जून के अंतिम दिनों में सोनिया कांग्रेस के एक बड़े नेता सैफ़ुद्दीन सोज़ की जम्मू कश्मीर को लेकर लिखी गई एक नई किताब Kashmir- Glimpses of History and the story of struggle की चर्चा अख़बारों और टैलीविजन में शुरु हो गई थी । चर्चा को हवा देने के लिए सोज़ ने एक बयान जारी कर दिया था कि कश्मीरी भारत से आज़ादी चाहते हैं । इस बयान के बाद किताब की चर्चा और गहराती । तब इस चर्चा में एक नया आयाम जोड़ा गया कि क्या किताब के विमोचन कार्यक्रम में मनमोहन सिंह आएँगे या नहीं ? ज़ाहिर है हल्ला और पड़ता और सोज़ साहब ने अपनी किताब में क्या लिखा है ,इसे जानने की जिज्ञासा बढ़ती । आजकल यह किसी साधारण सी किताब की मार्केटिंग करने का व्यवसायिक तरीक़ा है ।
मैं आम तौर पर किताब की मार्केटिंग के इस गोरखधंधे में आसानी से नहीं फँसता , लेकिन कश्मीर ज्वलन्त विषय होने के कारण इस बार धोखा खा गया और दो दिन पहले सोज़ साहब की किताब छह सौ रुपए में ख़रीद ली । किताब साधारण है और उसमें ऐसी कोई बात नहीं है जो कश्मीर को लेकर अब तक छुपी रही हो । लेकिन उसमें एक बात पढ़ कर सचमुच हैरानी हुई । सोज़ लिखते हैं कि 1320 में लद्दाख का बौद्ध रिंचन कश्मीर का राजा बना और राजा बनते ही वह मुसलमान हो गया और उसके मुसलमान बनते ही सारा कश्मीर मुसलमान हो गया । सोज़ के इस रहस्योदघाटन को पढ़ कर सचमुच हैरानी होती है । अब तक कश्मीर में यही कहानियाँ सुनाई जाती थीं कि कश्मीर को विदेशी हमलावरों ने ज़ोर ज़बरदस्ती मुसलमान नहीं बनाया बल्कि वे तो सूफ़ियों के प्यार व सोहबत से इस्लाम की शरण में चले गए । लेकिन सोज़ कहते हैं कि सूफ़ियों की सोहबत की भी कश्मीरियों को इतनी जरुरत नहीं पडी । वे तो अपने राजा के पीछे पीछे चलते तीन साल में ही मुसलमान हो गए।
सैफ़ुद्दीन सोज़ की इस कहानी को समझने के लिए कश्मीर के इतिहास में झाँकने की जरुरत है । कश्मीर के पूरे इतिहास में चौदहवीं शताब्दी के पहले चार दशक यानि 1300 से लेकर 1340 तक का कालखंड बहुत महत्वपूर्ण हैं । यदि यह कहा जाए कि कश्मीर घाटी के आधुनिक काल की तमाम समस्याओं के बीज इन्हीं चार दशकों में बोए गए थे तो भी अतिश्योक्ति नहीं होगी । इस कालखंड में कश्मीर में लोहरा वंश का शासन था और इस वंश के सहदेव कश्मीर नरेश थे । सहदेव अपने भाई की हत्या के बाद सत्ता में आए थे । उन्होंने लार घाटी के शक्तिशाली सरदार रामचन्द्र को अपना प्रधानमंत्री बनाया था । इनके राज्यकाल में 1300 से लेकर 1320 के बीच कश्मीर घाटी में चार लोगों की आमद हुई । इन्हीं चार लोगों की आमद ने जम्मू कश्मीर को आज की हालत में पहुँचा दिया । ये चार महानुभाव थे रिंचन , शाहमीर, लंकेर चक और सैयद बुलबुल शाह तुर्कस्तानी । इनमें से पहले तीन तो वर्तमान जम्मू कश्मीर के ही रहने वाले थे लेकिन चौथे बुलबुल शाह सैयद थे जो तुर्कस्तान से आए थे । लेकिन फ़िलहाल इनमें से तीन की चर्चा करना ही जरुरी है । रिंचन, शाहमीर और सैयद बुलबुल शाह ।
(क) रिंचन -- रिंचन लद्दाख का रहने वाला बौद्ध था । वे राजवंश के आपसी झगड़ों के कारण भागकर जोजीला के रास्ते कश्मीर पहुँचा था ।लार घाटी में वह कश्मीर नरेश सहदेव के सेनापति रामचन्द्र से मिला । उसने उस समय के सेनापति रामचन्द्र से मित्रता स्थापित की और सहदेव से भी नज़दीक़ियाँ बनाईं । वह जल्दी ही रामचन्द्र और सहदेव के विश्वस्तों में गिना जाने लगा । राजा सहदेव ने उसे शरण ही नहीं भरण पोषण के लिए जागीर भी दी
