14.5.20

मैं गांव हूं...


 - धर्मेन्द्र प्रताप सिंह



मातृ दिवस पर मातृभूमि के लिए

सपने में पहुंच गया अपने गांव और फिर...


आज मैंने सपने में एक सपना देखा... देखा कि मुंबई से अपने गांव बहुंचरा (प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश) पहुंच गया हूं... वहां कोरोना के डर से सभी ग्रामीण भी अपने-अपने घरों में दुबके हुए हैं... मैं बहुंचरा के मध्य में न जाने कब से प्रतिस्थापित और पूज्यनीय गांव देवी (भवानी का स्थान) का दर्शन करने चला गया... मां के चरणों में शीष झुकाने के बाद वहीं पीपल की छांव में बैठ जब मैं थोड़ा सुस्ताने लगा था कि हल्की नींद आ गई... तभी सपने में एक आवाज सुनाई दी:

मैं गांव हूं...

मैं वही तुम्हारा गांव बहुंचरा हूं, जिस पर यह आरोप है कि यहां रहोगे तो भूखे मर जाओगे !
मैं वही गांव हूं, जिस पर आरोप है कि यहां की शिक्षा पहले जैसी नहीं रही है !!
मैं वही गांव हूं, जहां के लोगों पर आरोप है कि अक्खड़ मिज़ाज होते हैं !!!
हां, मैं वही गांव हूं, जिस पर आरोप लगा कर मेरे ही बच्चे मुझे छोड़ कर दूर-दराज के बड़े-बड़े शहरों में चले गए...

यह बात और है कि जब मेरे बच्चे मुझे छोड़ कर परदेस जाते हैं तो मैं रात भर सिसक-सिसक कर रोता हूं... फिर भी, अब तक मरा नहीं हूं ! अपने मन में एक आशा लिये आज भी निर्निमेष पलकों से बाट जोहता हूं कि शायद मेरे बच्चे आ जाएं... यह देखने की ललक में सोता भी नहीं हूं !

लेकिन हाय ! जो जहां गया, वहीं का हो कर रह गया !!

मैं पूछना चाहता हूं अपने उन सभी बच्चों से कि क्या मेरी इस दुर्दशा के जिम्मेदार तुम नहीं हो ? अरे, मैंने तो तुम्हें कमाने के लिए शहर में भेजा था और तुम मुझे छोड़ शहर के ही हो गए ! मेरा हक कहां है ? क्या तुम्हारी कमाई से मुझे अच्छा घर, आलीशान मकान, बड़ा (प्राइमरी) स्कूल, डिग्री कालेज, लाइब्रेरी, खेल के मैदान, इंस्टीट्यूट, अस्पताल... यहां तक कि श्मशान आदि बनाने का अधिकार नहीं है ? ये अधिकार मात्र शहर को ही क्यों ? जब सारी कमाई शहर में ही लगा दे रहे हो तो मैं क्या करूं ? युवा हो रहे अपने बच्चों को गांव में ही रहने के लिए कैसे समझाऊं ? आखिर मेरा हक मुझे क्यों नहीं मिलता है ?

इस कोरोना संकट में सारे आम-ओ-खास गांव वापस आ रहे हैं... जैसे तुम आ गए हो ! अब तो गाड़ी नहीं है तो भी बीवी-बच्चों के साथ सैकड़ों मील पैदल भी चल कर आ जाएंगे, आखिर क्यों ? जो लोग यह कह कर मुझे छोड़ शहर चले गए थे कि गांव में रहेंगे तो भूख से मर जाएंगे, आज वो किस आशा और विश्वास पर गांव लौटने लगे ? मुझे तो लगता है, निश्चित रूप से उन्हें ये विश्वास है कि यहां आ जाएंगे तो ज़िन्दगी बढ़ जाएगी... भर पेट भोजन मिल जाएगा और परिवार भी बच जाएगा ! सच तो यही है कि बहुंचरा कभी किसी को भूख से मरने नहीं देता !! हां मेरे लाल... आ जाओ, मैं तुम्हें भूख से नहीं मरने दूंगा !!!

आओ, मुझे फिर से सजाओ / और संवारो... मेरी गोद में फिर से चौपाल लगाओ... मेरे आंगन में साइकिल के पहिए घुमाओ... गांव में द्विपहिया- चार पहिया की कमी नहीं है, पर तुम विक्रम की टेंपो की सवारी करो... मेरे खेतों में अनाज उगाओ... खलिहानों में बैठ कर आल्हा गाओ... बड़ी बगिया में ठहाके लगाओ... सबोधन तारा पर अखाडा़ कूदो... खुद तो खाओ ही, दुनिया को भी खिलाओ... महुआ-ढाक के पत्तों को बीन-तोड़ कर पत्तल बनाओ... बाल-गोपाल बनो, चाहे महेन्द्र सिंह धोनी... सरहरा और पज्जू का नार अब भी खेल-कूद के लिए आबाद है ! मेरी सिमटी बांहों में बह रही सई नदी का पानी स्वच्छ हो गया है / बांहें पसार कर लोनी नदी भी पहुंचा दूंगा... यहां मछलियां पकड़ो, जी-भर के नहाओ, बालू में लोटो, झाबर खेलो, ऊधम मचाओ... फुलवारी का ताल और पंडित के बाग की तलैया गुलजार करो !

