तारकेश्वर : गरीबों का अमरनाथ ....!!
तारकेश कुमार ओझा
पांच, दस, पंद्रह या इससे भी ज्यादा ...। हर साल श्रावण मास की शुरूआत के साथ ही मेरे जेहन में यह सवाल सहजता से कौंधने लगता है। संख्या का सवाल श्रावण में कंधे पर कांवड़ लेकर अब तक की गई मेरी तारकेश्वर की पैदल यात्रा को लेकर होती है। आज भी शिव भक्तों को कांवड़ लेकर तारकेश्वर की ओर जाता देख रोमांच से भर कर मैं उन्हें हसरत भरी नजरों से देर तक उसी तरह देखता रहता हूं मानो गुजरे जमाने का कोई फुटबॉल खिलाड़ी नए लड़कों को फुटबॉल खेलता देख रहा हो। पहले श्रावण शुरू होते ही मेरे पांव सेवड़ाफुल्ली से तारकेश्वर धाम की ओर जाने को बेचैन हो उठते थे। सोच रखा था जब तक शरीर साथ देगी हर श्रावण में कंधे पर कांवड़ लटका कर सेवड़ाफुल्ली से तारकेश्वर तक की पैदल यात्रा अवश्य करुंगा। हालांकि कई कारणों से मेरी यह कांवड़ यात्रा पिछले कई सालों से बंद है। लेकिन इस यात्रा के प्रति मेरा लगाव अब भी जस का तस कायम है। हालांकि यह सच है कि पिछले दो दशकों की अवधि में कांवड़ यात्रा में बड़ा परिवर्तन आया है। क्योंकि पहले यह यात्रा नितांत व्यक्तिगत आस्था का विषय थी। तब कांवड़ यात्रा को न तो इतना प्रचार मिलता था और न ये राजनीतिकों की रडार पर रहती थी। भोले की भक्ति मुझे संस्कार में मिली , लेकिन तारकेश्वर की कांवड़ यात्रा के प्रति मेरी दो कारणों से आसक्ति हुई। पहला कांवड़ लेकर पैदल चलते समय शिव से सीधे साक्षात्कार से हासिल आध्यात्मिक अनुभव से मिलने वाली असीम शांति और दूसरा सेवड़ाफुल्ली से तारकेश्वर तक पग - पग पर नजर आने वाला स्वयंसेवी संस्थाओं का अनन्य सेवा भाव। जिसे प्रत्यक्ष देखे बिना महसूस करना मुश्किल है। पता नहीं स्वयंसेवकों में यह कैसी श्रद्धा जाग उठती है जो महंगी से महंगी चीजें कांवड़ियों को खिलाने के लिए उन्हें बेचैन किए रहती है। बगैर मौसम की मार या दिन - रात की चिंता किए। कांवड़िए के कीचड़ से सने पांवों को भी सहलाने और जख्मों पर मरहम लगाने से भी उन्हें गुरेज नहीं। वाकई बाबा भोले की गजब महिमा है। कहते हैं जब तक बाबा बुलाए नहीं कोई उनके दरबार में नहीं पहुंच सकता। आप बनाते रहिए योजना पर योजना। लेकिन बदा नहीं होगा तो सारी प्लानिंग धरी की धरी रह जाएगी। वहीं कोई ऐसा बंदा भी कांवड़ लेकर बाबा के दरबार पहुंच जाता है, जिसने कभी इस बारे में सोचा तक नहीं था। अपनी कांवड़ यात्रा के दौरान मैने ऐसे कई लोगों को पैदल चलते देखा जिनकी भाव भंगिमा और देह भाषा बताती है कि वे बगैर एयरकंडीशंड के शायद नहीं रह पाते होंगे, नंगे पांव जमीन पर चलना तो बहुत दूर की बात है। लेकिन भक्ति के वशीभूत वे भी कांवड़ लिए चले जा रहे हैं। पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से 58 किलोमीटर की दूरी पर बसा तारकेश्वर हुगली जिले का प्रमुख शहर है। इस शहर का नाम भी तारकेश्वर मंदिर के ऊपर ही पड़ा। इस मंदिर के निर्माण और आस्था का रोचक इतिहास है। पूर्व रेलवे के हावड़ा - सेवड़ाफुल्ली - तारकेश्वर रेल खंड का यह आखिरी स्टेशन है। वाकई तारकेश्वर धाम की कांवड़ यात्रा को यदि गरीबों का अमरनाथ कहा जाए तो गलत नहीं होगा। क्योंकि आस्थावान ऐसे लोगों का बड़ा समूह जिनके लिए तीर्थ , रोमांच या भ्रमण आदि पर खर्च करना संभव नहीं है श्रावण में तारकेश्वर की कांवड़ यात्रा वे भी हंसते - हंसते कर जाते हैं। दीघा या अन्य किसी स्थान का बस का किराया भी जितनी रकम से संभव न हो उससे भी कम पैसे में तारकेश्वर की यात्रा मुमकिन थी। यह सब स्वयंसेवी संस्थाओं की उदारता से संभव हो पाता है। कांवड़ यात्रा के दौर में मैने खुद अनुभव किया और दूसरे श्रद्धालुओं से भी पता लगा कि दूसरे तीर्थ या भ्रमण स्थल के