10.7.19

मोदी लिखेंगे विपक्ष की तकदीर!

दिनेश दीनू की कलम से
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 17 जून को संसद में कहा कि मजबूत विपक्ष लोकतंत्र के लिए जरूरी है। मोदी का यह कथन वास्तव में विपक्ष के प्रति सम्मान है या विपक्ष को सम्मोहित करने की कला? मोदी के कहे का अर्थ आप अपने हिसाब से कुछ निकाल लें, लेकिन उन्होंने क्यों कहा है और उसका अर्थ क्या है, वह ही जानते हैं। कहे में फंसाने की कला मोदी में है। 2014 से दिल्ली की उनकी यात्रा से विपक्ष उनके आगे बौना बना हुआ है। 2019 के लोकसभा चुनावों के परिणामों ने तो विपक्ष को छिन्न-भिन्न कर दिया है।


ऐसे में यह सोचना लाजिमी है कि वह एकाएक सक्रिय और मजबूत विपक्ष की जरूरत अच्छे लोकतंत्र के लिए क्यों बताने लगे हैं? मोदी के स्टेप को परखने-समझने वालों के मत को देखा जाए, तो मोदी विपक्ष को साध करके राज्यसभा में काम निकलवाना चाहते हैं। इसके लिए वह साम-दाम-दंड-भेद कर रहे हैं। विपक्ष को पुचकारते हुए उन्होंने कहा भी कि जब हम संसद में आते हैं, तो हमें पक्ष-विपक्ष को भूल जाना चाहिए। हमें निष्पक्ष होना चाहिए। दरअसल, मोदी के सामने बेरोजगारी, किसानों की समस्याओं को विपक्ष उठाएगा। मोदी को ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ और ‘तीन तलाक’ पर सहमति बनानी है। लोकसभा और विधानसभा में 33 फीसदी महिला आरक्षण का विधेयक 22 वर्षों से पेंडिंग है। मोदी इस विधेयक को भी लाना चाहते हैं। राज्यसभा में बहुमत न होने से उनके पहले कार्यकाल के अनेक विधेयक फंसे हुए हैं। इसलिए विपक्ष के गुब्बारे में मोदी ने लोकतंत्र के नाम पर हवा भर दी है।

यह सही है कि लोकतंत्र का स्वास्थ्य ठीक रहे, उसके लिए जरूरी है कि सत्ता के सामने सक्रिय और मजबूत विपक्ष हो, वरना सत्ता को मदमस्त होने का खतरा रहता है। डॉ. राममनोहर लोहिया वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सत्तापक्ष के मुकाबले में एक मजबूत विपक्ष की परिकल्पना ही नहीं की, बल्कि उसे ताकतवर भी बनाया। उनका मानना था कि सत्ता पर भारी पडऩे के लिए मजबूत विपक्ष का होना ‘लोकतंत्र की सेहत’ के लिए जरूरी है। लोकतंत्र में विपक्ष के मजबूत पांव 1967 में आए, जब लोहिया ने कांग्रेस से अलग होकर एक अलग दल बनाया। नतीजा रहा कि 1967 में कांग्रेस पार्टी 7 राज्यों में चुनाव हार गई। पहली बार विपक्ष कांग्रेस के सामने सीना तानकर खड़ा हुआ। राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण की जोड़ी बनती और विपक्ष के पांव मजबूत होते कि लोहिया महायात्रा पर निकल गए। लेकिन लोहिया ने लोकतंत्र को मजबूत बनाए रखने के लिए जो नींव डाल दी थी, उस नींव को सींचने के लिए 1975 में जयप्रकाश नारायण ‘जेपी’ बनकर भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में लौटे।

नतीजा रहा कि 1977 के लोकसभा चुनाव में विपक्षी पार्टियां एक साथ आईं और 25 वर्षों से केंद्र में जमी सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। यह चुनाव आपातकाल के विरुद्ध लड़ा गया था। सत्ता के मदमस्त होने का खतरा बढ़ रहा था, तभी विपक्ष ने अपने वार से मदमस्त हो गई सत्ता को नकेल डाल दी। 1977 के बाद विपक्ष मजबूत रहा। समय-समय पर सत्तापक्ष को आंख ही नहीं दिखाता रहा, बल्कि उसे धराशाई भी करता रहा। आज हालात उलट दिख रहे हैं। विपक्ष कमजोरी के उस पायदान तक पहुंच गया है, जहां से उठने में समय लगेगा। दरअसल, इसका जिम्मेदार खुद विपक्ष है। परिस्थितियों के हिसाब से विपक्ष एकता का स्वांग तो रचता है, लेकिन ‘मैं बड़ा’ के चक्कर में एक नहीं हो पाता। स्वार्थ और क्षेत्रीय राजनीति के पहलवान बने रहने के फेर में वह कहीं का नहीं रहता। 2019 चुनाव ताजा उदाहरण है।

2018 में कर्नाटक में विपक्षी एकता का जो प्रदर्शन हुआ था, यदि उसे बिना स्वार्थ के कायम रखा जाता, तो संभवत: भाजपा दोबारा बहुमत से सत्ता में नहीं लौटती। 1977 दोहराने की हिम्मत विपक्ष में नहीं थी। मोदी वह करिश्माई नेता हैं, जो विपक्ष की कमर तोडऩे में माहिर हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए भी उन्होंने वहां पर विपक्ष को अपने आगे बौना करके रखा था। 2 सीटों वाली भारतीय जनता पार्टी आज लोकसभा में 303 सीटों तक पहुंच गई है। इस उड़ान के लिए आज का विपक्ष ही जिम्मेदार है। सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस जहां पहुंच गई है, उसके लिए वह खुद जिम्मेदार है। वे क्षेत्रीय पार्टियां जिनकी भागीदारी केंद्र की सत्ता में होती रहीं, वे भी वर्तमान में हवाहवाई हैं।

ऐसे में क्या भारतीय लोकतंत्र विपक्ष के बिना मजबूत रह पाएगा? कमजोर विपक्ष से सत्ता का मदमस्त होना लोकतंत्र के लिए खतरनाक भी हो सकता है। क्या ‘लोकतंत्र की सेहत’ के लिए विपक्ष स्वार्थों से परे होकर एक ऐसा माला बनाएगी, जो सत्तापक्ष को मदमस्त होने से रोक सके। वरना, मोदी है तो सब मुमकिन है।

Vineet Verma
vineetverma100@gmail.com

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