कुछ नहीं तो काशी मुंशी की दांत पीस-पीस कर प्यार भरी गालियां और छेदी बैस की तेल पियाऊ लाठी वाले ऊटपटांग डायलॉग सुनाओ, रजिंद मास्टर की अपनापन वाली खीझ और सूरत मास्टर की पिटाई तो रामदीन बाबा के आटे की चक्की की भकभुक याद करो !! मुस्कुराते हुए मदन दादा से मिलो, भिरगू मास्टर से बतियाओ, अपने अरविंद भैया संग समय बिताओ, नंदलाल और मलखान के भी साथ वक्त साझा करो... ये वो लोग हैं, जो तुम्हें सामूहिक परिवार के मायने और समाज के प्रति जवाबदेही बड़ी सरलता से समझा देंगे ! हां, मेरे बच्चे... ठकुरी नाऊ का दुइ ईंट वाला सैलून, शीतल तेली की दुकान पर गम्मज, कल्लू और छंगू भुजवा के भड़भूजे की सोंधी महक... सब आज भी तुम्हें पुकार रहे हैं !!!

मैं स्वीकार करता हूं कि यहां बहुत कुछ अखर भी सकता है... बर्म्हा दरोगा और जयप्रकाश वकील इस दुनिया में नहीं हैं तो स्कूल पर बड़े बाबू और दीवान जी के साथ उनकी जोरदार बहस भी अब सुनाई नहीं देगी ! फुलवारी वाले पगड़ी बाबा भी नहीं मिलेंगे, जो चींटियों को चारा देने से लेकर तमाम रास्तों और मेरी सीढ़ियों तक सुबह खरौंचा कब मार डालते थे, मेरे अतिरिक्त शायद ही किसी ने कभी देखा हो !! बेशक, यह विडंबना है कि सरकारी सफाईकर्मी होने के बावजूद गांव की अंदरूनी कई गलियां पहले जैसी भी काम-चलाऊ नहीं मिलेंगी। मेरे सामने वाले रास्ते से तो तुम गांव के भीतर जाओगे भी नहीं, क्योंकि उसके लिए तुम्हें घुटने भर गंदे पानी से गुजरना पड़ेगा... और ज्यादा पूछताछ करोगे तो दो-टूक जवाब मिल जाएगा, 'इसी रास्ते से तो आईएएस और आईपीएस जाते हैं !'

ऐसा कह कर सेना और अर्द्ध सैनिक बलों के हमारे जवानों, पुलिसकर्मियों, मास्टरों, प्रोफेसरों सहित सरकारी और निजी संस्थानों में कनिष्ठ से लेकर वरिष्ठ पदों तक आसीन अपने ही भाई-बंधुओं को 'छोटा' होने का अहसास क्यों न कराया जाता हो, पर मुझे नहीं लगता है कि इस मामले में अपना 'बड़प्पन' दिखाए जाने के बावजूद खुद कलेक्टर और कप्तान साहब भी खुश होंगे ! बरसों से मैं अपने गौरवशाली अतीत पर ही इतराता रहा हूं कि मेरे बच्चों ने कहां झंडे नहीं गाड़े हैं... प्रथम विश्व युद्ध में शामिल हमारे 25 बच्चों को कौन भूल सकता है, जिनमें से 7 शहीद हो गए थे ! उत्तर प्रदेश शासन में मेरे कई बच्चे आज भीअहम मुकाम रखते हैं तो मेरी ही गोद से निकले भरत सिंह और बाबा रमेश बहादुर सिंह ने लोकतंत्र के पहले दो स्तम्भों- न्यायपालिका और विधायिका तक में उल्लेखनीय मौजूदगी दर्ज करवाई है !

मैंने तो ब्रिगेडियर-कर्नल, डीएम-डीआईजी-एसपी दिए ही, दिनेश प्रताप सिंह भी इसी गांव के लाल हैं, जो मुंबई में रहते हुए भी अपनी जड़ों से जुड़े हैं... दशकों से पत्रिका का संपादन तो कर ही रहे हैं, कई सारे ख्यातिप्राप्त पुरस्कारों से सम्मानित और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों को वह शोभायमान भी कर चुके हैं ! इसीलिए पूछना और भी जरूरी हो जाता है कि अपने पड़ोसी कुछ गांवों का विकास देख कर क्या मुझे दुखी और शर्मिंदा होने का भी अधिकार नहीं है ? नाराज मत हो, क्योंकि इसके जिम्मेदार भी आप लोग हैं... चुनाव के दिन तुम जो सिर्फ वोट की खातिर आते हो तो तुम्हारी ही बेवफाई का खामियाजा मुझे भुगतना पड़ रहा है... आखिर, मैं गांव हूं न !