(ख) शाहमीर --शाहमीर वर्तमान जम्मू कश्मीर के बुधाल और राजौरी के बीच पंचगहवरा घाटी में स्वादगिर का रहने वाला था । वह वहाँ से 1313 में कश्मीर घाटी में आया था । एक दन्त कथा यह भी है कि शाहमीर के दादा को स्वप्न आया था कि शाहमीर एक दिन कश्मीर का राजा बनेगा । उस स्वप्न से उत्साह में आकर उसने शाहमीर को वह राजौरी छोड़ कर परिवार सहित कश्मीर चले जाने के लिए कह दिया । शाहमीर ख़श जाति का राजपूत था । उन दिनों हिमालयी क्षेत्र में ख़श , किन्नर , किरात , निषाद इत्यादि जातियाँ बहुतायत में थीं । जोनराज ने द्वितीय राजतरंगिनी में शाहमीर को स्वात का बताया है , जो क्षत्रिय कुल का था लेकिन जिसके पूर्वज इस्लाम पंथ में दीक्षित हो गए थे । जोनराज शाहमीर को महाभारत के अर्जुन के वंशजों से जोड़ता है । श्लोक 135 से लेकर श्लोक 141 तक जोनराज शाहमीर का स्तुतिगान करता है । शाहमीर के स्वप्न की कथा का ज़िक्र भी जोनराज ने किया है । कुछ विद्वान शाहमीर को महाभारत काल के अर्जुन की कुल परम्परा के साथ जोड़ते हैं । लेकिन डा० रघुवीर सिंह ने शाहमीर की वंशावली निम्न प्रकार दी है । पार्थ ---- वभ्रुवाहन ------ कुरुशाह-- शाहमीर । अर्जुन का एक नाम पार्थ भी था और वभ्रुवाहन ने भी महाभारत के युद्ध में भाग लिया था । इसलिए बाद के फ़ारसी इतिहासकारों ने शाहमीर का सम्बंध महाभारत के अर्जुन से जोड़ दिया । अबुल फ़ज़ल के अनुसार भी शाहमीर महाभारत के अर्जुन की कुल परम्परा का था । फ़रिश्ता भी शाहमीर को अर्जुन का वंशज ही मानता है । उसके अनुसार,"सन १३१५ में जब कश्मीरियों का शासन सहदेव नामक राजा के हाथ में था , कश्मीर में एक व्यक्ति जिसका नाम शाह मिर्ज़ा था , फ़क़ीरों के वेश में आया और राजा के कर्मचारियों में प्रवेश प्राप्त कर लिया । शाह मिर्ज़ा अपने आप को अर्जुन का वंशज बताता था । लेकिन अब वह अर्जुन की कुल परम्परा और विरासत को बहुत पीछे छोड आया था । उसने इस्लाम मज़हब स्वीकार कर लिया था । शाहमीर क्षत्रिय कुल का था इसलिए वह भी राजा के पास अपने अनुकूल किसी कार्य की तलाश में जाता । और ऐसा उन्होंने किया भी । सहदेव ने उसे अपने दरबार का हिस्सा बनाया और बारामुला में उसे एक गाँव की जागीर प्रदान की । राजा सहदेव ने शाहमीर का किस प्रकार स्वागत किया इसका ज़िक्र करते हुए जोनराज कहता है ,"भूपति ने उसे उसी प्रकार अनुगृहीत किया जिस प्रकार आम का वृक्ष भ्रमरों को करता है ।(श्लोक १४१)
(ग) सैयद बुलबुल शाह -- बुलबुल शाह का असली नाम सैयद शरीफुद्दीन अब्दुल रहमान था । वह 1301-1320 के बीच में कश्मीर आया था । वह समरकन्द से या तुर्किस्तान से, बुखारा से या फिर ईरान से भारत में आया था , इस पर अभी तक बहस चलती रहती है । दरअसल तेरहवीं शताब्दी के अन्त और चौदहवीं शताब्दी के शुरु में तुर्कों/मंगोलों के सताए अनेक सैयद जिन्हें कलंदर भी कहा जाता है , कश्मीर घाटी में आए थे । इनमें से हज़रत सैयद शरफुद्दीन अब्दुल रहमान उर्फ़ बुलबुल शाह का नाम सबसे ज़्यादा जाना पहचाना है और कश्मीर आने वाले कलन्दरों में शायद वे पहले थे । वे अपने मित्र मुल्ला अहमद को साथ लेकर अपने एक हज़ार शिष्यों के साथ भारत आए थे और कश्मीर घाटी में ही बस गए । वे अपने आप को सुहरावर्दी सिलसिले के सूफ़ी फ़क़ीर कहते थे जो कश्मीर घाटी में इस्लाम का प्रसार करने के लिए आए थे । वे एक हज़ार शिष्यों के साथ भारत में आए थे, इसका भी कोई प्रमाण नहीं है । यह जरुर कहा जाता है कि उनके साथ उनके दूसरे दो साथी सैयद कमालुद्दीन और सैयद जलालुद्दीन भी थे । वैसे दो उनके असली नाम को लेकर भी विवाद है लेकिन अपने आसपास के लोगों में वे बुलबुल शाह तुर्कस्तानी के नाम से ही जाने जाते थे । इसका एक कारण इनकी सुरीली आवाज भी हो सकता है । बुलबुल शाह के नाम से जुड़ी एक और कथा भी है । उनका तख्खलस बिलाल था । इसी बिलाल से उन्हें बुलबुल शाह कहा जाने लगा । बुलबुल शाह को राज दरबार के पदों की जरुरत ही नहीं थी । इसलिए वे आम कश्मीरियों को आकर्षित करने के काम में लग गए । भारत आने से पहले बुलबुल शाह अनेक साल