चरण सिंह राजपूत-
अगले साल उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए बिसात बिछनी शुरू हो गई है। भले ही चुनाव की घोषणा होने में अभी बहुत समय है पर राजनीतिक दलों ने चुनाव के लिए पूरी तरह से कमर कस ली है। वह बात दूसरी है कि विपक्ष से ज्यादा सत्तापक्ष ज्यादा सक्रिय नजर आ रहा है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सत्ता का फायदा उठाते हुए गोटी फिट करने का खेल शुरू कर दिया है। वह चुनाव को मजबूत करने के लिए न लखनऊ बल्कि दिल्ली में बैठे नेता नेताओं को भी साध रहे हंै। विपक्ष भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अपने करीबी अरविंद शर्मा को उत्तर प्रदेश में भेजने के बाद उपजा योगी और मोदी विवाद विपक्ष के लिए राहतभरा महसूस हो रहा है पर इससे भी योगी मजबूत हुए हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा के सामने पं. बंगाल में ममता बनर्जी, दिल्ली में अरविंद केजरीवाल और बिहार में तेजस्वी यादव की तरह कौन ताल ठोकेगा ? योगी सरकार के खिलाफ बसपा की चुप्पी तो उसे भाजपा के खेमे में खड़ा कर रही है। प्रियंका गांधी लगातार सक्रियता के बावजूद कांग्रेस अभी भी उत्तर प्रदेश में कोई खास छाप नहीं छोड़ पाई है। आप का उत्तर प्रदेश में कुछ खास जनाधार नहीं है। असद्दुदीन आवैसी हर चुनाव में भाजपा के लिए काम कर रहे हंै। ऐसे में सपा ही मुख्य विपक्ष पार्टी मानी जा रही है। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बिल्ली के भाग से छींका टूटने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। न वह योगी सरकार के खिलाफ कोई बड़ा आंदोलन खड़ा कर पाये हैं और न ही चुनावी समर में जाने के लिए उनके पास मजबूत संगठन है।
दरअसल उत्तर प्रदेश का चुनाव 2024 के आम चुनाव के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जा रहा है। वैसे भी देश की राजनीति में यह माना जाता है कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। ऐसे में भाजपा को केंद्र से बेदखल करने के लिए उत्तर प्रदेश चुनाव जीतना बहुत जरूरी है। तो प्रश्न उठता है कि आखिरकार उत्तर प्रदेश का चुनाव जीते कैसे जाए ? निश्चित रूप से पंचायत चुनाव में सपा ने बढ़त बनाई है पर क्या विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव अपने दम पर नरेंद्र मोदी, योगी आदित्यनाथ, अमित शाह, राजनाथ सिंह जैसे मझे हुए नेताओं का सामना कर पाएंगे ? वह भी तब जब सपा के संरक्षक मुलायम सिंह यादव की सहानुभूति लगातार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ रही है। आजम खां की गिरफ्तारी और उनके जेल जाने तथा उन पर मुकदमों के लाद देने पर अखिलेश यादव से मुस्लिमों की नाराजगी अलग से। वैसे भी नोएडा के यादव सिंह प्रकरण के साये ने यादव परिवार को अभी तक नहीं छोड़ा है। हो सकता है कि अखिलेश यादव की छवि खराब करने के लिए यादव सिंह प्रकरण को फिर से हवा दे दी जाए। यादव सिंह प्रकरण में रामगोपाल यादव और उनके बेटे अक्षय यादव का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि मो. आजम खां की बलि ही रामगोपाल यादव और उनके बेटे को बचाने के लिए दी गई है। यह भी जमीनी हकीकत है कि जब से समाजवादी पार्टी की कमान अखिलेश यादव के हाथों में है तो समाजवादी पार्टी में अखिलेश यादव और उनकी पत्नी डिंपल यादव ही स्टार प्रचारक हैं। वैसे भी अखिलेश यादव को चुनाव को जीतने वाले अपने पिता मुलायम सिंह जैसे दांव-पेंच नहीं आते। न ही नेताओं और समर्थकों को साधने की उनमें अपने पिता जैसी कला है। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ और 2019 के आम चुनाव में बसपा के साथ किये गये गठबंधन में उनको मिली विफलता सबसे सामने है।