मुझे पता है... वो तो आ जाएंगे, जिन्हें मुझसे प्यार है ! लेकिन वो? वो क्यों आएंगे, जो शहर की चकाचौंध में विलीन हो गए हैं !! वहीं घर-मकान बना लिये... इसलिए सारे पर्व-त्यौहार वहीं मनाते हैं... बच्चों को शिक्षा देने से लेकर शादी-ब्याह करने तक के लिए शहर को ही मुफीद समझते हैं। मुझे बुलाना तो दूर, पूछते तक नहीं हैं ! मानो, अब मेरा उन पर कोई अधिकार ही नहीं बचा !! अरे, हमेशा नहीं तो कम से कम होली-दीवाली में ही आ जाया करते तो दर्द कम हो जाता मेरा !!! वैसे भी सारे संस्कारों पर तो मेरा अधिकार होता है न, मगर कम से कम मुण्डन-जनेऊ / शादी और अन्त्येष्टि तो मेरी गोद में कर लेते ! प्रतापगढ़-इलाहाबाद और लखनऊ जैसे करीबी ही नहीं, पुणे-ग्वालियर जैसे थोड़ा दूर और मंझोले शहरों के हो गए अपने उन तमाम सहपाठियों को भी एकत्र कर, जिनके साथ सई के मंदिर घाट पर बैठकर तू, किशोरावस्था की बदमाशियां याद कर फिर से उस दौर में जीने का मजा लूट सकता है !

मैं इसलिए नहीं कह रहा हूं कि यह केवल मेरी इच्छा है... असल में यह मेरी आवश्यकता भी है। मेरे गरीब बच्चे, जो रोजी-रोटी की तलाश में मुझसे दूर चले जाते हैं, उन्हें यहीं रोजगार मिल जाएगा। फिर कोई महामारी आने पर उन्हें सैकड़ों मील पैदल नहीं भागना पड़ेगा। मैं आत्मनिर्भर बनना चाहता हूं। मैं अपने बच्चों को शहरों की अपेक्षा उत्तम शिक्षित और संस्कारित कर सकता हूं। मैं बहुतों को यहीं रोजी-रोटी भी दे सकता हूं। मैं तनाव भी कम करने का कारगर उपाय हूं। मैं प्रकृति की गोद में जीने का प्रबंध कर सकता हूं।

मैं सब कुछ कर सकता हूं मेरे लाल ! बस, तू समय-समय पर आ तो जाया कर मेरे पास... अपने बीवी-बच्चों को मेरी गोद में डाल निश्चिंत हो कर देख तो सही... दुनिया की कृत्रिमता को अब त्याग दे ! यहां पर कुंभार के घड़े का पानी पी... त्यौहारों-समारोहों में पत्तलों में खाने और कुल्हड़ों में पीने की आदत डाल... पुनई कोटेदार हो गए तो क्या हुआ ? तेरे कपड़े और जूतों को सिलने के लिए दर्जियों-मोचियों की कमी नहीं है... वैसे भी कुछ दिन देहाती बन इतराने की आदत डाल ले, आनंद आएगा... यहां पर चुड़िहारिन आजी जब घर आ कर तेरी घरवाली को चूड़ियां पहनाएंगी तो उसे भी अपनेपन का अहसास होगा ! रानीगंज अजगरा के रसगुल्लों, साहबगंज बाजार में अपने ही खेतों से आने वाली हरी सब्जियों, प्रतापगढ़ के फूल-फल, देसी गाय के दूध और बैलों की खेती पर विश्वास रख... कभी संकट में नहीं पड़ेगा ! हमेशा खुशहाल ज़िंदगी चाहता है तो मेरे लाल, मेरी गोद में आकर कुछ दिन खेल लिया कर... तू भी खुश और मैं भी खुश !!

'उठो-उठो, अभी दुकानें बंद हो जाएंगी'- यह कहते हुए गृहस्वामिनी ने जगा दिया और इस मार्मिक सपने का क्लाइमेक्स अधूरा रह गया !

(नोट: स्वप्न विचार के जानकार यदि इस सपने का आशय बताएंगे तो बड़ी कृपा होगी ! हालांकि बहुंचरा के कई जनों को चाह कर भी यहां शामिल न कर पाना लेखक की मजबूरी रही है, परन्तु कुछ तथ्यों को मामूली रूप से परिवर्तित भी किया गया है... सच्चाई जरूर है कि यह सपना पूरी तरह काल्पनिक है ! हां, तस्वीरें उपलब्ध करवाने के लिए निर्भय सिंह, सुपुत्र- श्री करुणेश सिंह का विशेष रूप से आभार व्यक्त करता हूं !!)

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