बग़दाद में भी रहे थे । ज्ञान और साधना के क्षेत्र में आम कश्मीरी अरबों , तुर्कों व मंगोलों से इक्कीस ही ठहरता है , इसलिए वे उस समय के कश्मीरियों को कितना प्रभावित कर पाए होंगे , इसमें संदेह ही है । यही कारण है कि वह उस समय घाटी में इस्लाम की जड़ नहीं लगा सका । इसलिए बुलबुल शाह ने राजदरबार से सम्बंधित व्यक्तियों से सम्पर्क बनाने की नीति अपनाई और रिंचन , शाहमीर इत्यादि से अच्छे सम्बंध बना लिए । शाहमीर के साथ उसकी दोस्ती थी । रिंचन, शाहमीर और बुलबुल शाह के त्रिकोण ने कश्मीर में जो बीज रोपा उसको फलने फूलने में सैकड़ों साल लगे । लेकिन इनको यह बीज रोपने का अवसर कैसे मिला , इसकी एक अलग कहानी है।
राजा सहदेव के राज्यकाल में एक तुर्क/मंगोल सरदार दुल्चू ने सन् 1320 में अपने सत्रह हज़ार सैनिकों के साथ कश्मीर पर हमला कर दिया । कुछ इतिहासकार दुल्चु को लद्दाख नरेश कर्मसेन का सेनापति मानते हैं जो लद्दाख से जोजीला के रास्ते कश्मीर घाटी में आया था । लेकिन दूसरे इतिहासकार उसे मध्य एशिया का तुर्क मानते हैं । तुर्कों/मंगोलों ने भारत पर सभी हमले अफ़ग़ानिस्तान के रास्ते ही किया । इसलिए दुल्चु भी बारामुला के रास्ते कश्मीर में आया होगा । सहदेव ने उसका सामना करने की कोशिश की । उसे धनराशि देकर संतुष्ट कहने का प्रयास भी किया । लेकिन वह न तो उसका सामना कर सका और न ही उसे ख़रीद सका । प्रजा की रक्षा करते हुए रणभूमि में मर जाने का साहस उसमें नहीं था । तब पीठ दिखा कर भागने के अतिरिक्त उसके पास कोई विकल्प नहीं बचा था । वह भाग कर किश्तवाड चला गया । कुछ लोग यह भी कहते हैं कि वह भाग कर तिब्बत चला गया था । वह भाग कर कहाँ गया , इससे ज़्यादा अंतर भी नहीं पडता । उसके सेनापति रामचन्द्र ने भी लार के क़िले में स्वयं को अपने परिवार सहित बन्द कर लिया । उसके साथ उसके कुछ गिने चुने विश्वस्त सैनिक थे । अब कश्मीर घाटी में दुल्चु दुल्चु का विरोध करने वाला कोई नहीं था । निरन्तर आठ महीने कश्मीर घाटी में लूटमार और क़त्लेआम करने के बाद वह जम्मू के रास्ते वापिस जा रहा था । बनिहाल पहुँचते पहुँचते वर्फबारी ने घेर लिया और सभी वहीं हिम समाधि में चले गए ।
दुल्चु द्वारा कश्मीर छोड़ देने के बाद जब घाटी में सहदेव लौटा तो उसके ही सेनापति रामचन्द्र ने उसके पैर नहीं लगने दिए और स्वयं राजा बन गया । लेकिन लोगों के मन में अब इन कायरों के प्रति कोई सम्मान नहीं बचा था । दुलचा के आक्रमण और लूट के बाद कश्मीर में कोई शासन व्यवस्था बची ही नहीं थी । अकाल के हालत पैदा हो गए थे । आक्रमण काल में रिंचन और शाहमीर ने आम जनता से सम्पर्क बनाए रखा था । दोनों ने शायद यह अनुमान भी लगा लिया था कि सहदेव अब किसी उपयोग के नहीं रहे थे । दोनों ने ही सहदेव के उपकारों को भूलने में क्षण मात्र नहीं लगाया । रिंचन ने रामचन्द्र के महल में अपने कुछ विश्वस्त भोट सैनिक भी तैनात कर दिए थे । परन्तु राम चन्द्र के भाग्य में ज़्यादा देर तक राजा बने रहना नहीं लिखा था । उसके दोनों सहयोगी , रिंचन और शाहमीर आपस मेंं मिल गए । वे जनता के सुख दुख के साथी बनने लगे और उसका विश्वास जीतने का प्रयास करने लगे । रिंचन ने अपने सैनिकों को वस्त्र व्यापारियों के रूप में रामचन्द्र के महल में भेजना शुरु कर दिया । एक दिन व्यापारियों के भेष के इन सैनिकों ने रामचन्द्र की हत्या कर दी और रिंचन ने अपने आप को कश्मीर का बादशाह घोषित कर दिया । छह अक्तूबर 1320 को उसका राज्याभिषेक हुआ । लेकिन राजा बनने से पहले ही उसने रामचन्द्र की बेटी कोटा देवी से शादी कर ली । रिंचन राजा बना और कोटा देवी महारानी । इतना ही नहीं उसने रामचन्द्र के बेटे रावणचन्द्र को भी छोटी मोटी ज़ागीर दे दी । शाहमीर को उसने अपना मंत्री बनाया । कोटा रानी से रिंचन को एक पुत्र प्राप्ति हुई । इसकी देखभाल का ज़िम्मा रिंचन ने अपने मंत्री शाहमीर को दिया हुआ था । शाहमीर इसे हैदरखान के नाम से पुकारता था । मंगोल भाषा में खान का अर्थ राजा भी होता है ।
