8.6.21

संघी नेतृत्व में भारत को आज फिर से गुलामी के दिनों की तरफ ढकेला जा रहा है!

Shyam Singh Rawat-

सन् 1857 की क्रांति आज भी प्रासंगिक है!

ब्रिटिश शासन काल में भारत की जैसी दुर्दशा बना दी गई थी, कमोवेश संघी नेतृत्व में आज भारत को बड़ी चतुराई से उसी राह पर धकेला जा रहा है। इसे एक ओर 1943-44 में संघी श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा बंगाल में खाद्यान्न का कृत्रिम अभाव पैदा कर उसे विदेश भेजने और उसके कारण वहां 30 लाख लोगों को भूख से तड़पते हुए जान गँवाने पर मजबूर कर देने की ऐतिहासिक घटना के संदर्भ में व्याख्यायित किया जा सकता है, तो दूसरी तरफ सरकारी आतंक के जरिए लोगों की आवाज दबाने की वर्तमान कुत्सित मानसिकता के माध्यम से सरलतापूर्वक समझा जा सकता है।  


भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी जहांगीर के शासनकाल में ईस्वी सन् 1608 में व्यापार करने आई लेकिन तब इजाजत नहीं मिलने पर दोबारा 1615 में ब्रिटिश सांसद और राजदूत सर थॉमस रो को भेजा गया। तीन साल तक लगातार अनुनय-विनय के बाद थॉमस रो को जहाँगीर ने ईस्ट इंडिया कंपनी को कुछ प्रतिबंधों के साथ व्यापार करने की अनुमति दी गई।

करीब 242 वर्षों तक भारत में व्यापार करते हुए यहां से अकूत दौलत इंग्लैंड भेजते रहने के बाद इस देश की बहुमूल्य संपदा पर समग्रता में अधिकार जमाने की लंबी रणनीति के तहत 1787 में प्लासी के युद्ध में अंग्रेजों ने छल-कपट के सहारे नवाब सिराजुद्दौला को पराजित करने में सफलता प्राप्त कर ली। फिर तो उन्होंने अपनी उसी कुटिलता से भारत में झूठ-कपट और छल-प्रपंच का मायाजाल फैलाते हुए एक-एक कर देसी रियासतों को हड़पने का खेल शुरू किया। उसके बाद जिस तरह अंग्रेजों ने एक-एक कर सभी देसी रियासतों पर कब्जा कर लिया, वह इतिहास में दर्ज है।

आधुनिक समय में जबकि हथियारों से लड़ने के परंपरागत तरीके बदल गये हैं और उनकी जगह लड़ाई मानसिक दबाव बनाने वाले साधनों से लड़ी जा रही है। ऐसे में युद्ध की ठीक उसी शैली में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का दिखावा कर आज देश के सभी प्रदेशों की सत्ता हड़पी जा रही है। फर्क सिर्फ इतना है कि उन्होंने अवसर आने पर सैन्य बलों का भी इस्तेमाल किया और इस दौर में विपक्ष पर ईडी, सीबीआइ, इनकम टैक्स, पुलिस, प्रशासन और मीडिया के जरिए हमले किये जा रहे हैं।

जनता की दयनीय स्थिति तब भी प्रकारांतर से ऐसी ही थी। विरोध और असहमति पर तब भी दंडित किया गया तो आज भी अंग्रेजों की उसी परंपरा का अनुकरण किया जा रहा है। आज भी 1967 में पारित गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (Unlawful Activities (Prevention) Act—UAPA) को 2019 में कठोर दंडात्मक संशोधन करके लोगों को अनंत काल के लिए जेलों में बंद कर प्रताड़ित किया जा रहा है। उन्हें एकदम झूठे और मनमाने मामलों में मुकदमेबाजी में उलझा देना सत्ताधारियों का बायें हाथ का खेल बन गया है।

लोकतांत्रिक पद्धति से निर्वाचित सरकार असहमति, आलोचना और विरोध के प्रति इस हद तक असहनशील हो गई है कि एक ट्वीट या एक छोटे से कार्टून से ही छटपटाने लगती है और उसके खिलाफ कार्रवाई शुरू कर देती है। इसका ताजा उदाहरण देश के जाने-माने कार्टूनिस्ट मंजुल का मामला हमारे सामने है। ट्विटर पर उनके एक कार्टून के लिए सरकार ने ट्विटर को नोटिस जारी कर उनका अकाउंट प्रतिबंधित करने को कहा है।