विपरीत तारकेश्वर की कांवड़ यात्रा में पैसे कभी बाधक नहीं बनते। क्योंकि रास्ते में खान - पान से लेकर दवा तक का निश्शुल्क इंतजाम बहुतायत में रहता है। सेवड़ाफुल्सी से जल लेकर चलने पर पहला पड़ाव डकैत काली होती है, जो पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। अब तो डकैत काली से पहले ही कई स्वयंसेवी संस्थाओं के शिविर नजर आने लगे हैं। इसके बाद तो थोड़ी - थोड़ी दूर पर सड़क के दोनों ओर शिविर ही शिविर दिखाई देते हैं, जो कांवड़ियों की सेवा को हमेशा तत्पर नजर आते हैं। सेवड़ाफुल्ली से तारकेश्वर के बींचोबीच काशी विश्वनाथ नाम का बड़ा बड़ा शिविर हैं, जहां पहुंच कर कांवड़ियों को खुद के वीआइपी होने का भ्रम होता है। गर्म पानी के टब में थके पांवों को डुबों कर राहत पाने का सुख निराला होता है। इसके बाद भी कई शिविरों से होते हुए कांवड़िए जब लोकनाथ पहुंचते हैं तो उन्हें अहसास हो जाता है कि वे बाबा के मंदिर पहुंच चुके हैं। यहां जल चढ़ाने के बाद कांवड़िये बाबा के मंदिर की ओर रवाना होते हैं। कहते हैं बाबा इस चार किलोमीटर की दूरी पर भक्त की की कड़ी परीक्षा लेते हैं, क्योंकि नजदीक पहुंच कर भी भक्तों को लगता है उनसे अब नहीं चला जाएगा। लेकिन रोते - कराहते भक्त बाबा के दरबार में पहुंच ही जाते हैं। दो दशक पहले तक की गई अपनी कांवड़ यात्राओं में मैने अनेक ऐसे श्रद्धालुओं को देखा जिनके लिए किसी तीर्थ पर सौ रुपये खर्च कर पाना भी संभव नहीं , लेकिन उनकी यात्रा भी हर साल बेखटके पूरी होती रही। वाकई तारकेश्वर की कांवड़ यात्रा को गरीबों का अमरनाथ कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा।
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*लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार
हैं।------------------------------**------------------------------*
तारकेश कुमार ओझा
पांच, दस, पंद्रह या इससे भी ज्यादा ...। हर साल श्रावण मास की शुरूआत के साथ ही मेरे जेहन में यह सवाल सहजता से कौंधने लगता है। संख्या का सवाल श्रावण में कंधे पर कांवड़ लेकर अब तक की गई मेरी तारकेश्वर की पैदल यात्रा को लेकर होती है। आज भी शिव भक्तों को कांवड़ लेकर तारकेश्वर की ओर जाता देख रोमांच से भर कर मैं उन्हें हसरत भरी नजरों से देर तक उसी तरह देखता रहता हूं मानो गुजरे जमाने का कोई फुटबॉल खिलाड़ी नए लड़कों को फुटबॉल खेलता देख रहा हो। पहले श्रावण शुरू होते ही मेरे पांव सेवड़ाफुल्ली से तारकेश्वर धाम की ओर जाने को बेचैन हो उठते थे। सोच रखा था जब तक शरीर साथ देगी हर श्रावण में कंधे पर कांवड़ लटका कर सेवड़ाफुल्ली से तारकेश्वर तक की पैदल यात्रा अवश्य करुंगा। हालांकि कई कारणों से मेरी यह कांवड़ यात्रा पिछले कई सालों से बंद है। लेकिन इस यात्रा के प्रति मेरा लगाव अब भी जस का तस कायम है। हालांकि यह सच है कि पिछले दो दशकों की अवधि में कांवड़ यात्रा में बड़ा परिवर्तन आया है। क्योंकि पहले यह यात्रा नितांत व्यक्तिगत आस्था का विषय थी। तब कांवड़ यात्रा को न तो इतना प्रचार मिलता था और न ये राजनीतिकों की रडार पर रहती थी। भोले की भक्ति मुझे संस्कार में मिली , लेकिन तारकेश्वर की कांवड़ यात्रा के प्रति मेरी दो कारणों से आसक्ति हुई। पहला कांवड़ लेकर पैदल चलते समय शिव से सीधे साक्षात्कार से हासिल आध्यात्मिक अनुभव से मिलने वाली असीम शांति और दूसरा सेवड़ाफुल्ली से तारकेश्वर तक पग - पग पर नजर आने वाला स्वयंसेवी संस्थाओं का अनन्य सेवा भाव। जिसे प्रत्यक्ष देखे बिना महसूस करना मुश्किल है। पता नहीं स्वयंसेवकों में यह कैसी श्रद्धा जाग उठती है जो महंगी से महंगी चीजें कांवड़ियों को खिलाने के लिए उन्हें बेचैन किए