सी.एस. राजपूत
नई दिल्ली। हाल ही में केंद्र सरकार ने जो इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड बिल लोकसभा में पेश किया वह श्रमिकों को और मुश्किल में डालने वाला है। मोदी सरकार ने पूंजपीतियों को राहत देते हुए और श्रमिक यूनियनों पर शिकंजा कसते हुए इसके विभिन्न प्रावधानों में औद्योगिक संस्थानों में हड़ताल करने को कठिन बनाया गया है और बर्खास्तगी को आसान कर दिया गया है।
विपक्षी सदस्य अधीर रंजन चौधरी और सौगत राय इस विधेयक को संसदीय समिति के हवाले किए जाने की मांग कर रहे थे। हालांकि श्रम मंत्री संतोष कुमार गंगवार ने विधेयक को पेश करते हुए इसमें श्रमिकों के हितों का पूरा ख्याल रखे जाने की बात कही है। जानकारी निकल कर सामने आई है उसके आधार पर इस विधेयक में श्रमिकों की फिक्स्ड टर्म एंप्लॉयमेंट, यानी एक नियत अवधि के लिए रोजगार एक नई श्रेणी बनाई गई है।
इस अवधि के समाप्त होने पर कामगार का रोजगार अपने आप खत्म हो जाएगा। मतलब ठेकेदारी प्रथा को बढ़ावा दिया गया है। इस व्यवस्था में श्रमिक के और शोषण की पूरी व्यवस्था मोदी सरकार ने कर दी है। इससे पास होने पर खुद मालिकान भी ठेकेदार की श्रेणी में आ जाएंगे। मतलब इसके जरिए औद्योगिक संस्थान ठेकेदार के जरिए श्रमिकों को रोजगार देने के बजाय अब खुद ही ठेके पर लोगों को रोजगार दे सकेंगे। हालांकि इस श्रेणी के कामगारों को तनख्वाह और सुविधाएं नियमित कर्मचारियों जैसी ही मिलने की बातें कही जा रही हैं पर इन कर्मचारियों के साथ ठेके पर काम करने वाले कर्मचारियों के साथ जैसा व्यवहार होने की पूरी आशंका है।
अब तक किसी संस्थान में जो श्रमिक संगठन बन जाते थे उन पर भी पूरी तरह से शिकंजा कसने की तैयारी इस बिल में की गई है। इस बल के पास होने पर किसी भी संस्थान में श्रमिक संघ को तभी मान्यता मिलेगी, जब उस संस्थान के कम से कम 75 प्रतिशत कामगारों का समर्थन उस संघ को हो। इससे पहले यह सीमा 66 प्रतिशत थी।
नए विधेयक के तहत सामूहिक आकस्मिक अवकाश को हड़ताल की संज्ञा दी जाएगी और हड़ताल करने से पहले कम से कम 14 दिन का नोटिस देना होगा।
मुआवजा घटा : इस बिल में औद्योगिक घरानों का पूरी तरह से ध्यान रखा गया है। अब नौकरी जाने की सूरत में किसी भी कर्मचारी को उस संस्थान में किए गए हर वर्ष काम के लिए 15 दिनों की तनख्वाह का ही मुआवजा मिलेगा। इससे पहले के विधेयक में हर वर्ष के काम के बदले 45 दिन के मुआवजे का प्रावधान था। मतलब जब महंगाई बढ़ने पर यह बढ़ना चाहिए था, इसे एक तिहाई कर दिया गया है। हालांकि बिल को मैनेज करने के लिए नौकरी से निकाले जा रहे कर्मचारी को नए कौशल अर्जित करने का मौका मिलेगा जिससे उसे दोबारा रोजगार मिल सके। इसका खर्च पुराना संस्थान ही उठाएगा। मतलब वह प्रबंधन के सामने गिड़गिड़ा कर आये और जब तक काम करे दबाव में करे। एक तरह से श्रमिकों की आजादी छीनने की पूरी तैयारी इस बिल में कर ली गई है।
तीन कानून खत्म : इस बिल में सबसे अधिक अटैक ट्रेड यूनियनों पर किया गया है। इस कानून के बनने पर ट्रेड यूनियन एक्ट 1926, इंडस्ट्रियल एंप्लॉयमेंट एक्ट 1946 और इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स एक्ट 1947 अपने आप खत्म हो जाएंगे। केंद्र सरकार इस विधेयक को लाने का उद्देश्य देश में काम करने की सुगमता यानी ईज ऑफ डूइंग बिजनेस की रैंकिंग बेहतर करना बता रही है।
श्रम सुधार का हिस्सा : श्रम सुधारों को तेज करने के लिए श्रम मंत्रालय ने 44 श्रम कानूनों को चार कोर्ट में बांटने का जिम्मा उठाया था - वेतन औद्योगिक संबंध, सामाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य, सुरक्षा और काम करने की स्थितियां। इनमें से वेतन संबंधी श्रम कोड को संसद ने अगस्त में ही पारित कर दिया था, जबकि स्वास्थ्य सुरक्षा और काम करने की स्थितियां संबंधी विधेयक श्रम संबंधी संसदीय समिति के हवाले है।