यह देश को उस संघ का ग़ुलाम बनाने का एक और कदम है जो आग लगाकर दूर खड़ा तमाशा देखता है। वह खुद को गैर-राजनीतिक संगठन का चाहे जितना ढोल पीट ले, लेकिन यह कौन नहीं जानता कि अपने आनुषांगिक संगठन—भारतीय जनता पार्टी की रीति-नितियों के निर्धारण से लेकर उसके लिए वैचारिक ज़मीन तैयार करने, चुनावी रणनीति तय करने, प्रत्याशियों का चयन, टिकट वितरण, चुनाव प्रचार, सरकार के गठन, मंत्रियों के विभागों का बंटवारा और फिर सरकारी कामकाज में हस्तक्षेप तक सबकुछ संघ द्वारा संचालित किया जाता है।

संघ के पसंदीदा स्वयंसेवक नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश की जैसी ऐतिहासिक दुर्दशा योजनाबद्ध तरीके से बना दी गई है और यह प्रक्रिया निरंतर जारी है, वह अंग्रेजी दासता के दौर से कम नहीं है। इसका सबसे बड़ा नुक़सान यह है कि लोगों के भीतर जहां एक तरफ निराशा फैल गई है, वहीं दूसरी ओर सरकारी आतंक बढ़ रहा है। लोगों को सार्वजनिक रूप से अपने विचार व्यक्त करने से रोका जा रहा है।

तेरा कुत्ता, कुत्ता मेरा वाला टॉमी....

मीडिया के माध्यम से झूठ-कपट और छल-प्रपंच का मायाजाल फैलाकर सभी राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को हाशिए पर धकेलने के प्रयास जारी हैं। हालांकि वे भी दूध के धुले नहीं हैं, फिर भी  जिस तरह उनकी छवि खलनायक और देश के गद्दारों जैसी बनाई जा रही है, उसे देखते हुए क्या यह ठीक है कि तमाम दलों के महाभ्रष्ट, कुख्यात दल बदलू और यहां तक कि दंगे व वेश्यावृत्ति के आपराधिक मामलों के आरोपियों को बड़ी शान से भाजपा में शामिल कराया जाता रहा है?

संघी नेतृत्व नैतिकता की सारी सीमाएं पार कर किस स्तर तक गिर चुका है, उसकी एक झलक इसके मुखिया द्वारा देश में कोरोना के कुप्रबंधन और देशभर में मृतकों के अंतिम संस्कार तक के लिए लगी लंबी-लंबी कतारें, गंगा में तैरते शव, जेसीबी मशीनों से खाइयां खोदकर थोक में शवों का दफ़न, लोगों की मर्माहत करने वाली चीख-पुकार के बीच दिये गये उस बयान से मिलती है जिसमें कहा गया था कि ये मरे नहीं बल्कि इन्हें मोक्ष प्राप्त हो गया है। यह जले पर नमक छिड़कने जैसा है। क्या मोहन भागवत की मानवीय संवेदना मर चुकी है या उनके पास संवेदना व्यक्त करने के लिए इससे बेहतर शब्द नहीं थे या फिर वे सत्ता के अहंकार में इस स्तर तक चूर हैं कि उन्हें मानव गरिमा का ध्यान ही नहीं रह गया है?

बहरहाल, इन परिस्थितियों में एक सवाल उभरता है कि क्या इस अंधेरे से निकलने के लिए कोई सामाजिक आंदोलन उभर सकता है? यहां बात समाज का मार्गदर्शन करने वाले अच्छे-भले पढ़े-लिखे और सामाजिक सरोकारों के प्रति जागरूक लोगों की मानसिक स्थिति के संदर्भ में हो रही है। जो आने वाली हवा की गंध मीलों दूर बैठे महसूस कर लेते हैं। क्या देश में 1857 जैसी जनक्रांति आज भी संभव है?

