14.5.20

"मां" और "मीडिया"

अनुभव आधारित कल्पना

मदर्स-डे स्पेशल

भले ही "मां ने हमें लिखा हो" जैसी कहावतें सोशल मीडिया के बाज़ार में कईं सालों से रिपीट (कॉपी पेस्ट) पर चल रही हों,लेकिन कुछ तो अपना भी लिखना ही होगा ना, कब तक एक फोटो और एक कैप्शन मात्र मातृत्व की सिंगल लाइन डेफिनेशन बनता रहेगा

कईं सालों से मीडिया में हूं, कभी घर याद करने की कोशिश कर करता हूं तो मां की जगह दादीमां का प्यार-दुलार और मेरे हर दुख, दर्द और तकलीफ का अहसास जो उनकी आखों में दिखता था, बस वही याद आता है

मां पर लिख रहे इस पोस्ट में मीडिया में होने का ज़िक्र इसलिए किया कि मीडिया के क्षेत्र में आप जब हैरासमेंट का शिकार होते हो तो शायद सबसे पहले आपको घर की याद ज़रूर आती होगी, और उस याद में छिपा मां का चेहरा भी, दरअसल मीडिया संस्थानों में शोषण कैसे और किस हद तक लोग कर ले जाते हैं, इसके उदाहरण देना काफी मुश्किल है वो क्या है ना हैरासमेंट के कोई रूल्स एंड रेग्यूलेशन्स तो होते नहीं , हां इतना बता सकता हूं कि नियमों के दायरे में रहकर कोई ज़िम्मेदार सारे नैतिक नियम तोड़ देता है, ऐसे में रूंधला सा गला और गीली सी आंखें बस उस दुलार और अहसास को सब तरफ ढूंढ़ने की कोशिश करती हैं जो अहसास वो व्यक्ति सिर्फ अपनी मां की आंखों में पाया करता था

नम सी आंखें हैं, जिस्म में एक बैचेनी है और मन में एक ही सवाल कि सामने वाला जो कर रहा वो गलत है, लेकिन ऑफिस में जिन्हे हम सीनियर कह रहे हैं वो  किसी की मां किसी के पिता भी तो होंगे, फिर ऐसा कैसा होता है कि कोई एक व्यक्ति ये सब कर रहा होता है और बाकी सब बेजान, बेपरवाह, बेजुबान ये सब सिर्फ देख रहे होते हैं, कभी तो शोषित व्यक्ति पूछता भी तो होगा कि आखिर ये मेरे साथ क्यों ? तो शायद एक वाजिब से जवाब के साथ खोखले अपनेपन का अहसास भी आता होगा कि "ये सब तुम्हारा भ्रम है, चीयर-अप, डॉन्ट भी सो सैड"

तब फिर ये सब देखकर फिर अपनी मां-पिता सबको याद आ ही जाते होंगे, और उन सबके मन में ये बात और  मज़बूती पा लेती होगी कि मातृत्व सिर्फ अपने मां पिता में होता है, और इसी सोच के साथ अगले महीने सैलरी वाली 10 तारीख को रेलवे का रिजर्वेशन कराने का अनायास ही अचानक ख्याल आता होगा, और ये ख़्याल ही तो है बस जो मां के मां होने का अहसास देता है

हैप्पी मदर्स डे

Bhavishya Tyagi
   

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