31.3.21

पंचायत चुनाव और राजनीति का अधोगामी नीति शास्त्र


Krishan pal Singh-
    


उत्तर प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों का बिगुल गत 26 मार्च को इसकी अधिसूचना जारी होने के साथ ही बज गया है। इसके कारण होली के त्यौहार पर चुनावी माहौल भारी नजर आया। मतदाताओं को रिझाने के नये-नये अंदाज गढ़ने में संभावित उम्मीदवार बहुरूपियों को भी मात करते दिख रहे हैं जिससे होली में रंगों के साथ-साथ तौर तरीकों की नूतनता और विविधता के बीच अनोखे आयाम नजर आ रहे हैं।


पूरे प्रदेश को चुनाव प्रक्रिया के तहत चार चरणों में बांटा गया है। पहले चरण में 18 जिलों के लिए 15 अप्रैल को, दूसरे चरण में 20 जिलों के लिए 19 अप्रैल को, तीसरे चरण में 20 जिलों के लिए 26 अप्रैल को और चैथे व अंतिम चरण में 17 जिलों के लिए 29 अप्रैल को मतदान होगा। इस चुनावी कुरूक्षेत्र के तहत प्रदेश भर में 58189 ग्राम पंचायतों के प्रधान, 826 क्षेत्र पंचायतों के प्रमुख और 75 जिला पंचायतों के अध्यक्ष चुने जायेंगे।

इस बार फिर पंचायती चुनाव ऐसे समय हो रहे हैं जबकि नई विधान सभा के चुनाव का अवसर सिर पर है। इसलिए राजनीतिक प्रेक्षकों की निगाह में पंचायती चुनाव मिनी विधानसभा चुनाव की झांकी की तरह हैं। हालांकि इन चुनावों में लोगों का रूझान व्यक्तिगत आधार पर होता है लेकिन इनके परिणामों को आधार बनाकर राजनीतिक दलों की हवा के अनुमान सामने लाये जाते हैं। इसलिए हर दल पंचायती चुनावों को लेकर चैकन्ना है। समाजवादी पार्टी ने जहां इन चुनावों में सुरक्षित रास्ता पकड़ने की कवायद के तहत तय किया है कि वैसे तो पार्टी हर जिला पंचायत वार्ड में सर्व सम्मत एक उम्मीदवार का नाम तय करने की कोशिश करेगी लेकिन अगर किसी एक के पक्ष में आम राय नहीं बन पाती तो पार्टी के जितने लोग नामांकन करेंगे उनमें से किसी पर कोई कार्यवाही नहीं की जायेगी। समाजवादी पार्टी को उम्मीद है कि इस नीति से पंचायत चुनाव के कारण पार्टी में तोड़ फोड़ की आशंका से बेहतर तरीके से निपटा जा सकेगा। दूसरी ओर सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ग्राम पंचायत से लेकर जिला पंचायत तक में अपने द्वारा समर्थित उम्मीदवार मैदान में उतारेगी। ताकि ज्यादा से ज्यादा उम्मीदवार जिताकर पार्टी विधानसभा चुनाव के लिए दबदबे का मनोवैज्ञानिक माहौल तैयार कर सके। आम तौर पर बहुजन समाज पार्टी पंचायत चुनावों से दूर रहती थी लेकिन इस बार पार्टी ने अपनी नीति बदल दी है। बहुजन समाज पार्टी भी इन चुनावों के जरिये जमीनी स्तर पर जलजला दिखाकर विधानसभा चुनाव के दृष्टिकोण से अपनी स्थिति मजबूत करना चाहती है।

इन चुनावों में भी आदर्श आचार संहिता को घोषित रूप से लागू किया जायेगा। लेकिन जिस तरह से लोकसभा और विधानसभा चुनाव में आदर्श आचार संहिता शो पीस बनकर रह गई है उसी तरह से पंचायत चुनावों में भी इसकी बंदिशों की परवाह उम्मीदवारों को बिल्कुल नहीं रह जाने वाली है जबकि लोकतंत्र के लिए यह स्थिति अभिशाप की तरह है जिससे लोकतंत्र की सार्थकता पर प्रश्न चिन्ह लगने लगा है। भ्रष्ट चुनाव संस्कृति के कारण विकास हेतु जिस भारी भरकम बजट की व्यवस्था की जाती है उसमें बड़ी लूट खसोट होती है और अंततोगत्वा इसका खामियाजा आम लोगों को ही भोगना पड़ता है। पंचायती शासन में विकास के लिए प्रति वर्ष केन्द्र और राज्य सरकारें बड़ा बजट जारी करती हैं। अगर इसका सही उपयोग होता तो अभी तक तमाम गांव विकास की दृष्टि से संतृप्त हो चुके होते। ऐसे गांवों में कुछ दिनों के लिए अनुदान रोकना संभव हो जाता और इससे होने वाली बचत से सरकार दूसरे जरूरी कामों के लिए संसाधनों की व्यवस्था कर सकती थी। सरकारी खजाने का रखरखाव सही तरीके से होने पर ही आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं में अंधाधुंध शुल्क वसूली से लोगों को बचाया जा सकता है। लेकिन चूंकि सरकार ने पंचायती शासन और नगर निकाय व्यवस्थाओं को अपने खजाने की खुली लूट के लिए छोड़ रखा है जिससे डीजल पेट्रोल और उर्वरक आदि में अंधाधुंध बढ़ोत्तरी के लिए उसे विवश होना पड़ रहा है।