विपक्ष ने किया विरोध : विपक्ष ने इस बिल को श्रमिक विरोधी बताते हुए इसका विरोध किया है। आरएसपी के एनके प्रेमचंद्रन, टीएमसी के सौगत रॉय और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष अधीर रंजन चौधरी ने बिल पेश किये जाने का विरोध करते हुए इसे श्रम मामलों की संसदीय समिति के पास भेजने की मांग की है।
प्रेमचंद्रन ने कहा, इसमें राज्यों से जरूरी परामर्श नहीं किया गया है। वहीं सौगत रॉय ने कहा, यह श्रमिक विरोधी बिल है, इसके लिए किसी मजदूर संगठन ने कभी मांग नहीं की। सरकार इस बिल को उद्योग संगठन की मांग पर लेकर आई है।
इस पर श्रम मंत्री संतोष गंगवार ने कहा, इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो श्रमिक विरोधी हो। यह विधेयक सरकार के चार कानूनों में मजदूरों से संबंधित 44 विधानों को समाहित करके श्रम कानूनों में सुधार की पहल का हिस्सा है। कैबिनेट ने इस बिल को 20 नवंबर को मंजूरी दे दी थी।
दिलचस्प बात यह है कि जिस युवा को रोजगार की चिंता होनी चाहिए वह धर्म और जाति के आधार पर देश में चल राजनीति में मशगूल हो गया है। मोदी सरकार देश के युवा को भावनात्मक मुद्दों में उलजाकर पूंजपीतियों को बढ़ावा देने के सभी रास्ते खोलती जा रही है और लोग इस सरकार को देश का उद्धारक समझ रही है। वैसे तो मोदी सरकार में रोजगार में बड़े स्तर पर कटौती हुई है। फिर भी जो कुछ रोजगार बचा हुआ है उसमें शोषण चरम पर है। अब इस बिल के पास होने के बाद यह शोषण और बढ़ने की आशंका है।
लेखक चरण सिंह राजपूत सोशल एक्टिविस्ट हैं.
नई दिल्ली। हाल ही में केंद्र सरकार ने जो इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड बिल लोकसभा में पेश किया वह श्रमिकों को और मुश्किल में डालने वाला है। मोदी सरकार ने पूंजपीतियों को राहत देते हुए और श्रमिक यूनियनों पर शिकंजा कसते हुए इसके विभिन्न प्रावधानों में औद्योगिक संस्थानों में हड़ताल करने को कठिन बनाया गया है और बर्खास्तगी को आसान कर दिया गया है।
विपक्षी सदस्य अधीर रंजन चौधरी और सौगत राय इस विधेयक को संसदीय समिति के हवाले किए जाने की मांग कर रहे थे। हालांकि श्रम मंत्री संतोष कुमार गंगवार ने विधेयक को पेश करते हुए इसमें श्रमिकों के हितों का पूरा ख्याल रखे जाने की बात कही है। जानकारी निकल कर सामने आई है उसके आधार पर इस विधेयक में श्रमिकों की फिक्स्ड टर्म एंप्लॉयमेंट, यानी एक नियत अवधि के लिए रोजगार एक नई श्रेणी बनाई गई है।
इस अवधि के समाप्त होने पर कामगार का रोजगार अपने आप खत्म हो जाएगा। मतलब ठेकेदारी प्रथा को बढ़ावा दिया गया है। इस व्यवस्था में श्रमिक के और शोषण की पूरी व्यवस्था मोदी सरकार ने कर दी है। इससे पास होने पर खुद मालिकान भी ठेकेदार की श्रेणी में आ जाएंगे। मतलब इसके जरिए औद्योगिक संस्थान ठेकेदार के जरिए श्रमिकों को रोजगार देने के बजाय अब खुद ही ठेके पर लोगों को रोजगार दे सकेंगे। हालांकि इस श्रेणी के कामगारों को तनख्वाह और सुविधाएं नियमित कर्मचारियों जैसी ही मिलने की बातें कही जा रही हैं पर इन कर्मचारियों के साथ ठेके पर काम करने वाले कर्मचारियों के साथ जैसा व्यवहार होने की पूरी आशंका है।
अब तक किसी संस्थान में जो श्रमिक संगठन बन जाते थे उन पर भी पूरी तरह से शिकंजा कसने की तैयारी इस बिल में की गई है। इस बल के पास होने पर किसी भी संस्थान में श्रमिक संघ को तभी मान्यता मिलेगी, जब उस संस्थान के कम से कम 75 प्रतिशत कामगारों का समर्थन उस संघ को हो। इससे पहले यह सीमा 66 प्रतिशत थी।