समाजवादी उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के लिए कितनी तैयार है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अभी तक प्रदेश कार्यकारिणी ही घोषित नहीं हो पाई है। जिले के संगठनों में भी निष्क्रियता का आलम हैं। यह भी एक बड़ा मुद्दा है कि समाजवादी योगी सरकार के खिलाफ एक भी टिकाऊ आंदोलन नहीं कर पाई है। सत्ता पक्ष आगे बढ़कर 300 से ज्यादा सीटें लाने का दावा कर रहा है पर विपक्ष में मुख्य पार्टी समाजवादी पार्टी के मुखिया अभी भी बिल्ली के भाग से छींका टूटने के इंतजार में हैं। कभी योगी आदित्यनाथ के नोएडा आने पर वह उनकी कुर्सी छिन जीने के टोटके पर खुश हो लेते हैं तो कभी योगी और मोदी के विवाद पर । कभी किसान आंदोलन पर खुश हो लेते हैं तो कभी कोरोना के कहर में योगी सरकार की विपलता पर। हां उन्हें करना कुछ नहीं है। वह इस रणनीति पर काम करने को कतई तैयार नहीं कि कैसे योगी सरकार की खामियों को जनता के सामने लाया जाए ? यह अपने आप में हास्यास्पद है कि योगी की खामियों को लेकर अभियान चलाने के बजाय सपा कायर्कर्ताओं अखलेश यादव सरकार की उपलब्धि को लेकर गांव-गांव कार्यक्रम किये हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या 2017 का विधानसभा चुनाव अखिलेश सरकार की उपलब्धियों को लेकर नहीं लड़ा गया था ?
निश्चित रूप से दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने पं. बंगाल में ममता बनर्जी ने भाजपा के महारथियों को घुटने टेकने के लिए मजबूर किया है। महाराष्ट्र में शरद पवार ने अपने अनुभव के आधार पर उद्धव ठाकरे की सरकार बनवाई। बिहार में भले ही तेजस्वी यादव की सरकार भले न बन पाई हो पर उन्होंने अकेले दम पर न केवल मोदी-योगी बल्कि नीतीश कुमार को भी पानी पिला दिया। यह भी कड़ुवी सच्चाई है कि ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, शरद पवार, तेजस्वी यादव जैसे तेवर और संघर्ष अखिलेश यादव में नहीं देखा जा रहा है।
उधर से असदुद्दीन ओवैसी उत्तर प्रदेश में 100 सीटे लडऩे की रणनीति बना रहे हैं। उनका पूरा फोकस प. उत्तर प्रदेश के सपा के वोटबैंक मुस्लिमों पर होगा। कांग्रेस उत्तर प्रदेश की प्रभारी प्रियंका गांधी निश्चित रूप से उत्तर प्रदेश में पूरी तरह से सक्रिय हैं। वह लगातार योगी सरकार को निशाना भी बना रही हैं पर कांग्रेस का उत्तर प्रदेश में खास जनाधार नहीं है। आम आदमी पार्टी भी उत्तर प्रदेश में वोटकटवा पार्टी के रूप में मानाी जा रही है। रालोद भले ही किसान आंदोलन पर बढ़त बनाने का सपना देख रहा हो पर जयंत चौधरी भी अपने पिता अजीत चौधरी की तरह ढीले नेता साबित हुए हैं। ऐसे में भाजपा को कैसे शिकस्त दी जाए यह विपक्ष के लिए मंथन का विषय है। हां सपा, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, रालोद के साथ अन्य दल मिलकर एक मोर्चा बना लें तो बात दूसरी है।
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