पी. के. खुराना
विपक्ष को चाहिए वैकल्पिक नैरेटिव... बाबा रामदेव कहते हैं- "बहुत से चैनल पतंजलि के कारण दीवालिया होने से बचे हुए हैं।" बाबा रामदेव के इस कथन से कोई असहमति नहीं हो सकती। उन्होंने बिलकुल सच कहा। पतंजलि का व्यवसाय हर रोज़ बढ़ रहा है, कंपनी नये-नये उत्पाद बाजार में ला रही है और पतंजलि सचमुच बहुत बड़ा विज्ञापनदाता है। दूसरी तरफ चैनलों के खर्च में बेतहाशा वृद्धि हो रही है, ऐसे में चैनलों का अस्तित्व ही विज्ञापन और स्पांसरशिप से होने वाली आय पर निर्भर करता है। अब इसी कथन के दूसरे पहलू का विश्लेषण करें तो बहुत से नये और विचारणीय तथ्य सामने आते हैं।
प्रधानमंत्री होने के नाते नरेंद्र मोदी सारी सरकारी मशीनरी को नियंत्रित करते हैं। सरकार के धन को खर्च करने का अधिकार भी उन्हें है। नरेंद्र मोदी न केवल प्रचार के रसिया हैं बल्कि वे छोटे से छोटे संसाधन और छोटे से छोटे अवसर का भी लाभ उठाने से नहीं चूकते। कोई भी नई घोषणा करते हैं तो उसके प्रचार में पूरी ताकत झोंक देते हैं। मन की बात के माध्यम से वे हर माह लोगों से रूबरू होते ही हैं, उसके अलावा कभी विभिन्न सम्मेलनों में बोलने और लोगों से मिलने का अवसर, यही नहीं हाल ही में उन्होंने अपने ऐप के ज़रिये आशाकर्मियों और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं से संवाद किया। इस स्तर के जिन लोगों से प्रधानमंत्री का संवाद हो जाए वह तो स्वयं को अत्यंत भाग्यशाली मानेगा ही और उसके मन में प्रधानमंत्री की अलग छवि बनेगी ही। सो, पैसा सरकार का, साधन सरकार के, और सत्ता में होने के कारण लाभ भाजपा को। मोदी की कल्पनाशीलता का कोई अंत नहीं है।
विभिन्न उपचुनावों और विधानसभा चुनावों में पटखनी खाने के बाद मोदी और शाह ने अपनी रणनीति में कई परिवर्तन किये हैं। वे मौके के अनुसार स्वयं को बदलने में, "रीएडजस्ट" करने में माहिर हैं। समय के साथ उनका "नैरेटिव" बदल जाता है, कार्यकर्ताओं के लिए संदेश बदल जाता है, उनका आईटी सेल तुरंत नये क्रिएटिव बनाकर फैला देता है। फिलहाल वे विकास की बातें सिर्फ उन्हीं लोगों से कर रहे हैं जहां वे किसी एक समूह से सीधा संवाद करते हैं। मसलन, महिलाओं के किसी भी समूह से बात करते वक्त वे महिलाओं से जुड़ी योजनाओं और उसके लाभों का जिक्र करते हैं। किसी भी अन्य राजनीतिक दल में वैसी गति और चुस्ती नहीं है हालांकि कांग्रेस और राजद ने अपने आप को बहुत संभाला है और राहुल गांधी के व्यंग्य भरे तीरों तथा रणदीप सुरजेवाला के रिसर्च से निकले तथ्यों ने भाजपा को निरंतर घायल किया है तो भी इसमें कोई शक नहीं कि वे सरकारी संसाधनों का मुकाबला कर पाने में कठिनाई महसूस कर रहे हैं।
यह भी मोदी की कल्पनाशीलता का कमाल है कि सरकारी संसाधनों के अलावा प्रधानमंत्री मोदी अवसर आने पर कई छुपे हथियारों के प्रयोग से भी चूकते नहीं हैं। पेटीएम उनमें से एक है, पतंजलि दूसरा है। यह फुसफुसाहट यूं ही नहीं है कि पेटीएम का सारा डेटा भाजपा की सेवा में उपलब्ध है तथा पतंजलि के विज्ञापन की शक्ति से मीडिया को नियंत्रित किया जा रहा है। मोदी के बहुत से अन्य "मित्र" भी उनकी सहायता में पीछे नहीं हैं। किसी भी चैनल ने जरा भी विरोधी स्वर दिखाया कि पतंजलि के विज्ञापन रोकने का डर दिखा दिया जाता है। जनता को पता भी नहीं चलता और मोदी का हथियार अपना काम कर जाता है।