अब असली कहानी शुरु हुई जिसका ज़िक्र सैफ़ुद्दीन सोज़ कर रहे हैं । कहा जाता है कि कश्मीर का शासक बनने के बाद रिंचन ने इस्लाम पंथ को स्वीकार कर लिया और मुसलमान हो गया । मुसलमान होने के बाद उसने अपना नाम भी बदल लिया । अब वह सुल्तान सदरुदीन हो गया था । फ़ारसी इतिहासकार उसे इसी नाम से सम्बोधित करते हैं । ऐसा भी कहा जाता है कि बुलबुल शाह उसके इस्लामी गुरु थे । लेकिन वह मुसलमान कैसे बना , इसको लेकर मतैक्य नहीं है । कुछ विद्वान यह कहते हैं कि रिंचन ने बौद्ध , हिन्दू और इस्लाम , इन तीनों मतों का गहराई से अध्ययन किया , इन मतों के विद्वानों से लम्बी चर्चाएँ कीं । अन्त में उसे इस्लाम मत ही सर्वश्रेष्ठ लगा । इसलिए उसने मुसलमान बनने का फ़ैसला कर लिया । लेकिन इसका कोई पुख़्ता आधार नहीं मिलता । रिंचन मूलत बौद्ध मत को मानने वाला था । वह लद्दाख के राजवंश से ताल्लुक़ रखता था । बौद्ध मत उसके पुरखों का पंथ था । इसलिए वह उसे विरासत में मिला था । वह शासक वर्ग से ताल्लुक़ रखता था । वह अरस्तु का 'दार्शनिक राजा' नहीं था जिसने विभिन्न मतों का मर्म समझने के लिए दार्शनिक परिषदों के सम्मेलन किए हों और उसके उपरान्त इस्लाम को स्वीकार करने की सार्वजनिक घोषणा की हो । रिंचन कोई बहुत बड़ा नामी गिरामी दार्शनिक भी नहीं था जो बौद्ध मत के दर्शन से निराश होकर उसे त्यागने का निर्णय कर बैठा है ।
लद्दाख का होने के कारण उसे कश्मीर घाटी में अपनी जड़ें जमानी थीं । कश्मीर घाटी में वह हिन्दू राजा रामचन्द्र की हत्या करके राजा बना था । उसने रामचन्द्र के परिवार के सदस्यों से तो समझौता कर लिया था । उसकी बेटी कोटा देवी से विवाह करके , और उसके बेटे रावणचन्द्र को राज्य प्रशासन में ऊँचा पद देकर । लेकिन वह जानता था कि यदि लम्बे समय तक राज करना है तो घाटी के कश्मीरी समुदाय से मान्यता लेनी ही होगी । उस समय तक कश्मीरी समुदाय मोटे तौर पर हिन्दू ही था । घाटी में कुछ संख्या में मुसलमान भी थे , लेकिन उस समय ये मुसलमान कश्मीरी नहीं थे बल्कि उनमें ज़्यादातर अरब, ईरान इत्यादि से आए हुए विदेशी सैयद ही थे । सैयद उसको मान्यता दें या न दें , इससे उसकी स्थिति में बहुत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला था । क्योंकि ये विदेशी सैयद तो स्वयं अपने लिए कश्मीर घाटी में स्थान तलाश रहे थे । ऐसी स्थिति में उसका बौद्धमत त्यागने का एक ही कारण हो सकता था कि वह कश्मीर घाटी के बहुमत की विरासत से स्वयं को जोड़ना चाहता हो । इसका उसने प्रयास भी किया । घाटी के हिन्दू समुदाय से उसने अनुरोध किया कि उसे भी उस समय कश्मीर में प्रचलित हिन्दुत्व के शैवमत का अनुयायी बना लें । लेकिन हिन्दू समुदाय मिशनरी समुदाय तो है नहीं । किसी को हिन्दू कैसे बनाया जा सकता है , उस समय यह सचमुच बहस और विवाद का विषय ही हो सकता था । पंडितों में इसको लेकर बहस हुई । कहा जाता है कि देवस्वामी ने इस पर विचार करने के लिए विद्वानों की सभा बुलाई । परिणाम वही था कि हिन्दू के घर में जन्म लेकर ही हिन्दू बना जा सकता है । उसने रिंचन को शैवमत में दीक्षा देने से इन्कार कर दिया ।