यहां थोड़ा रुककर सोचिए कि यदि 1857 की वह क्रान्ति न हुई होती, तो देश की कैसी सूरत होती? सन् 1757 से लेकर 1857 तक के कंपनी के राज, उसकी करतूतों और तज्जनित अपार दुखों की व्यथा को यहां दोहराना असंभव और निरर्थक है लेकिन लॉर्ड डलहौजी के ही भारतीय रियासतों को हड़पने और उस जनक्रांति के लिए इतिहास लेखक लुडलो की यह राय विचारणीय है—

"यदि इन हालात में उन लोगों के पक्ष में, जिनकी रियासतें छीन ली गई थीं और छीनने वालों के विरुद्ध भारतवासियों के भाव न भड़क उठते तो भारतवासी मनुष्यत्व से गिरे हुए समझे जाते।"

(Thoughts on the policy of the crown, pp. 35-36)

आज जिस तरह देश में योजनाबद्ध तरीके से लोगों की नौकरियां, छोटे-बड़े सभी तरह के व्यवसाय, बैंकों में जमा धन, संवैधानिक अधिकार, मानवाधिकार आदि सबकुछ जबरन छीन लिया जा रहा है, असहमति, आलोचना और विरोध को देशद्रोह बताकर तरह-तरह के कानूनों का सहारा लेकर प्रताड़ित किया जा रहा है, ऐसे में देशवासियों के हृदय में जोश उत्पन्न होने की संभावना बनी हुई है क्योंकि मनुष्य का विचार, चाहे सत्य हो या असत्य, किंतु जिस चीज को भी मनुष्य अपना समझता है, उसको आघात से बचाने के लिए वह अपना सर्वस्व तक न्योछावर करने को तैयार हो जाता है।

जैसे 1857 के दौर में भारतवासियों के हृदय में मनुष्यत्व बाकी था, तो वह क्रांति स्वाभाविक और अनिवार्य थी। उस क्रांति के आदशों या उस दौर के क्रांतिकारियों के बारे में हमारे विचार चाहे कुछ भी क्यों न हों, किंतु इसमें संदेह नहीं कि यदि 1857 की क्रांति न हुई होती, तो उसका यही अर्थ होता कि भारतवासियों में से स्वाभिमान, कर्तव्यपरायणता, संघर्षशीलता और जीवन-शक्ति का अंत हो चुका।

अंग्रेज शासकों के हौसले फिर हजारों गुना बढ़ गए होते और भारतवासियों के जीवन में आशा की किरण तक कहीं दूर-दूर दिखाई न देती। सन् 1857 के क्रांतिकारियों का अमूल्य बलिदान किसी भी नजरिए से जरा-सा भी व्यर्थ नहीं गया। उसी जनक्रांति की कोख से 1860 का सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट निकला जो आज भी बदस्तूर जारी है। सरकारी कामकाज में अनेक बदलाव करने पड़े। निस्संदेह कुलीन वर्ग का ही सही लेकिन एक डिबेटिंग क्लब के तौर पर कांग्रेस का जन्म एक अंग्रेज़ के माध्यम से हुआ। वहीं से स्वाधीन भारत के सूर्योदय का उजास भारतीय आकाश में प्रस्फुटित हुआ।

उस अमर क्रांति के अग्रदूतों के आत्मबलिदान ने एक तरफ तो अंग्रेज शासकों की आंखें खोल दीं तो दूसरी ओर उन्होंने कोटि-कोटि भारतीयों के राष्ट्रीय जीवन में आशा और आत्मविश्वास की झलक पैदा कर दी। जो कभी फीकी नहीं पड़ी और अंततोगत्वा देश शताब्दियों के अंधकार से बाहर निकल आया। क्या उन हुतात्माओं का शौर्य और पराक्रम कभी भी अप्रासंगिक हो सकता है? नहीं, कदापि नहीं ! जब भी कालक्रम से ऐसी दुरूह परिस्थितियां सामने होंगी, तब उन बलिदानों की गाथाएं प्रताड़ित, शोषित और संघर्षशील लोगों के भीतर आत्मोत्सर्ग की ज्वाला धधकाती रहेंगी।

(चित्र—सन 1857 के हमारे एक दुर्द्धष योद्धा पुरखे गंगू मेहतर, फाँसी दिए जाने से ठीक पहले, जिनकी यह तस्वीर सन 1858 में कानपुर में अंग्रेज सिविल सर्जन जॉन निकोलस ट्रेसीडर (1818-1889) ने ली थी। आभार: अलकाजी संग्रह)

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