27.7.18

विलम्ब से विवाह वरदान या अभिशाप?

विवाह की अवधारणा:  वि+वाह; यानी विशेष उत्तरदायित्व का निर्वहन करना. सनातन धर्म में विवाह को सोलह संस्कारों में से एक अहम् संस्कार माना गया है. पाणिग्रहण संस्कार को ही हम आम बोलचाल की भाषा में विवाह संस्कार के नाम से जानते हैं. वैदिक मान्यताओं के अनुसार, व्यक्ति के समस्त कालखंडों को चार भागों में विभाजित किया गया है – ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, संन्यास आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम. गृहस्थ आश्रम के लिए पाणिग्रहण संस्कार अर्थात विवाह नितांत आवश्यक है. एक ओर जहाँ दुनियां के अन्य सारे धर्म विवाह को महज दो पक्षों का करार मानते हैं, जिसे विशेष परिस्थिति में तोड़ा जा सकता है, वहीं दूसरी ओर हिन्दू धर्म में विवाह अग्नि एवं ध्रुवतारा को साक्षी मानकर जन्म जन्मान्तरों के लिए आत्मिक सम्बन्ध को स्वीकार करना होता है जिसे किसी भी परिस्थिति में तोड़ा नहीं जा सकता है.

विवाह के प्रकार:

आज से कुछ दशक पहले तक विवाह के कई प्रकार आमतौर पर देखने को मिलते थे, व्यक्ति अपने संस्कारों एवं विचारों के अनुरूप अपने वैवाहिक जीवन का आरम्भ करता था. परन्तु आज बहुत तीव्र गति से पतित विवाह की प्रक्रिया सभी वर्गों में आम होती जा रही है. संस्कार विहीन बुद्धीजीवी एवं सुविधासंपन्न दिग्भ्रमित समाज को निचले पायदान वाला समाज भी तत्परता से अपना रहा है और कुसंस्कारों को अपना कर फक्र भी महसूस करता है. जोकि बेहद चिंतनीय है-

ब्रह्म विवाह: दोनों पक्षों की सहमती से कन्या का सुयोग्य वर के साथ विवाह जिसे आजकल arrange marriage (अरेंज मैरिज) कहा जाता है.

दैव विवाह: किसी विशेष सेवा कार्य (धार्मिक अनुष्ठान) के मूल्य के रूप में अपनी कन्या को दान दे देना.
आर्श विवाह: कन्या पक्ष वालों को कन्या का मूल्य देकर विवाह करना.

प्रजापत्य विवाह: कन्या की सहमती के बिना उसका विवाह अभिजात्य वर्ग से कर देना.

गन्धर्व विवाह: परिवार वालों की सहमति के बिना वर कन्या का बिना किसी रीति रिवाज के विवाह कर लेना, जिसे आजकल court marriage (कोर्ट मैरिज) कहा जाता है.

असुर विवाह: कन्या को खरीद कर विवाह कर लेना.

राक्षस विवाह: कन्या की सहमति के बिना उसका अपहरण करके विवाह कर लेना.

पैशाच विवाह: कन्या की मदहोशी (गहन निद्रा, मानसिक दुर्बलता) का लाभ उठाकर विवाह कर लेना.

पाश्चात्य की देन:
 
हम सभी जानते हैं कि समूचे विश्व में भारतीय संस्कृति और सभ्यता का अपना एक अलग वर्चस्व रहा है और आज भी कायम है. इसी वजह से आज समूचा संसार भारतीयता से ओतप्रोत होकर हमें अनुकरण करने की होड़ में जुटा है. एक ओर जहां भारतीय परम्परा में आयु को विविध आयामों के लिए वर्गीकृत किया गया है, ताकि समयानुसार हम अपने जीवन एवं उत्तरदायित्वों का निर्वहन कर सकें और राष्ट्र के निर्माण में अपना उत्कृष्ट योगदान दे सकें. परन्तु वहीं दूसरी ओर पाश्चात्य सभ्यता में प्रत्येक व्यक्ति का जीवन स्वकेंद्रित होता है, यानी जन्म के बाद वह अपना जीवन स्वतंत्र होकर व्यतीत करता है. स्वतंत्र वातावरण में शारीरिक-मानसिक भोग सर्वसुलभ होता है. जिसे वह यौनावस्था में जीता है, इसी वजह से उसको विवाह के बंधन को स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं महसूस होती है. अंततः जब वह भौतिकवादी संसार से पूरी तरह से संतुष्ट हो जाता है और जब जीवन में अकेलापन महसूस करनें लगता है तो विवाह करता है, जोकि महज एक औपचारिकता ही होती है. विवाह के बाद भी वो मानसिक और नैतिक रूप से एक दूसरे से आत्मीय नहीं हो पाते हैं. इस कुकृत्य के नक़ल का खामियाजा आज हमारा युवा भारत भुगत रहा है. आज हमारी युवा पीढ़ी चिंतन मनन किये बिना उनकी राह पर चली पड़ी है, जोकि बेहद चिंतनीय है.

