-विनय श्रीकर-
1966 में एक फिल्म आयी थी, जिसका नाम था-- ‘नई उमर की नई फसल’ ! यह फिल्म लखनऊ के नॉवेल्टी टाकीज में लगी थी। उस समय मैं किशोर वय का था और ग्यारहवीं में पढ़ता था। मेरे पिता फिल्म देखने के सख्त खिलाफ थे। फिर भी, क्लास कट कर मैं अपने सहपाठियों या मुहल्ले के दोस्तों के साथ पिक्चर देख लिया करता था। आठवीं में पढ़ते समय मैंने पिता के कहने पर जो पहली फिल्म देखी थी, वह विवेकानन्द के जीवन पर आधारित थी।
इस तरह मुझे पिता से धार्मिक पिक्चरें देखने की छूट मिली। फिर तो, ‘धार्मिक-अधार्मिक’ सभी तरह की फिल्में देखने का चस्का लग गया। बहरहाल, ‘नई उमर की नई फसल’ वह पहली फिल्म थी, जिसका पूरा-पूरा कथानक मेरे पल्ले पड़ा। इस पिक्चर में शायद तनूजा ने पहली बार भूमिका निभायी थी। इसकी शूटिंग किसी यूनिवर्सिटी के कैम्पस में हुई थी। उस समय यह फिल्म तो अच्छी लगी ही, मैं गोपालदास नीरज के गीतों का फैन हो गया। उसी फिल्म की नीरज की मशहूर रचना--
कारवॉं गुजर गया
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से,
लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठें कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए, छंद हो दफन गए,
साथ के सभी दिए धुआँ-धुआँ पहन गए,
और हम झुके-झुके, मोड़ पर रुके-रुके,
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
क्या शाबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा,
इस तरफ़ ज़मीन और आसमाँ उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ, ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली,
और हम लुटे-लुटे, वक़्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे।
हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यों कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर, शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गए किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे, नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमुक उठे चरन-चरन,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी, गाज एक वह गिरी,
पोंछ गया सिंदूर तार-तार हुईं चूनरी,
और हम अजान-से, दूर के मकान से,
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
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