“दुख सबको माँजता है / और चाहे स्वंय सबको मुक्ति देना वो न जाने / किन्तु जिनको माँजता है/ उन्हें ये सीख देता है कि सबको मुक्त रखे” – अज्ञेय
जैविक बीमारी कोरोना नें हमें हमारे दुख में भी अकेला कर दिया है। अपने-अपने घरों में रहते हुए दुख की घड़ी में किसी को गले नहीं लगा सकते। लेकिन, यही दुख हमें जोड़ भी रहा है। हमारे भाव एवं विचार इस संकट की घड़ी में एक-दूसरे के साथ हैं। आज सुबह अभिनेता इरफ़ान ख़ान की मृत्यु ने हमें एक साथ लाकर खड़ा कर दिया है। साहित्य, सिनेमा, राजनीति, मीडिया ही नहीं, हर विचार, हर क्षेत्र के लोगों के लिए अभिनेता इरफ़ान ख़ान का जाना एक दुखद संदेश है।
लेकिन, अगर इरफ़ान के फ़िल्मों से ही शब्दों को उधार लें तो ‘ज़िंदगी निरंतर चलने का नाम है। हमें बस आगे बढ़ते जाना है।“
राजकमल प्रकाशन समूह की ओर से संपादकीय निदेशक सत्यानंद निरुपम एवं फ़िल्म समीक्षक मिहिर पंड्या ने अभिनेता इरफान ख़ान को श्रद्धांजलि अर्पित की।
जाने वाले, तुझे सलाम!
अभिनेता इरफ़ान ख़ान नहीं रहे! 2018 से वे हाई ग्रेड न्यूरोएंडोक्राइन कैंसर से जूझ रहे थे। जब उनकी सामान्य दिनचर्या की कुछ तस्वीरें सार्वजनिक हुई थीं, उन्हें स्वास्थ्य-लाभ करते देखकर लगा था, जैसे मृत्यु के दरवाज़े से टहल कर लौट आए हों। एक नई उम्मीद सामने थी। उनके प्रशंसक राहत और ख़ुशी से खिल उठे थे। आज सब मुरझा गए...उलटी राह अभिनेता अभिनय में स्क्रीन पर नहीं, जीवन में से लौट गया...
राजकमल प्रकाशन समूह के संपादकीय निदेशक सत्यानंद निरुपम ने आज के संपादकीय में इरफ़ान ख़ान को याद करते हुए कहा कि, “इरफ़ान ख़ान की आँखों में अभिनय का एक स्कूल था और कंठ में किसी अचूक तीरंदाज की-सी एकाग्रता और बेधकता थी! वह मौन में बोलते थे और बोलने में कहे से ज्यादा कुछ चुप्पी छोड़ जाते हैं। लेखक को ही नहीं, किसी अभिनेता को भी सामने वाले पर भरोसा करना होता है और उसके-अपने बीच कुछ स्पेस छोड़ना होता है, यह इरफ़ान के अभिनय की बुनियादी ख़ासियत लगती है। वे दर्शक के सिर पर सवार नहीं होते, उसकी नज़रों को चौंध से नहीं भरते, उसे अवकाश और ठहराव देते हैं कि वह उनके साथ कथा-प्रवाह में गोते लगाए।“
इरफ़ान ने जून, 2018 में अस्पताल से भेजे एक एक पत्र में लिखा था "अभी तक अपने सफ़र में मैं तेज़-मंद गति से चलता चला जा रहा था। मेरे साथ मेरी योजनाएँ, आकांक्षाएँ, सपने और मंजिलें थीं। मैं इनमें लीन बढ़ा जा रहा था कि अचानक टीसी ने पीठ पर टैप किया, 'आप का स्टेशन आ रहा है, प्लीज उतर जाएँ।“
सत्यानंद निरुपम ने कहा कि, “इरफ़ान मृत्यु से हार गए। सबको हारना होता है। वे समय से पहले हार गए। लेकिन शेष जीवन नहीं मिला तो क्या, उससे बड़ी चीज़ उन्हें हासिल है--अमरता! इरफ़ान मरते हैं, कलाकार इरफ़ान कभी नहीं मरते...वे कई-कई पीढ़ियों की आँखों में ज़िंदा रहते हैं...”