यह कथा कि देवास्वामी ने रिंचन को शैव मत में लेने से इन्कार कर दिया ,विश्वसनीय नहीं लगती । प्रथम तो यही कि हिन्दुओं की स्थिति उस समय ऐसी नहीं थी कि वे मौक़े के बादशाह को इंकार कर सके । दूसरे इस्लाम और ईसाइयत की तरह हिन्दु कोई संगठित मज़हब नहीं है जिसमें शामिल होने के लिए किसी रस्म या अनुमति की जरुरत पड़ती हो । न ही हिन्दुओं में ऐसा अकेला व्यक्ति प्राधिकृत होता है , जिसे शैव या अन्य किसी मत की देने के लिए प्राधिकृत हो । देवस्वामी ने इंकार किया तो राजा किसी दूसरे स्वामी को पकड़ सकता था । चौदहवीं शताब्दी में लद्दाख का बुद्धमत , वज्रयान में विकसित हो चुका था जिसे बुद्धमत और कश्मीर के शैवमत का संश्लेषण कहा जा सकता है । बज्रयान और शैवमत में बहुत ज़्यादा फ़ासला नहीं है । चौदहवीं शताब्दी का कश्मीर लोकतांत्रिक व्यवस्था वाला नहीं था कि राजा को राज करने के लिए प्रजा से स्वीकृति लेना अनिवार्य हो । न ही उस समय कश्मीर की जनता उस स्थिति में थी कि बलपूर्वक गद्दी पर बैठे राजा को हटा सके । इसलिए राजा के मन में हिन्दु समाज का अलग बनने के लिए देवस्वामी की शरण में जाने की बात गले नहीं उतरती । जितनी कृत्रिम हिन्दु समाज में जाने की इच्छा की कथा है , उससे भी ज़्यादा कृत्रिम रिंचन के मुसलमान बन जाने की है । रिंचन हिन्दु समाज की स्वीकृति चाहता था ,यह तो फिर भी स्वीकार किया जा सकता है , लेकिन वह मुसलमान किस उद्देष्य से बनेगा जब उस समय कश्मीर में मुसलमानों की संख्या उँगलियों पर ही गिनी जा सकती थी । मुस्लिम समाज से मान्यता प्राप्त करके रिंचन को क्या हासिल होने वाला था ?
रिंचन को लेकर दूसरी कथा उसके मुसलमान हो जाने की है । यह कथा पहली कथा के दूसरे हिस्से के रूप में प्रचलित है । इसके अनुसार देवास्वामी द्वारा हिन्दु समाज का हिस्सा बनाने से इन्कार करने से रिंचन को निराशा हुई । इसलिए नहीं कि वह हिन्दू समुदाय के दार्शनिक ग्रन्थों का अध्ययन कहने से बंचित हो गया । बल्कि इसलिए कि घाटी के बहुमत ने उसके शासन को मान्यता नहीं दी । उसके बाद वह सैयदों की ओर मुडा । कम से कम किसी गुट का समर्थन तो उसे हासिल करना ही था । इस मामले में शाहमीर ने उसकी सहायता की । शाहमीर के पुरखे पहले ही मुसलमान बन चुके थे । इसलिए शाहमीर की घाटी में रहने वाले कुछ छोटे मोटे सैयद फ़क़ीरों से जान पहचान भी थी और कईयों से गहरी दोस्ती भी । घाटी में कहीं कहीं ताज़ा ताज़ा मुसलमान बने तुर्क और मंगोल भी बसेरा बनाने लगे थे । वैसे तो शाहमीर को भी घाटी में सैयदों के समर्थन की जरुरत थी । सैयदों को भी ऐसे समर्थक चाहिए थे जिनकी पहुँच राजदरबार तक हो । शाहमीर तो राज दरबार का हिस्सा ही था । उस समय एक ही सैयद फ़क़ीर ऐसा था जिसकी थोड़ी बहुत चर्चा होती थी , वह बुलबुल शाह था । उस समय शाहमीर ने रिंचन को इस्लाम में खींच लाने की सोची । क्योंकि यदि रिंचन इस्लाम को स्वीकार कर लेता है तो कम से कम वे दोनों हम मज़हब हो जाएँगे । इसका भविष्य में शाहमीर को लाभ हो सकता था । रिंचन के मन में इस बात को लेकर निश्चय ही ग़ुस्सा होगा कि हिन्दुओं ने राजा को भी हिन्दु बनाने या अपना मानने से इन्कार कर दिया है । ग़ुस्से के साथ निराशा रही ही होगी । शायद इसीलिए यह प्रचलित हुआ होगा कि रिंचन मुसलमान हो गया है ।
इस कथा के अनुसार रिंचन ने निर्णय किया कि सुबह उठकर वह अपने महल से बाहर निकलेगा , जिस व्यक्ति का वह सबसे पहले मुँह देखेगा , उसी के मज़हब को वह स्वीकार कर लेगा । दूसरे दिन जैसे ही बह बाहर निकला तो बुलबुल शाह उसके महल के सामने नमाज़ करता सामने दिखाई दिया । अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार रिंचन ने इस्लाम मत स्वीकार कर लिया और वह मुसलमान हो गया । लेकिन इस कथा के भीतर का खोखलापन , इस पूरी मनघडंत कथा का मुँह चिढ़ाता है । सुबह उठकर मुँह देखने पर रिंचन के पास तीन ही विकल्प थे ।
1. यदि सुबह रिंचन के मत्थे कोई हिन्दू लग जाता तब भी वह हिन्दू नहीं बन सकता था ,क्योंकि हिन्दुओं ने तो उसे हिन्दू बनाने से पहले ही इन्कार कर दिया था । इसलिए सुबह किसी हिन्दु के मत्थे लगने या न लगने का विकल्प तो पहले ही ख़त्म हो चुका था ।