वाजिब सवाल:
 
ज़रा आप ही बताइए कि विवाह की वास्तविक उम्र क्या होनी चाहिए ? तसल्ली  से सोचिये, कोई जल्दबाजी नहीं है. यह कटु सत्य है कि जब कोई भी व्यक्ति अपनी यौनावस्था में आता है तो उसको शारीरिक तृप्ति की आवश्यकता होती है. परन्तु आज अधिकांश युवा इस सामान्य प्रक्रिया के विपरीत जाकर गौरवान्वित महसूस करता है. खामियाजा की भरपाई भी वो स्वयं करता है, चारित्रिक पतन के दलदल में गिरता है और बाद में वह चाहकर भी वो इससे उम्र भर नहीं निकल पाता है. कुछ समय बाद वह इसको ज़ायज़ मान बैठता है क्यूँकि उसके पास कोई विकल्प नहीं बचा होता है.

महत्वाकांक्षा एक बड़ी वजह:
 
आज आपाधापी भरी जिन्दगी के वर्तमान पड़ाव में हर व्यक्ति रोटी, कपड़ा, मकान को संजोने में दिन-रात प्रयत्नशील है. हर कोई स्वयं को भौतिकता के शीर्ष पर देखना चाहता है. गौरतलब है कि शीर्ष के वास्तविक मायने हर किसी के लिए अलग-अलग होते हैं, कोई शानों-शौक़त में जीना चाहता है तो कोई बड़ा ओहदा हथियाना चाहता है तो कोई धन संपत्ति का अम्बार लगाना चाहता है. मै इसका कतई विरोध नहीं करती कि आप सपनें ना संजोयें, बिल्कुल तमन्ना रखिये, शीर्ष पर जाइए, बुलंदियां हासिल कीजिये, मेरी शुभकामनाएं सदैव आपके साथ हैं. मगर आपको यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि कहीं आप भौतिकता की होड़ में वास्तविकता से विलग तो नहीं हो रहें हैं. मेरे हिसाब से तो सही मायनें में आपका शीर्षत्व तो वह है कि आप आजतक स्वयं को कितना समझ पायें हैं, आतंरिक रूप से कितना सानंद हैं, आप सही मायनें में इन्सान बन पायें हैं या नहीं ? यह कतई जरूरी नहीं है कि भौतिकता के शीर्ष पर पहुंचा व्यक्ति ही सही मायनें में शीर्षत्व को प्राप्त किया हो. अक्सर यह भी देखनें में आता है कि शीर्ष पर पहुंचा व्यक्ति विभिन्न प्रकार से असंतुष्ट रहता है. जब हम ऐसे व्यक्तियों पर गौर करते हैं तो पाते हैं कि ऐसे व्यक्तियों के जीवन का समूचा मकसद सिर्फ धन इकट्ठा करने में ही सिमटा नज़र आता है. इससे इतर, गर हम समाज के कुछ चुनिन्दा आदर्शवादी लोगों पर नज़र डालें तो वो समाज के लिए सचमुच में एक मिशाल रहते हैं, आईना बनकर समाज को सन्मार्ग दिखाने का काम करते हैं. भले ही ऐसे लोग भौतिकता के शीर्ष पर ना पहुंचें हों, मगर वो इन्सान होने का दायित्व बखूबी से निभाते हैं और नए भारत को एक अच्छी दिशा प्रदान करते हैं.

सच से परे:
 
प्रत्येक इन्सान स्वयं चाहे जितना बुरा क्यूँ न हो, मगर वह स्वयं के लिए सब कुछ अच्छा ही चाहता है. क्या यह सच से परे नहीं है कि आप स्वयं अत्याधुनिकता की चपेट में आकर चरित्रहीनता की पराकाष्ठा पर रहते हैं और जब आप अपने जीवन साथी की तलाश करते हैं तो आप शत-प्रतिशत चरित्रवान स्त्री या पुरुष ही चाहते हैं, ऐसा दोहरा मापदंड क्यूँ ? क्या आप प्रकृति के सार्वभौमिक नियम को बदल देंगें, आप जैसा करेंगें वैसा ही आपको प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आज नहीं तो कल अवश्य मिलेगा.

खामियाज़ा भी सामने है:

विवाह संस्कार सनातन धर्म का त्रयोदश संस्कार माना जाता है. वैदिक मान्यताओं की मानें तो विवाह के बाद ही पितृ ऋण को चुकाया जा सकता है. आधुनिकता के नाम पर ‘लिव इन रिलेशनशिप’ जैसे निषेध विवाह को बढ़ावा देना राष्ट्र और प्रकृति के विरुद्ध ही नहीं अपितु मानवता के लिए घातक भी है. सनातन धर्म का श्रेष्ठ धर्म-ग्रन्थ वेद है, वेदानुसार किये गये विवाह ही शास्त्र सम्मत मानें जातें हैं, यदि यह संस्कार उचित रीति-रिवाज़ से नहीं हुआ तो यह महज एक समझौता ही माना जाता है.

