31.3.21

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को मारीचों ने कैसे चुरा लिया...

Krishan pal Singh-

चार्वाकवादी पैटर्न पर चल रही सरकार की नीतियों का अजीबो गरीब लब्बोलुआब

ऋषियों की लीक से हटकर भी एक परंपरा रही है। इस परंपरा के प्रतिनिधि ऋषियों की समूह वाचक संज्ञा लोकायत कही गई है। इस परंपरा के एक प्रख्यात ऋषि हुए हैं- चार्वाक। उनका चर्चित सूत्रवाक्य रहा है जब तक जिओ सुख से जिओ और उधार लेकर घी पिओ। मुख्य धारा के ऋषि ब्रह्म को सत्य और संपूर्ण जगत को मिथ्या बताते रहे हैं। जबकि लोकायत परंपरा के व्यवहारिक ऋषियों की दृष्टि में सब कुछ जगत ही है। आत्मा, परमात्मा, परलोक इत्यादि धारणाओं को वे प्रवंचना मानते हैं। उनके विचार में जगत ही सत्य है जिसे सुखमय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जानी चाहिए।


वैसे तो तथागत बुद्ध भी लोकायत परंपरा के माने जाते हैं। लेकिन बुद्ध इन्द्रिय निग्रह और तपस्या के पक्षधर हैं जबकि चार्वाक का विश्वास भोगवाद में है। भारतीय समाज की सहिष्णु प्रवृत्ति का एक अच्छा उदाहरण यह है कि भले ही ब्रह्मवाद और भोगवाद में छत्तीस का आंकड़ा हो लेकिन भोगवादी ऋषियों का भी इस समाज में तिरस्कार नहीं किया गया। अलबत्ता यह कहा गया है कि जब तपोबल में असुरों ने देवताओं को पछाड़ दिया तो उनकी बुद्धि भ्रष्ट करने के लिए देवलोक से भोगवाद के प्रचारक भेजे गये। इस तरह चार्वाक सहित लोकायत परंपरा के सारे ऋषि मुख्य धारा की भारतीय परंपरा में गर्हित माने गये हैं।

आज दौर उपभोक्तावाद के वैश्वीकरण का है। जिसके लिए पश्चिमी अर्थशास्त्रियों ने बेहद श्रम किया ताकि इसे समूचे विश्व में व्याप्त किया जा सके। नरसिंहाराव की सरकार ने जब देश के आधुनिकीकरण के नाम पर वैश्वीकरण को आत्मसात करने की पहल की थी तो अपरिग्रहवादी आध्यात्मिक मूल्यों में रचे बचे इस देश को बड़ी बैचेनी हुई थी। कई मानवीय पहलुओं का संदर्भ वैश्वीकरण के तहत हुए समझौतों को नकारने के लिए दिया गया था लेकिन इस बयार को शुरूआती तौर पर भारी विरोध के बावजूद खारिज नहीं किया जा सका। बहरहाल 2014 के बाद देश में फिर एक मोड़ आया। लोकसभा चुनाव में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को लागू करने का जनादेश पारित किया गया। होना तो यह चाहिए था कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जुड़ी प्रवृत्तियां चार्वाकवाद को हजम नहीं करती और इसके कारण उपभोक्तावादी तामझाम का जगह-जगह तिरस्कार शुरू हो जाता।

लेकिन अध्यात्म की इन्द्रिय निग्रह की मुख्य धारा की ओर प्रवृत्त होने की बजाय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद उपभोक्तावाद की ओर और सरपट तरीके से दौड़ पड़ा। विकास का संबंध आम जन मानस की संपन्नता से होना चाहिए लेकिन क्या हो रहा है। एक्सप्रेसवे जैसी चीजें कारपोरेट के ज्यादा काम की हैं जबकि आम लोगों के लिए इनका लाभ संदिग्ध है। इसी तरह का उदाहरण बुलेट ट्रेन चलाने जैसे मंसूबों में देखा जा सकता है। इस तरह के तामझाम के लिए संसाधन जुटाने की बड़ी कीमत आम आदमी को चुकानी पड़ रही है। डीजल, पेट्रोल के मूल्यों में उसकी औकात से ज्यादा कृत्रिम वृद्धि इसका प्रमाण है। डीजल, पेट्रोल आज आम आदमी के अस्तित्व से जुड़ गया है फिर भी इसमें सिर से ऊपर की मूल्य वृद्धि का कहर ढ़ाया जा रहा है ताकि सरकारें कारपोरेट को सुविधा देने की व्यवस्थाओं के लिए संसाधन जुटा सकें।

