के नीचे वो दाढ़ी वाला नहीं दिखता।
हाथों में कागज़, जुबान पर सवाल
कलाई में घड़ी, और वक्त का करता इंतजार
सवालों से उलझाता सरकार, अब वो नहीं दिखता।
अब मुझे वो पत्रकार नहीं दिखता।
कांधे पर झोला लटकाए वो पत्रकार नहीं दिखता।
इश्तेहारों तले न वो दबने वाला,
नेताओं के चुंगल में न फंसने वाला,
ख़ास मुलाकातों से दूर,
गांधी तस्वीरी कागजों (नोट, पैसे) से दूर
अभिव्यक्ति की आज़ादी का वो चिराग
अब मुझे वो पत्रकार नहीं दिखता।
कांधे पर झोला लटकाए वो पत्रकार नहीं दिखता।
कुछ पत्रकार गिने चुने मिल जाएंगे...
लेकिन चाटुकारों की पत्रकारिता में वो नहीं मिले हैं...
अकेले हैं इश्तेहारी भीड़ से दूर खड़े...
उन पत्रकारों को मेरा सलाम है।

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