महान समाजवादी चिंतक डा0 लोहिया ने कहा था कि राजनीति अल्प कालीन धर्म है और धर्म दीर्घकालीन राजनीति। उनके सूत्र वाक्य का मर्म आज की स्थितियों में बहुत प्रासंगिक है। आधुनिक शासन प्रशासन व्यवस्था तब तक कामयाब नहीं हो सकती जब तक कि समाज में नैतिक व्यवस्था सहजता के साथ व्याप्त न हो। हमारे देश का मौजूदा लोकतांत्रिक स्वरूप समाज की नैतिक व्यवस्था को छिन्न भिन्न करने का माध्यम बन गया है। नैतिक व्यवस्था का ही दूसरा नाम धर्म है। जाहिर है कि धर्म के तत्व के क्षय से राजनीति अपने सारे सकारात्मक गुणों को खो रही है।

कहा यह जाता है कि समाज मे परिवर्तन तीन तरीकों से होता है- कानून, प्रचार और उदाहरण के जरिये। पहले चर्चा उदाहरण की। हाल के कुछ वर्षो में आदर्श आचार संहिता को रौंदकर लोक सभा और विधान सभा के चुनाव में जिस तरह से पानी की तरह पैसा बहाने का रिवाज चल पड़ा है उसका असर नीचे तक जा रहा है। कहावत है कि महाजन जिस रास्ते पर चलते हैं आम लोग भी उसी रास्ते पर चल पड़ते हैं। लोकतंत्र के महाजन जब यह मान बैठे हैं कि चुनाव संगठन और विचार धारा से नहीं लोगों को प्रलोभित करके ही जीते जा सकते हैं और चुनाव में सब कुछ जायज है तो ग्रामीण समाज भी अपने आप नैतिकता के सारे पर्दे हटाकर चुनाव जीतने के लिए कमर कसने को प्रेरित हो चुका है। पंचायत के चुनाव में हर मतदाता तक सीधा संपर्क करना होता है जबकि लोकसभा और विधानसभा चुनाव में वोट के ठेकेदारों तक पैसा पहुंचाकर कार्य सिद्ध करना संभव हो जाता है। इसलिए नैतिक पतन में ग्राम सभा चुनाव ज्यादा खतरनाक हैं क्योंकि इनमें उम्मीदवार हर वोटर को पैसो और दारू मुर्गा पहुंचाकर भ्रष्ट करते हैं। अगर महाजन अपने को धनबल की वजाय जायज तरीकों से चुनाव जीतने के मामले में उदाहरण बनाने की सोचते तो ग्रामीण समाज में आज जैसी नैतिक तबाही को रोका जा सकता था।

पहले राजनीतिक शुचिता के लिए हर राजनीतिक दल को सरकारी फंड से चुनाव खर्च उपलब्ध कराने के कानून को बनाने पर विचार हो रहा था लेकिन अब इसकी चर्चा बंद हो गई। अब रह गई चुनावी सदाचरण हेतु लोगों को प्रेरित करने की बात इसमें बड़ी समस्या है। इस समय चुनावी खर्च को शिखर पर पहुंचाने में सबसे बड़ी भूमिका सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी निभा रही है। इतने धन की व्यवस्था वह कहां से कर रही है यह छिपा नहीं है। अदाणी और अंबानी जैसे कारपोरेट आज इसीलिए इतने वरीयता प्राप्त हो चुके हैं कि विनिवेश के नाम पर हर सार्वजनिक उपक्रम और सेवा औने पौने में उनके हवाले हो रही है। यह देश को बेचने जैसा कृत्य है। चुनाव खर्च में भाजपा चाहे तो संयम बरत सकती है क्योंकि उसके पास अब विश्व का सबसे विशाल संगठन है। उसे किफायती चुनाव के लिए प्रचार करना चाहिए पर उसको इसकी परवाह नहीं है। दूसरे अगर कोई किफायती चुनाव के प्रचार के लिए आगे आयें तो उन्हें भाजपा की विनाश लीला का पर्दाफाश सुसंगत तथ्य के तौर पर करना पड़ेगा। जबकि ऐसा करना आज राष्ट्र द्रोह के बतौर परिभाषित हो चुका है।

बहरहाल अगर यहीं ढ़र्रा चलता रहा तो राजशाही और सामंतशाही से भी अधिक वसूली व लूट खसोट के लिए लोकतंत्र अभिशप्त हो जायेगा जिसका मतलब धीरे-धीरे लोकतंत्र के प्रति लोगों की आस्था  समाप्त हो जाने के रूप में सामने आ सकता है। इसलिए लोकतंत्र बचाना है तो राजनीति के समानान्तर ऐसे लोक संगठन खड़े करने होगें जो हर चुनाव में अपने तरह से हस्तक्षेप करें। पंचायत चुनाव से इसकी शुरूआत हो सकती है। गांव-गांव में अच्छे और समर्थ लोगों का निर्वाचक मंडल बनाकर उनके जरिये ईमानदार व कार्य करने वाले उम्मीदवार प्रस्तावित किये जाने चाहिए। इससे राजनीति की भ्रष्ट संस्कृति में नीचे से ऊपर तक बड़े बदलाव की शुरूआत हो सकती है क्योंकि कभी-कभी सुधार की गंगोत्री ऊपर की वजाय नीचे से प्रवाहित होती है।    
 
K.P.Singh  
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