2. दूसरा विकल्प किसी बौद्ध के मत्थे लगने का था । वह विकल्प वास्तव में था ही नहीं क्योंकि रिंचन तो स्वयं बौद्ध ही था और इसी मत को वह छोड़ना चाहता था ।
3. इसलिए अब राजनैतिक लिहाज़ से उसके पास केवल मुसलमान हो जाने का रास्ता बचा था । और कोई मज़हब मसलन ईसाई या यहूदी उस समय कश्मीर घाटी में था ही नहीं ।
यदि रिंचन सचमुच मुसलमान हुआ होता तो यक़ीनन वह अपनी प्रजा को भी इस्लाम में खींचने की कोशिश करता लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता । यहाँ तक की उसकी पत्नी कोटा रानी भी मुसलमान नहीं बनी थी । रिंचन के बहुत बाद जब कश्मीर में अधिकांश प्रजा का मत परिवर्तन हो गया होगा तब सैयदों ने यह कथा अपने एक पूर्व साथी बुलबुल शाह कलन्दर का प्रभामंडल निर्माण करने के लिए रची होगी । प्रो० अब्दुल क्यूम रफीकी के अनुसार,"यह कथा इस्लाम को महिमामंडित करने और सैयद शरफुद्दीन की चमत्कारी शक्तियों को स्थापित करने के लिए गढ़ी गई लगती है ।"( M.K.Kaw(ed) Kashmir & it's people में S.S.Toshkhani के आलेख Early kashmiri society and the challenge of Islam में रफीकी का यह उद्धृरण दिया गया है,पृष्ठ 105) फ़ारसी इतिहासकार निज़ामुद्दीन और फ़रिश्ता भी रिंचन के मुसलमान बनने की कथा को स्वीकार नहीं करते । वे रिंचन को काफ़िर बताते हैं । वे शाहमीर को ही कश्मीर का पहला मुस्लिम सुल्तान मानते हैं ।"( पी एन टिक्कू स्टोरी आफ काश्मीर पृष्ठ ४२)
यह भी कहा जाता है कि दिंवगत सेनापति रामचन्द्र के बेटे रावणचन्द्र ने इस्लाम मत को स्वीकार कर लिया । लेकिन उसकी बहन और रिंचन की पत्नी कोटा रानी ने इस्लाम स्वीकार नहीं किया । यह तभी संभव था जब रिंचन ने उस पर इस्लाम स्वीकार करने के लिए दबाब न डाला हो । इसलिए यह विवाद अभी तक चला रहता है कि क्या रिंचन सचमुच इस्लाम स्वीकार किया था या फिर परवर्ती फ़ारसी इतिहासकारों ने बुलबुल शाह का रुतबा बढ़ाने के लिए यह कथा प्रचलित की ? इसलिए यह संदेहास्पद है कि रिंचन मुसलमान हो गए थे । यह कथा परवर्ती फ़ारसी इतिहासकारों ने फैलाई । इसी कथा के माध्यम से इन्हीं इतिहासकारों ने सैयद बुलबुल शाह को महिमामंडित करना शुरु कर दिया । महिमामंडित करने के लिए जरुरी था कि वे बुलबुल शाह के हाथों कोई बड़ा शिकार मरवाते । इस्लाम की सेवा में राजा रिंचन के शिकार से बड़ा शिकार क्या हो सकता है ?
रिंचन ने अपने महल के पास ही बुलबुल शाह के लिए एक खानकाह ( पंजाबी भाषा में खानकाह को खानगाह उच्चारित और लिखा जाता है) , जिसे आजकल खानगाह-ए-बुलबुल कहा जाता था , बनाई थी , जिसके साथ लंगरखाना भी था । बुलबुल शाह के लिए उसने श्रीनगर में एक छोटी सी मस्जिद भी बनाई थी । इसलिए कश्मीर में पहली मस्जिद बनाने का ज़िम्मेदार भी रिंचन को ही माना जाता है । यह कथा कश्मीरी जनमानस में तो प्रचलित है परन्तु इसका कोई ऐतिहासिक प्राथमिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है । ज़्यादातर विद्वान इसी के आधार पर इस बात को पक्का मानते हैं कि रिंचन बुलबुल शाह के हाथों मुसलमान हो गए थे और इस खानगाह व मस्जिद को प्रमाण के तौर पर पेश करते हैं । लेकिन कश्मीरी लोक साहित्य में बुलबुल शाह का कहीं ज़िक्र नहीं आता । वह मस्जिद भी जिसे बुलबुल शाह के लिए बनाया गया कहा जाता है , कश्मीरी मानस में ज़िन्दा नहीं है । इसके विपरीत लद्दाखी मानस में यह मस्जिद लद्दाखी मस्जिद के नाम से प्रसिद्ध है । इस तथाकथित मस्जिद की वास्तुकला भी बौद्ध विहार के ज़्यादा नज़दीक़ ठहरती है । रिंचन लद्दाख के राजपरिवार का व्यक्ति था । कश्मीर में जाने के बाद भी उसका लद्दाख से रिश्ता टूटा नहीं होगा । वहाँ से लद्दाखी भोट उससे मिलने के लिए श्रीनगर आते