आज विवाह वासना प्रधान बनते जा रहें हैं. रंग, रूप, धन-दौलत, अन्य चीज़ों को तरहीज़ दी जाने लगी है, जोकि बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. लोगों की इसी सोच के कारण दांपत्य जीवन और परिवार बिखरने लगें हैं. प्रेम विवाह और लिव-इन-रिलेशनशिप का भी अंजाम बहुत बुरा साबित हो रहा है. तलाक़, हत्या, आत्महत्या, नैतिक, चारित्रिक पतन व अन्य रूप में खामियाज़ा हमारे सामने है.

एक नए सर्वे के मुताबिक, भारत में आज संतान न होने की समस्या आम होती जा रही है, इसकी मूल वजह वैज्ञानिक और चिकित्सक दोनों उम्रदराज़ होकर किये गए विवाह को ही मानते हैं. क्यूँकि संतानोत्पत्ति का भी अपना एक समय होता है. 

अतीत की ओर लौटें:
आज समाज के अति भौतिकतावादी लोगों में सभ्यता, संस्कार, संस्कृति, धर्म, मातृभाषा व अन्य मूलभूत चीजों के विरूद्ध जाकर कार्य करने और स्वयं को बुद्धीजीवी कहलानें की होड़ नज़र आ रही है. मैं भी समाज की कुप्रथाओं और रुढियों के बिल्कुल खिलाफ़ हूँ, मगर मेरी आपसे एक विनती है कि पहले आप उन सामाजिक मान्यताओं, विषयों एवं पद्धतियों का गहराई में जाकर अध्ययन कीजिये, फिर उन पर कटाक्ष कीजिये.
हाँ, आज कुछ लोगों की दलीलें यह हैं कि विवाह करने के उपरान्त एक अहम् जिम्मेदारी का निर्वहन करना पड़ता है, जिसके लिए हमें पैसों की नितांत आवश्यकता होती है. खैर ! आपकी बात बिल्कुल सही है, परन्तु यह हमेशा याद रखिये कि आज तक धन, वैभव से किसी की इच्छा तृप्ति नहीं हुई है. यदि आपके पास कम पैसे हैं और आपको जीवन जीना आता है तो आप कम पैसों में भी खुशहाल रह सकते हैं, परन्तु गर आपकी व्यर्थ की इच्छाएँ अधिक हैं और आपको जीवन जीने का सही सलीका नहीं पता है तो आपके पास धन संपत्ति होकर भी आप खुशहाल नहीं रह पाएंगे. इसलिए यह हमारी महज़ सोच का फर्क है कि विवाह के लिये ढेर सारा धन नितांत आवश्यक है. आप अपनी तुलना समाज के अंतिम हाशिये पर जीवन-यापन कर रहे लोगों से कर लीजिये, आपको खुद-बखुद उत्तर मिल जाएगा.

आज स्थिति यहाँ तक आ चली है कि भारत का अधिकांश युवा अपनी सामान्य उम्र २२ से ३० वर्ष तक में विवाह न करके स्वयं को तथाकथित बौध्दिक कहलाता है और गौरवान्वित महसूस करता है. इससे इतर, वह कहीं न कहीं चरित्रहीनता के कगार पर खड़ा नज़र आता है. परन्तु आज दिग्भ्रमित समाज को यह चरित्रहीनता उसके उन्नयन की एक अहम् कड़ी समझ आ रही है. दोष नज़र में नहीं, नज़रिए में है. यह बिल्कुल सत्य है कि प्रकृति के नियमों के विरुद्ध जाकर किसी भी व्यक्ति का भविष्य सुनहरा नहीं हो सकता. इसलिए विषय को गंभीरता से लेते हुए विचार कीजिए कि आज जो हम युवा इस राह पर आगे बढ़ रहें हैं वो हमारे और राष्ट्र के लिए कितना अनुकूल और प्रतिकूल है ?

अंतू, प्रतापगढ़, (उ. प्र.) की निवासिनी शालिनी तिवारी स्वतंत्र लेखिका हैं. पानी, प्रकृति एवं समसामयिक मसलों पर स्वतंत्र लेखन के साथ-साथ वर्षों से मूल्यपरक शिक्षा हेतु विशेष अभियान का संचालन भी करती हैं. लेखिका द्वारा समाज के अंतिम जन के बेहतरीकरण एवं जनजागरूकता के लिए हर संभव प्रयास सतत जारी है.
Email – shalinitiwari1129@gmail.com


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