रहती है। बगैर मौसम की मार या दिन - रात की चिंता किए। कांवड़िए के कीचड़ से सने पांवों को भी सहलाने और जख्मों पर मरहम लगाने से भी उन्हें गुरेज नहीं। वाकई बाबा भोले की गजब महिमा है। कहते हैं जब तक बाबा बुलाए नहीं कोई उनके दरबार में नहीं पहुंच सकता। आप बनाते रहिए योजना पर योजना। लेकिन बदा नहीं होगा तो सारी प्लानिंग धरी की धरी रह जाएगी। वहीं कोई ऐसा बंदा भी कांवड़ लेकर बाबा के दरबार पहुंच जाता है, जिसने कभी इस बारे में सोचा तक नहीं था। अपनी कांवड़ यात्रा के दौरान मैने ऐसे कई लोगों को पैदल चलते देखा जिनकी भाव भंगिमा और देह भाषा बताती है कि वे बगैर एयरकंडीशंड के शायद नहीं रह पाते होंगे, नंगे पांव जमीन पर चलना तो बहुत दूर की बात है। लेकिन भक्ति के वशीभूत वे भी कांवड़ लिए चले जा रहे हैं। पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से 58 किलोमीटर की दूरी पर बसा तारकेश्वर हुगली जिले का प्रमुख शहर है। इस शहर का नाम भी तारकेश्वर मंदिर के ऊपर ही पड़ा। इस मंदिर के निर्माण और आस्था का रोचक इतिहास है। पूर्व रेलवे के हावड़ा - सेवड़ाफुल्ली - तारकेश्वर रेल खंड का यह आखिरी स्टेशन है। वाकई तारकेश्वर धाम की कांवड़ यात्रा को यदि गरीबों का अमरनाथ कहा जाए तो गलत नहीं होगा। क्योंकि आस्थावान ऐसे लोगों का बड़ा समूह जिनके लिए तीर्थ , रोमांच या भ्रमण आदि पर खर्च करना संभव नहीं है श्रावण में तारकेश्वर की कांवड़ यात्रा वे भी हंसते - हंसते कर जाते हैं। दीघा या अन्य किसी स्थान का बस का किराया भी जितनी रकम से संभव न हो उससे भी कम पैसे में तारकेश्वर की यात्रा मुमकिन थी। यह सब स्वयंसेवी संस्थाओं की उदारता से संभव हो पाता है। कांवड़ यात्रा के दौर में मैने खुद अनुभव किया और दूसरे श्रद्धालुओं से भी पता लगा कि दूसरे तीर्थ या भ्रमण स्थल के विपरीत तारकेश्वर की कांवड़ यात्रा में पैसे कभी बाधक नहीं बनते। क्योंकि रास्ते में खान - पान से लेकर दवा तक का निश्शुल्क इंतजाम बहुतायत में रहता है। सेवड़ाफुल्सी से जल लेकर चलने पर पहला पड़ाव डकैत काली होती है, जो पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। अब तो डकैत काली से पहले ही कई स्वयंसेवी संस्थाओं के शिविर नजर आने लगे हैं। इसके बाद तो थोड़ी - थोड़ी दूर पर सड़क के दोनों ओर शिविर ही शिविर दिखाई देते हैं, जो कांवड़ियों की सेवा को हमेशा तत्पर नजर आते हैं। सेवड़ाफुल्ली से तारकेश्वर के बींचोबीच काशी विश्वनाथ नाम का बड़ा बड़ा शिविर हैं, जहां पहुंच कर कांवड़ियों को खुद के वीआइपी होने का भ्रम होता है। गर्म पानी के टब में थके पांवों को डुबों कर राहत पाने का सुख निराला होता है। इसके बाद भी कई शिविरों से होते हुए कांवड़िए जब लोकनाथ पहुंचते हैं तो उन्हें अहसास हो जाता है कि वे बाबा के मंदिर पहुंच चुके हैं। यहां जल चढ़ाने के बाद कांवड़िये बाबा के मंदिर की ओर रवाना होते हैं। कहते हैं बाबा इस चार किलोमीटर की दूरी पर भक्त की की कड़ी परीक्षा लेते हैं, क्योंकि नजदीक पहुंच कर भी भक्तों को लगता है उनसे अब नहीं चला जाएगा। लेकिन रोते - कराहते भक्त बाबा के दरबार में पहुंच ही जाते हैं। दो दशक पहले तक की गई अपनी कांवड़ यात्राओं में मैने अनेक ऐसे श्रद्धालुओं को देखा जिनके लिए किसी तीर्थ पर सौ रुपये खर्च कर पाना भी संभव नहीं , लेकिन उनकी यात्रा भी हर साल बेखटके पूरी होती रही। वाकई तारकेश्वर की कांवड़ यात्रा को गरीबों का अमरनाथ कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा।
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*लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार
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