राजकमल प्रकाशन समहू की ओर से लॉकडाउन में पाठकों के लिए ख़ास तौर से तैयार की जा रही पुस्तिका में आज रचनाओं का चयन रोग-महामारी-मृत्यु-जीवन और अभिनय के आधार पर किया गया। तथा विशेष संपादकीय के जरिए समूह के संपादकीय निदेशक ने उन्हें साहित्यिक सलाम किया।
कहानी अधूरी छोड़कर चला गया...
राजकमल प्रकाशन समूह के फ़ेसबुक पेज से लाइव जुड़कर फ़िल्म समीक्षक मिहिर पंड्या ने इरफ़ान ख़ान को याद करते हुए उनके अभिनय एवं उनकी फ़िल्मी यात्रा की ख़ूबसूरत यादों को लोगों से साझा करते हुए कहा कि, “ऐसा अभिनेता हमारे बीच से चला गया जिसके बारे में हम कह सकते हैं कि जितना हमने उन्हें देखा था उससे कहीं ज्यादा अभी देखना बाकी था। जैसे कोई कहानी अधूरी छोड़ कर चला गया।“
उन्होंने कहा कि, “स्मिता पाटिल की मृत्यु के बाद शायद हिन्दी सिनेमा ने इस तरह का झटका आज इरफ़ान के जाने के बाद महसूस किया है।“
इरफ़ान अपने क्राफ्ट में इतने अद्भूत अभिनेता थे कि वो अपने किरदार की भाषा को जड़ से पकड़ लेते थे। वो किरदार के परिवेश को अपनी भाषा में जीवित कर देते हैं। यह उनके अभिनय की ताकत थी कि भाषा या बोली ही नहीं, वो उसे अपनी आँखों में जिंदा कर देते हैं। पान सिंह तोमर, नेमसेक, हासिल, मक़बूल, हिन्दी मीडियम या उनकी किसी भी फ़िल्म को देखकर इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
मिहिर पंड्या ने लाइव बातचीत इरफ़ान को याद करते हुए कहा कि, “साहित्य से सिनेमा को जोड़ने वाले अभिनेताओं का नाम लिया जाएगा तो इरफ़ान का नाम सबसे पहले लिया जाएगा। उनकी बहुत सारी फ़िल्में साहित्यिक रचनाओं पर आधारित हैं और जिसे उपर उठाने का काम इरफ़ान ने किया है।“
इरफ़ान खान को कहानियाँ और कविताओं से प्रेम बहुत प्रेम था। वो नए से नए साहित्य को पढ़ना पसंद करते थे।
इरफ़ान को अगर फ़िल्मों की दुनिया से बाहर देखें तो उनके जैसा इंसान कम ही देखने को मिलता है। उन्हें किसी भी दायरे में नहीं बांधा जा सकता। वो हिन्दुस्तानी फ़िल्म ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय फ़िल्मों के नायक थे, वो कभी किसी एक धर्म के पैरोकार नहीं थे, उन्होंने गांधीवाद के बारे में बात की, उन्होंने गांधी के संघर्षों के बारे में बात की।
लाइव बातचीत पर इरफान के साथ अपने निजी अनुभवों को साझा करते हुए मिहिर ने बताया कि, “उन्होंने एक बार कहा था कि इतनी खाने की तस्वीरें लगाते हो कभी खिलाओ भी। दिल्ली की एक दोपहरी हम उनसे खाने पर मिले और हमने उनके घर -टोंक की बातें की। टोंक के पास ही एक जगह है वनस्थली जहाँ मैं पला-बढ़ा हूँ। वनस्थली का नाम सुनते ही उन्होंने कहा कि वो लड़कियों की यूनिवर्सिटी में जाने का रास्ते ढूँढा करते थे।“
इरफ़ान ख़ान एक सरल व्यक्तिव के इंसान थे, जिनके लिए थे शब्द का इस्तेमाल करना बहुत अजीब लग रहा है...