नए विधेयक के तहत सामूहिक आकस्मिक अवकाश को हड़ताल की संज्ञा दी जाएगी और हड़ताल करने से पहले कम से कम 14 दिन का नोटिस देना होगा।
मुआवजा घटा : इस बिल में औद्योगिक घरानों का पूरी तरह से ध्यान रखा गया है। अब नौकरी जाने की सूरत में किसी भी कर्मचारी को उस संस्थान में किए गए हर वर्ष काम के लिए 15 दिनों की तनख्वाह का ही मुआवजा मिलेगा। इससे पहले के विधेयक में हर वर्ष के काम के बदले 45 दिन के मुआवजे का प्रावधान था। मतलब जब महंगाई बढ़ने पर यह बढ़ना चाहिए था, इसे एक तिहाई कर दिया गया है। हालांकि बिल को मैनेज करने के लिए नौकरी से निकाले जा रहे कर्मचारी को नए कौशल अर्जित करने का मौका मिलेगा जिससे उसे दोबारा रोजगार मिल सके। इसका खर्च पुराना संस्थान ही उठाएगा। मतलब वह प्रबंधन के सामने गिड़गिड़ा कर आये और जब तक काम करे दबाव में करे। एक तरह से श्रमिकों की आजादी छीनने की पूरी तैयारी इस बिल में कर ली गई है।
तीन कानून खत्म : इस बिल में सबसे अधिक अटैक ट्रेड यूनियनों पर किया गया है। इस कानून के बनने पर ट्रेड यूनियन एक्ट 1926, इंडस्ट्रियल एंप्लॉयमेंट एक्ट 1946 और इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स एक्ट 1947 अपने आप खत्म हो जाएंगे। केंद्र सरकार इस विधेयक को लाने का उद्देश्य देश में काम करने की सुगमता यानी ईज ऑफ डूइंग बिजनेस की रैंकिंग बेहतर करना बता रही है।
श्रम सुधार का हिस्सा : श्रम सुधारों को तेज करने के लिए श्रम मंत्रालय ने 44 श्रम कानूनों को चार कोर्ट में बांटने का जिम्मा उठाया था - वेतन औद्योगिक संबंध, सामाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य, सुरक्षा और काम करने की स्थितियां। इनमें से वेतन संबंधी श्रम कोड को संसद ने अगस्त में ही पारित कर दिया था, जबकि स्वास्थ्य सुरक्षा और काम करने की स्थितियां संबंधी विधेयक श्रम संबंधी संसदीय समिति के हवाले है।
विपक्ष ने किया विरोध : विपक्ष ने इस बिल को श्रमिक विरोधी बताते हुए इसका विरोध किया है। आरएसपी के एनके प्रेमचंद्रन, टीएमसी के सौगत रॉय और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष अधीर रंजन चौधरी ने बिल पेश किये जाने का विरोध करते हुए इसे श्रम मामलों की संसदीय समिति के पास भेजने की मांग की है।
प्रेमचंद्रन ने कहा, इसमें राज्यों से जरूरी परामर्श नहीं किया गया है। वहीं सौगत रॉय ने कहा, यह श्रमिक विरोधी बिल है, इसके लिए किसी मजदूर संगठन ने कभी मांग नहीं की। सरकार इस बिल को उद्योग संगठन की मांग पर लेकर आई है।
इस पर श्रम मंत्री संतोष गंगवार ने कहा, इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो श्रमिक विरोधी हो। यह विधेयक सरकार के चार कानूनों में मजदूरों से संबंधित 44 विधानों को समाहित करके श्रम कानूनों में सुधार की पहल का हिस्सा है। कैबिनेट ने इस बिल को 20 नवंबर को मंजूरी दे दी थी।
दिलचस्प बात यह है कि जिस युवा को रोजगार की चिंता होनी चाहिए वह धर्म और जाति के आधार पर देश में चल राजनीति में मशगूल हो गया है। मोदी सरकार देश के युवा को भावनात्मक मुद्दों में उलजाकर पूंजपीतियों को बढ़ावा देने के सभी रास्ते खोलती जा रही है और लोग इस सरकार को देश का उद्धारक समझ रही है। वैसे तो मोदी सरकार में रोजगार में बड़े स्तर पर कटौती हुई है। फिर भी जो कुछ रोजगार बचा हुआ है उसमें शोषण चरम पर है। अब इस बिल के पास होने के बाद यह शोषण और बढ़ने की आशंका है।
लेखक चरण सिंह राजपूत सोशल एक्टिविस्ट हैं.
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