भले ही तात्कालिक तौर पर इसकी वजह से जन विद्रोह जैसी कोई हालत सामने नहीं आ रही है लेकिन दूरगामी तौर पर इस असहनीय कर वसूली के तांडव के कारण विनाशकारी विभीषिका रची जा रही है जिसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। विकास के इन तौर तरीकों में उधार लेकर घी पीने की सरकार की चार्वाक अदा को साफ देखा जा सकता है क्योंकि न केवल वह आम लोगों को प्रभावित करने वाले सेक्टरों में बेतहाशा वसूली कर रही है बल्कि विनिवेशीकरण के लिए इसी के चलते उसका उन्माद सन्निपात के स्तर तक देखा जा सकता है। विनिवेशीकरण के संबंध में नीति तो यह है कि ऐसे सार्वजनिक उपक्रम जो घाटे के कारण सरकार के लिए बोझ साबित हो रहे हैं उन्हें निजी क्षेत्र को बेचकर सरकार उनसे निजात पाये और साथ में द्रुत विकास के लिए अपेक्षित खजाना भी जुटा सके। पर अब तो सरकार अपनी उन परिसंपत्तियों को भी ठिकाने लगाने पर आमादा है जिनसे उसे जमकर आमदनी हो रही है। वैसे इसका मतलब यह है कि सरकार की वित्तीय स्थिति खराब है जिसे ठीक करने के लिए ऐसा करना उसकी मजबूरी हो गई है पर सरकार यह भी तो नहीं स्वीकार करना चाहती कि वह वित्तीय संकट में फंस गई है। वजह यह है कि अगर वह इस तथ्य को मान लेगी तो यह उसके द्वारा अपनी नीतियों के विफल हो जाने को स्वीकार करने जैसा होगा क्योंकि अचानक वित्तीय संकट के पीछे कोई न कोई कारण तो होना चाहिए।

इसी बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विनिवेशीकरण की नीति का प्रबल औचित्य प्रतिपादित करने के लिए इस संबंध में जो आप्तवाक्य बोले हैं वे भी ध्यान देने योग्य हैं। प्रधानमंत्री ने कहा है कि सरकार का काम कारोबार करना नहीं है। इस नाम पर वे रेलवे जैसे सेक्टर के विनिवेशीकरण को भी लोगों के बीच जायज साबित करना चाह रहे हैं भले ही फिलहाल सरकार की ओर से यह भी कहा जा रहा है कि रेलवे का निजीकरण कभी नहीं होगा। पर यह कितना झूठ है यह तो स्वयमेव सिद्ध है। कई रेलवे स्टेशनों को कारपोरेट के हवाले करके सरकार जाहिर कर चुकी है कि कर्ता के मन में कछु और है। विनिवेशीकरण का यह पहलू चर्चा के योग्य है। आज तो सेवा सेक्टर भी व्यापार के दायरे में आ चुका है लेकिन वास्तविकता अभी भी यह है कि कई सेवायें सरकार के बुनियादी दायित्वो में हैं। उन्हें निजी हाथों के हवाले इसलिए नहीं किया जा सकता क्योंकि मुनाफाखोरी का अड्डा बन जाने पर ऐसी सेवाओं की उपलब्धता आम आदमी से छिन सकती है। सस्ता परिवहन भी ऐसी सेवा में आता है। रेलवे फायदे में है लेकिन न भी हो तो भी किफायती तौर पर लोगों को आवागमन की सहूलियत मुहैया कराना सरकार की जिम्मेदारी है भले ही इसके लिए उसे घाटा झेलना पड़े।