जैविक बीमारी कोरोना नें हमें हमारे दुख में भी अकेला कर दिया है। अपने-अपने घरों में रहते हुए दुख की घड़ी में किसी को गले नहीं लगा सकते। लेकिन, यही दुख हमें जोड़ भी रहा है। हमारे भाव एवं विचार इस संकट की घड़ी में एक-दूसरे के साथ हैं। आज सुबह अभिनेता इरफ़ान ख़ान की मृत्यु ने हमें एक साथ लाकर खड़ा कर दिया है। साहित्य, सिनेमा, राजनीति, मीडिया ही नहीं, हर विचार, हर क्षेत्र के लोगों के लिए अभिनेता इरफ़ान ख़ान का जाना एक दुखद संदेश है।
लेकिन, अगर इरफ़ान के फ़िल्मों से ही शब्दों को उधार लें तो ‘ज़िंदगी निरंतर चलने का नाम है। हमें बस आगे बढ़ते जाना है।“
राजकमल प्रकाशन समूह की ओर से संपादकीय निदेशक सत्यानंद निरुपम एवं फ़िल्म समीक्षक मिहिर पंड्या ने अभिनेता इरफान ख़ान को श्रद्धांजलि अर्पित की।
जाने वाले, तुझे सलाम!
अभिनेता इरफ़ान ख़ान नहीं रहे! 2018 से वे हाई ग्रेड न्यूरोएंडोक्राइन कैंसर से जूझ रहे थे। जब उनकी सामान्य दिनचर्या की कुछ तस्वीरें सार्वजनिक हुई थीं, उन्हें स्वास्थ्य-लाभ करते देखकर लगा था, जैसे मृत्यु के दरवाज़े से टहल कर लौट आए हों। एक नई उम्मीद सामने थी। उनके प्रशंसक राहत और ख़ुशी से खिल उठे थे। आज सब मुरझा गए...उलटी राह अभिनेता अभिनय में स्क्रीन पर नहीं, जीवन में से लौट गया...
राजकमल प्रकाशन समूह के संपादकीय निदेशक सत्यानंद निरुपम ने आज के संपादकीय में इरफ़ान ख़ान को याद करते हुए कहा कि, “इरफ़ान ख़ान की आँखों में अभिनय का एक स्कूल था और कंठ में किसी अचूक तीरंदाज की-सी एकाग्रता और बेधकता थी! वह मौन में बोलते थे और बोलने में कहे से ज्यादा कुछ चुप्पी छोड़ जाते हैं। लेखक को ही नहीं, किसी अभिनेता को भी सामने वाले पर भरोसा करना होता है और उसके-अपने बीच कुछ स्पेस छोड़ना होता है, यह इरफ़ान के अभिनय की बुनियादी ख़ासियत लगती है। वे दर्शक के सिर पर सवार नहीं होते, उसकी नज़रों को चौंध से नहीं भरते, उसे अवकाश और ठहराव देते हैं कि वह उनके साथ कथा-प्रवाह में गोते लगाए।“
इरफ़ान ने जून, 2018 में अस्पताल से भेजे एक एक पत्र में लिखा था "अभी तक अपने सफ़र में मैं तेज़-मंद गति से चलता चला जा रहा था। मेरे साथ मेरी योजनाएँ, आकांक्षाएँ, सपने और मंजिलें थीं। मैं इनमें लीन बढ़ा जा रहा था कि अचानक टीसी ने पीठ पर टैप किया, 'आप का स्टेशन आ रहा है, प्लीज उतर जाएँ।“
सत्यानंद निरुपम ने कहा कि, “इरफ़ान मृत्यु से हार गए। सबको हारना होता है। वे समय से पहले हार गए। लेकिन शेष जीवन नहीं मिला तो क्या, उससे बड़ी चीज़ उन्हें हासिल है--अमरता! इरफ़ान मरते हैं, कलाकार इरफ़ान कभी नहीं मरते...वे कई-कई पीढ़ियों की आँखों में ज़िंदा रहते हैं...”