रहते होंगे । उनके ठहरने और भोजन इत्यादि के लिए रिंचन ने लंगरखाना खोला होगा । बुलबुल शाह भी वहाँ ठहरता होगा । इसलिए कालान्तर में यह खानगाह के नाम से प्रसिद्ध हो गया । बौद्धों की पूजा पाठ के लिए रिंचन ने लंगरखाने के साथ ही मठ या विहार बनवाया होगा । वहीं बुलबुल शाह भी नमाज़ पड़ता होगा । इतना निश्चित है कि बुलबुल शाह की शाहमीर के साथ नज़दीक़ियाँ बन गई होंगी । इसलिए रिंचन के राजमहल के नज़दीक़ बने लंगरखाने में ठहरने और मठ में पूजा करने में उसे कोई असुविधा नहीं हुई होगी । कालान्तर में जब अधिकांश कश्मीर घाटी इस्लाम की शरण में चली गई , कश्मीर की भाषा भी फ़ारसी हो गई तो जन स्मृति में वह बौद्ध विहार मस्जिद के नाम से ही जाना जाने लगा । बुलबुल शाह के कारण वह विहार या मठ श्रीनगर में लद्दाखी मस्जिद के नाम से जाना जाने लगा । रिंचन के देहान्त के बाद किसी ने इस मठ की ओर ध्यान नहीं दिया , इसलिए यह जीर्णोद्धार शीर्ष होने लगा । यदि यह मस्जिद होती तो शाहमीर जरुर इसकी मरम्मत ही नहीं करवाता बल्कि इसे भव्य स्वरूप भी देता । यह भवन राजमहल के पास था इसलिए यह कालप्रवाह में गुम तो नहीं हुआ लेकिन उत्तरवर्ती मुस्लिम इतिहास का हिस्सा बन गया । जिस प्रकार कश्मीर घाटी के स्थानों , गाँवों इत्यादि के नामों के इस्लामीकरण का अभियान अभी तक चल रहा है , उसी प्रकार घाटी के मंदिरों/मठों के इस्लामीकरण का अभियान भी चलता रहा और धीरे धीरे बौद्ध मठ , मस्जिद के नाम से जाना जाने लगा । दशकों बाद इस मस्जिद के स्थान की तलाश शुरु हुई । वह स्थान मिल जाने के बाद वहाँ नई मस्जिद का निर्माण करवाया ।
मध्यकाल के एक अन्य इतिहासकार हैदर मलिक ने फ़ारसी भाषा में तारीख़ -ए-कश्मीर की रचना की । हैदर मलिक ने भी रिंचन के मुसलमान बन जाने का ज़िक्र किया है । उसने भी लगभग उपरी कथा को ही दोहराया है । उसके अनुसार,"रिंचन ने काफ़िरों यानि हिन्दुओं को बुला कर कहा कि मुझे अपने पंथ के बारे में बताओ । तब उनके झूठे पंथ से उसकी संतुष्टि नहीं हुई । तब उसने सीधे अल्लाह को सम्बोधित किया । अल्लाह ने अपनी दया के दरवाज़े उसके लिए खोल दिए । उसका भाग्य अच्छा था , उसने अल्लाह की रोशनी में फ़ैसला किया कि कल सुबह उसको जो पहला व्यक्ति अपने महल के बाहर मिलेगा , वह उसी के मज़हब को स्वीकार कर लेगा । दूसरे दिन जब वह अपने महल से बाहर आया तो उसने अपने घर के बाहर एक व्यक्ति प्रार्थना करने में लीन था । इससे पहले उसने प्रार्थना का यह तरीक़ा नहीं देखा था । उसको विश्वास हो गया कि प्रार्थना का यह तरीक़ा पाखंडरहित है और यही प्रार्थना भगवान द्वारा स्वीकृत की जाती है । रिंचन ने उस व्यक्ति से उसका नाम और मज़हब पूछा । उसने अपना नाम बुलबुल और मज़हब इस्लाम बताया और राजा को इस्लाम के बारे में समझाया । क्योंकि ये सभी बातें बुलबुल के दिल से निकल रही थीं , इसलिए इन बातें ने रिंचन के जिल पर सीधा असर किया । वह इस्लाम की मज़बूत रस्सी पर चल पडा ।---- तब रिंचन ने इस्लाम के प्रसार के ऐसे प्रयास किए कि सारी प्रजा मुसलमान हो गई ।"( हैदर मलिक, हिस्ट्री आफ कश्मीर, पृष्ठ 81-82) हैदर की कथा में एक ही पेंच है । उसके अनुसार रिंचन ने किसी आदमी को नमाज़ पढ़ते पहली बार देखा था । तुर्क/मंगोल दुल्चु आठ महीने पूरी घाटी में क़त्लेआम करता रहा और लूटमार करता रहा । दुल्चु की सेना में मध्य एशिया के हज़ारों मुसलमान थे जो कुछ शताब्दियों पहले बुद्धमत छोड़ कर मुसलमान बने थे । यह आश्चर्य की बात है कि इन आठ महीनों में रिंचन ने किसी मुसलमान को नमाज़ पढ़ते देखा नहीं था । रिंचन का दूसरा साथी शाहमीर था । दुल्चु के सैनिक तो नमाज़ पढ़ने में फिर भी कोताही कर सकते थे लेकिन शाहमीर को भी इतने साल में रिंचन ने कभी नमाज़ पढ़ते