चार्वाक के जब तक जिओ सुख से जिओ के दर्शन में कई विसंगतियां हैं। यह दर्शन आत्म केन्द्रित बनाता है। कुछ लोग संसाधन संपन्न होकर अपनी तृष्णाओं को अंधाधुंध हवा देने में जुट जायेंगे तो आम लोगों को वंचना झेलनी पड़ेगी और यह स्थिति सर्वजन हिताय के विरूद्ध होगी। उपभोक्तावाद और बाजारवाद जिसकी जड़ें चार्वाकवाद में ढूंढी जा सकती हैं बहुत मायावी है। बाजारवाद का आविष्कार साम्यवाद के कारण हुआ। सामंतवाद में बेगारी थी जिसमें काम करने वालों को पेट भर खाने के लायक मेहनताना भी नहीं मिल पाता था। बाजारवाद ने उदारता की छलना को ओढ़ा। कम्पनी जैसे नामकरण करके उद्योग व्यवसाय में मालिकों और कामगारों के बीच भाईचारे का भ्रम पैदा किया, मेहनताने को बढ़ाया इस तरह मजदूरों की सर्वहारा की स्थिति समाप्त कर दी। कामगार अब सोचने लगा कि उसके पास खोने को कुछ नहीं की स्थितियां अब नहीं बची हैं इसलिए अगर वह साम्यवादी क्रांति के चक्कर में पड़ा और क्रांति विफल हो गई तो बेहतर मेहनताने जैसी कई चीजें उसे खोनी पड़ेगी।

दूसरे बाजारवाद ने यह भ्रम पैदा किया कि वह ज्यादा से ज्यादा लोगों को समृद्ध बनाना चाहता है ताकि उनके पास क्रय शक्ति हो क्योंकि बाजारवाद तो अधिक ग्राहक मिलने पर ही टिक सकता है। लेकिन यह बाजारवाद और उपभोक्तावाद का शुरूआती चरण था अब यह करवट बदल रहा है। बाजारवाद नये स्वरूप में समृद्धि की चोटियां खड़ी करने में लग गया है जिसके आसपास वंचना की बड़ी खाइयां बनना स्वाभाविक है। इसे नोटबंदी के दौर में भी भाजपा के कुछ बड़े नेताओं द्वारा अपनी संतानों की शादियों में कई सौ करोड़ रूपये के खर्चे से समझा जा सकता है। अब उपभोक्तावाद का दायरा सिमट रहा है। समृद्धि के शिखर पुरूषों के अपने तामझाम इतने विकराल होते जा रहे हैं कि सारी प्रगति उन तक समेट दी जाये तो भी कम पड़ जायेगा। इस कारण जरूरत इस बात की है कि व्यवस्था को चार्वाकवाद के पाश से मुक्त किया जाये।

अगर भाजपा और संघ का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भारत की मूल अध्यात्म परंपरा के अनुरूप है तो उसे उपभोक्तावाद का संवरण करना होगा। आम आदमी से ज्यादा टैक्स वसूलने के शार्टकट रास्ते पर चलने की बजाय उसे विकास की जरूरतों के लिए विलासिता पर पर्याप्त टैक्स की ओर उन्मुख होना होगा। चार्वाकवाद के व्यामोह में समृद्धि के शिखरों का पोषण करने की बजाय उसे गांव से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक के बेनामी संपदा संचयन के खिलाफ कठोर रूख अपनाना होगा ताकि वह विकास की जरूरतों के अनुरूप अपने खजाने की व्यवस्था कर सके। स्वयं भाजपा जब सत्ता में थी तो कालेधन के खिलाफ जिहाद के तेवर दिखाती थी लेकिन आज उसने इस पर चुप्पी क्यों लगा रखी है यह रहस्यमय है। अब विदेशी बैंकों में जमा कालेधन को देश में लाने और देश के अंदर कालेधन को सभी स्तरों पर जब्त करने के संकल्पों को उसे क्यों भुलाना पड़ रहा है। सीमित लोगों के शौक और सुविधा के विकास के लिए औकात से ज्यादा संसाधन लुटाने की नीति उसे बदलनी होगी। अगर उपभोक्तावाद और बाजारवाद के अरक्षित होने के खतरे की वजह से वह ऐसा करने में संकोच दिखाती है तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के लिए उसकी प्रतिबद्धता झूठी साबित होकर रह जायेगी और चार्वाकवादी मोह उसे मारीच का अवतार प्रदर्शित करने वाला सिद्ध होगा।    

K.P.Singh  

Distt - Jalaun (U.P.)

Mob.No.09415187850

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