राजकमल प्रकाशन समहू की ओर से लॉकडाउन में पाठकों के लिए ख़ास तौर से तैयार की जा रही पुस्तिका में आज रचनाओं का चयन रोग-महामारी-मृत्यु-जीवन और अभिनय के आधार पर किया गया। तथा विशेष संपादकीय के जरिए समूह के संपादकीय निदेशक ने उन्हें साहित्यिक सलाम किया।
कहानी अधूरी छोड़कर चला गया...
राजकमल प्रकाशन समूह के फ़ेसबुक पेज से लाइव जुड़कर फ़िल्म समीक्षक मिहिर पंड्या ने इरफ़ान ख़ान को याद करते हुए उनके अभिनय एवं उनकी फ़िल्मी यात्रा की ख़ूबसूरत यादों को लोगों से साझा करते हुए कहा कि, “ऐसा अभिनेता हमारे बीच से चला गया जिसके बारे में हम कह सकते हैं कि जितना हमने उन्हें देखा था उससे कहीं ज्यादा अभी देखना बाकी था। जैसे कोई कहानी अधूरी छोड़ कर चला गया।“
उन्होंने कहा कि, “स्मिता पाटिल की मृत्यु के बाद शायद हिन्दी सिनेमा ने इस तरह का झटका आज इरफ़ान के जाने के बाद महसूस किया है।“
इरफ़ान अपने क्राफ्ट में इतने अद्भूत अभिनेता थे कि वो अपने किरदार की भाषा को जड़ से पकड़ लेते थे। वो किरदार के परिवेश को अपनी भाषा में जीवित कर देते हैं। यह उनके अभिनय की ताकत थी कि भाषा या बोली ही नहीं, वो उसे अपनी आँखों में जिंदा कर देते हैं। पान सिंह तोमर, नेमसेक, हासिल, मक़बूल, हिन्दी मीडियम या उनकी किसी भी फ़िल्म को देखकर इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
मिहिर पंड्या ने लाइव बातचीत इरफ़ान को याद करते हुए कहा कि, “साहित्य से सिनेमा को जोड़ने वाले अभिनेताओं का नाम लिया जाएगा तो इरफ़ान का नाम सबसे पहले लिया जाएगा। उनकी बहुत सारी फ़िल्में साहित्यिक रचनाओं पर आधारित हैं और जिसे उपर उठाने का काम इरफ़ान ने किया है।“
इरफ़ान खान को कहानियाँ और कविताओं से प्रेम बहुत प्रेम था। वो नए से नए साहित्य को पढ़ना पसंद करते थे।
इरफ़ान को अगर फ़िल्मों की दुनिया से बाहर देखें तो उनके जैसा इंसान कम ही देखने को मिलता है। उन्हें किसी भी दायरे में नहीं बांधा जा सकता। वो हिन्दुस्तानी फ़िल्म ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय फ़िल्मों के नायक थे, वो कभी किसी एक धर्म के पैरोकार नहीं थे, उन्होंने गांधीवाद के बारे में बात की, उन्होंने गांधी के संघर्षों के बारे में बात की।
लाइव बातचीत पर इरफान के साथ अपने निजी अनुभवों को साझा करते हुए मिहिर ने बताया कि, “उन्होंने एक बार कहा था कि इतनी खाने की तस्वीरें लगाते हो कभी खिलाओ भी। दिल्ली की एक दोपहरी हम उनसे खाने पर मिले और हमने उनके घर -टोंक की बातें की। टोंक के पास ही एक जगह है वनस्थली जहाँ मैं पला-बढ़ा हूँ। वनस्थली का नाम सुनते ही उन्होंने कहा कि वो लड़कियों की यूनिवर्सिटी में जाने का रास्ते ढूँढा करते थे।“
इरफ़ान ख़ान एक सरल व्यक्तिव के इंसान थे, जिनके लिए थे शब्द का इस्तेमाल करना बहुत अजीब लग रहा है...
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