नहीं देखा । इस पर हैदर मलिक के परवरदगार तो विश्वास कर सकते हैं कोई कश्मीरी कैसे विश्वास कर सकता है जिसका संवाद ही तर्क से शुरु होता है । जब रिंचन ने अल्लाह से सीधा संवाद स्थापित कर लिया और उसे वह इलाही प्रकाश प्राप्त हो चुका था तो 'जो पहले मिलेगा उसी का मज़हब स्वीकार कर लूँगा' की कथा तो अपने आप अप्रासांगिक हो जाती है । इस कथा में तो यह संभावना बची ही रहती है कि दरवाज़े पर कोई भी मिल सकता है । इसका अर्थ तो यह हुआ कि यदि सचमुच रिंचन मुसलमान बना ही था तो वह इलाही प्रकाश होने की वजह से नहीं बल्कि एक सैयद के गहरे षड्यंत्र में फँस कर बना था । यदि वह कभी मुसलमान बना ही नहीं था तो यह कथा कश्मीर के हिन्दु समाज में सैयद बुलबुल शाह की प्रतिष्ठा बढाने के लिए रची गई । इसलिए कहानी का यह हिस्सा गढ़ने की जरुरत नहीं थी क्योंकि यदि हिन्दुओं ने उसको हिन्दु नहीं बनाया थो तो वह सीधा मुसलमान ही बन सकता था । घाटी में और कोई मज़हब था ही नहीं जिसमें जाने का विकल्प उसके पास हो ? तब पूरी कहानी में सैयद बुलबुल शाह को क्यों घसीटा गया है ? इसका मक़सद सिर्फ़ इतना ही है कि सैयद घाटी में अपना रुतबा बढ़ाना चाहते थे और आम कश्मीरियों का यह कह कर डराना चाहते थे कि तुम्हारा राजा ही हमारे कहने पर चलता है , हमसे मार्गदर्शन लेता है तो तुम्हारी क्या औक़ात है ?
हैदर अली की इस कथा को सत्य मानने और बताने वाले एक दूसरे व्यक्ति श्रीनगर के सैफ़ुद्दीन सोज़ ( सैफ़ुद्दीन सोज़ कश्मीर के रहने वाले हैं । अर्थशास्त्र में एम.ए की पढ़ाई करने के बाद कश्मीर के कुछ कालिजों में अध्यापक लगे रहे । बाद में स्कूल एजूकेशन के बोर्ड में सचिव हो गए । कुछ देर तक कश्मीर विश्वविद्यालय में कुलसचिव भी रहे । बाद में राजनीति में चले गए । वहाँ इनका सम्बंध नैशनल कान्फ्रेंस और सोनिया कांग्रेस से जुड़ा रहा ) भी यही मानते हैं कि "बुलबुल शाह ने रिंचन को मुसलमान बनाया और जब कश्मीर के लोगों ने अपने राजा को मुसलमान बनते देखा तो तुरन्त उसका अनुकरण करते हुए मुसलमान हो गए।" ( Saifuddin Soz, Kashmir- Glimpses of history and the story of struggle, page 48) बुलबुल शाह ने रिंचन को मुसलमान बनाया , इसको लेकर तो पक्ष विपक्ष में फिर भी मतभेद हैं लेकिन अपने राजा को मुसलमान बनते देख सारे कश्मीरी मुसलमान बन गए , यह रहस्योदघाटन पहली बार सोज़ ने ही किया है । यह अलग बात है कि इस रहस्योदघाटन को विश्वसनीय बनाने के लिए न तो उन्होंने कोई स्रोत बताया है , न ही कोई तर्क दिया है और न ही उस समय की घटनाओं की कोई ऐसी सिलसिलेवार व्याख्या की है कि उनकी इस बात पर विश्वास किया जा सके । लेकिन फिर भी वे मानते हैं कि रिंचन, जो लद्दाखी बौद्ध था, ने एक दिन पहले इस्लाम को पकड़ा और दूसरे दिन से सभी कश्मीरी भेड़ों की तरह उसका अनुसरण करते हुए मुसलमान होने लगे , और उसके राज के तीन साल के अल्पकाल में सारे कश्मीरी मुसलमान हो गए । हैदर मलिक से प्रमाण की आशा करना तो मध्यकालीन फ़ारसी इतिहास लेखन की शैली को देखते हुए उचित नहीं होगा लेकिन सोज़ तो मध्य युग के नहीं बल्कि इक्कीसवीं शताब्दी में रहते हैं , फिर भी दन्त कथाओं को इतिहास का रंग दे रहे हैं ।
रिंचन के मुसलमान बनने या न बनने की बहस का नतीजा चाहे जो मर्ज़ी हो , लेकिन शासन संभालने के तीन साल बाद ही 1323 में बीमारी से उसकी मौत हो गई और सैफ़ुद्दीन सोज़ आज 2018 में भी यही चाहते हैं कि कश्मीर के लोग इस बात पर विश्वास कर लें कि उनके पूर्वज जिनके ज्ञान की धाक सारे देश में थी , वे लद्दाख के रिंचन को मुसलमान बनते देख तीन साल के अन्दर मुसलमान हो गए । मुझे लगा मैंने अपने छह सौ रुपए जेहलम नदी में फेंक दिए ।
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