चुनावों में सीमित सफलता के बाद विपक्ष में आत्मविश्वास लौटा है तो मोदी-शाह की जोड़ी ने भी उसकी काट खोजने के तरीके निकालने शुरू कर दिये हैं। विकास का तुर्रा नहीं चल रहा तो न सही, धर्म, जाति, क्षेत्र, पाकिस्तान, जो भी हथियार चले उसे चलाओ। इसमें कोई शक नहीं कि विपक्षी दलों के अधिकांश नेता आर्थिक गोलमाल के मामलों के दोषी हैं इसलिए प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई भी मोदी के तरकश के प्रभावी तीर हैं। वे लगातार इनका उपयोग करते रहे हैं और अब भी कर रहे हैं।
संसाधनों और उनके उपयोग की कल्पनाशीलता एक पक्ष है, कुछ अन्य पक्ष भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। जाति और धर्म के नाम पर होने वाली राजनीति उसका सबसे बड़ा उदाहरण है। कभी मायावती दलित वोटों की अकेली सूबेदार थीं लेकिन आज उत्तर प्रदेश में ही दलितों के कई छोटे-छोटे राजनीतिक गुट उभर आये हैं और उनमें से बहुत से ऐसे गुट हैं जो कभी बहुजन समाज पार्टी में थे जो अब टूट कर अलग हो गये हैं और कुछ सीमित क्षेत्रों में उनका प्रभाव भी है। दलित युवा दल, बहुजन आजाद पार्टी, राष्ट्रीय बहुजन मोर्चा, मिशन सुरक्षा परिषद, बहुजन सामाजिक परिवर्तन मंच, दलित फेडरेशन, दलित कारवां अंबेडकर आर्मी, दलित रिवोल्यूशन, बहुजन समाज स्वाभिमान संघर्ष समिति यानी बीएस4 ऐसे ही दल हैं जो मायावती की परेशानी का कारण बन रहे हैं। इसी तरह बहुत से छोटे-छोटे विपक्षी दल शेष विपक्षी दलों के लिए परेशानी का कारण बने हुए हैं।
इससे भी बड़ी और सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि विपक्ष के पास अभी तक भी अपना कोई नैरेटिव, अपना कोई संदेश, अपनी कोई कार्य-योजना, कोई प्लान ऑव एक्शन नहीं है। मोदी की आलोचना से जनता का पेट नहीं भरता। यह कोई नहीं बताता कि मोदी के बाद यदि कोई विपक्षी दल अथवा गठबंधन सत्ता में आता है तो वह मोदी से अलग क्या करेगा? इस मुद्दे पर तो उन छोटे राजनीतिक दलों की प्रशंसा करनी पड़ेगी जो लगभग गुमनाम हैं पर जिनके पास अपना अलग नज़रिया है। जागो पार्टी आरक्षण समाप्त करने, वंचितों को रोजगार के काबिल बनाने के लक्ष्य पर चल रही है, सैनिक समाज पार्टी, फोरम फार प्रेजि़डेंशियल डेमोक्रेसी तथा हिंदुस्तान एकता पार्टी अमरीकी प्रणाली की राष्ट्रपति पद्धति की वकालत करते हैं।
हिंदुस्तान एकता पार्टी, शासन में जनता की सक्रिय भागीदारी, शक्तियों के विकेंद्रीकरण और पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र की भी बात करती है। यह खेद का विषय है कि बड़े विपक्षी दल ऐसे किसी नैरेटिव से या तो सहमत नहीं हैं या फिर उनके पास नैरेटिव का ही अभाव है। कांग्रेस कई दशकों तक सत्ता में रही है। उसके पास अनुभवी लोगों की कमी नहीं है। होना तो यह चाहिए कि वह कोई शैडो कैबिनेट बनाए और सरकार के हर विभाग के कामकाज की समीक्षा करते हुए अपनी वैकल्पिक नीति से अवगत कराए। विपक्षी दल यदि जनता का समर्थन चाहते हैं तो उन्हें महागठबंधन बनाने के साथ ही एक विश्वसनीय नैरेटिव भी बनाना होगा, वैकल्पिक नीतियों का खुलासा करना होगा, अन्यथा वैकल्पिक नीतियों के बिना विपक्ष अथवा विपक्षी महागठबंधन की सार्थकता पर प्रश्नचिह्न बने रहेंगे।
पी. के. खुराना स्तंभकार हैं.
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