21.6.21

बड़ा बेदर्द है यह, तेल का खेल... शाइनिंग इंडिया या क्राइंग इंडिया

  संतोष गुप्ता-

राजा द्वारा कितना टैक्स लिया जाना चाहिए, नीति शास्त्र में इसका बड़े विस्तार से वर्णन किया गया है। पुराने राजे- महाराजे इस बात का विशेष ध्यान भी रखते थे। वे यह बात अच्छी तरह जानते थे कि अगर जनता का ज्यादा तेल निकाला गया तो वो बागी हो सकती है। जनता के बागी हो जाने पर निकाले गए तेल से कई गुना ज्यादा ऊर्जा उस बगावत को दबाने में नष्ट हो जाती है। अतः समझदार राजा देश की जनता पर जरूरत से ज्यादा टैक्स लगाने की नीति से अक्सर किनारा करने में ही अपनी भलाई समझता था। जब कभी जनता की बात ना सुनकर, उनकी परेशानी ना समझ कर राजा ने अपनी मनमानी की तो उसका राज ज्यादा समय तक ना तो कायम रह सका और ना उसकी जनता कभी उससे संतुष्ट रह सकी। इतिहास ऐसी घटनाओं से अटा पड़ा है।


देश के मौजूदा हालातों की बात करें तो बहुत से वर्गों को खून के आंसू रोते देखा जा सकता है। सोशल मीडिया के इस जमाने में सत्ता में बैठे लोग देश की वास्तविक परेशानियों से अनजान हों, यह हो ही नहीं सकता। अटल बिहारी वाजपेई के शासनकाल में हालांकि काफी विकास हुआ था किंतु "शाइनिंग इंडिया" तथा "फीलगुड" जैसा प्रपंच रचने वाले लोगों ने देश को "कराईंग इंडिया" और 'फीलबैड' साबित करके अटल सरकार को चलता करने में अहम भूमिका निभाई। टैक्स के मामले में चाणक्य नीति के अनुसार राजा को वैसे ही टैक्स लेना चाहिए जैसे सूर्य धरती से पानी लेता है। कटोरी से थोड़ा, झील से ज्यादा, समुंदर से और ज्यादा और देते हुए वह सब को वर्षा के रूप में एक समान वापस देता है।

 वर्तमान सरकार की तो हर बात ही निराली है। कहीं वैट, तो कहीं जीएसटी, कहीं एक्साइज ड्यूटी तो कहीं सेस। और सेस भी ऐसे ऐसे कि लोग समझ ही नहीं पा रहे कि सरकार टैक्स ले रही है या खून निकल रही है। काओ (गऊ) सेस के नाम पर मोटी कमाई, लेकिन गऊएं बेचारी भूख से तड़प-तड़प कर दम तोड़ रही हैं। चंडीगढ़ के औद्योगिक क्षेत्र में स्थित सरकारी गौशाला की उदाहरण प्रस्तुत है। जहां पांच सौ से अधिक गऊएं हैं, लेकिन प्रशासन की ओर से उनके लिए हरे चारे का कभी कोई इंतजाम किया ही नहीं गया। गौशाला के कर्मचारियों के अनुसार चारा सिर्फ सांडों के लिए ही आता है। गऊएं अपने चारे के लिए सिर्फ दानी सज्जनों के रहमों-करम पर ही रहती हैं। उनकी दयनीय हालत की असलियत यह है कि सर्दी और बरसात के मौसम में कई बार 10 - 10 दिन तक वे गोबर व मूत्र के कीचड़ के चलते बैठ भी नहीं पाती लेकिन कहीं कोई पूछने वाला, निरीक्षण करने वाला नहीं।

एजुकेशन सेस की राम कहानी तो हम सब देख ही रहे हैं। स्कूल साल से बंद हैं, ऑनलाइन पढ़ाई के नाम पर खानापूर्ति खूब हो रही है। सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले आधे बच्चों के घरों में जब इंटरनेट की सुविधा ही नहीं तो वे भला क्या खाक पड़ेंगे। लेकिन सरकारें अपनी उपलब्धियां गिनाते नहीं थकतीं। कोविड सेस का जुलूस तो गंगा मैया ने अच्छे से सबके सामने यूं ही निकाल दिया। कुछ कहने सुनने को बचा ही नहीं।

बात पेट्रोल डीजल और रसोई गैस की। सबसे बड़ा खेल तो यहीं हो रहा है और हो भी धड़ल्ले से रहा है। यहां चोरी नहीं सीधे-सीधे डाका डाला जा रहा है।

"अरे ओ सांभा! कितना गेहूं देते हैं यह रामगढ़ के लोग?" वाले स्टाइल में यहां पूछा जाता है -
 "कितनी आय हो रही है प्रति लीटर पेट्रोल पर?"
"सरकार यही कोई 33 रुपए"
"35 क्यों नहीं"
"समझ गया हुजूर"

दरअसल यहां सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि केंद्र और राज्य सरकारें इस बेदर्द खेल में बराबर की हिस्सेदार हैं। दरअसल सत्ता प्राप्त करने से पहले जनता ही जनता दिखाई देती है। सारी राजनीति उसी के नाम पर होती है, लेकिन जैसे ही सत्ता हाथ में आई, सोचने समझने का नजरिया पूरी तरह बदल जाता है। बात नरेंद्र मोदी की कर लें, स्मृति ईरानी की करें या बाबा उर्फ लाला रामदेव की। वैसे यह लोग अकेले नहीं, बहुत लंबी सूची है गैस और तेल की कीमतों को लेकर प्रदर्शन करने वालों की। यह तीन नाम तो सामने इसीलिए आ गए क्योंकि आज यह तीनों सत्ता के पर्यायवाची शब्द माने जाते हैं।

 भाजपा सरकार ने सत्ता में आते ही पहला काम यह किया कि विपक्षी दलों को इस तरह दबा दिया जाए कि उनकी जुबान ही तालू से लगी रहे। अपने मुख्य प्रतिद्वंदी राहुल गांधी को पप्पू- पप्पू कहकर इतना प्रचारित किया गया कि वह लोगों के लिए पप्पू बनकर ही रह गया। हालांकि राहुल गांधी की अपनी कुछ गलतियां भी जरूर रही लेकिन जैसे कहते हैं कि तेरा कुत्ता, 'कुत्ता' मेरा कुत्ता "टॉमी"। ठीक यही हो रहा है। होना तो यह चाहिए था कि गलतियां सत्ता में बैठे लोगों की उभारी जानी चाहिए थी लेकिन कांग्रेस चूंकि खुद दशकों तक सत्ता में रही थी अतः उसे पता था कि सरकार में बैठे लोगों की क्या मजबूरियां होती है। अतः उन्होंने भाजपा सरकार की गलतियों को हाई लेवल पर प्रचारित करने के लिए कभी कोई बड़ा अभियान नहीं चलाया। अधिकतर विपक्षी नेता सत्ताशीनों की तरफ पीठ करके पहले ही बैठ चुके थे। नोटबंदी, जीएसटी, पुलवामा, सर्जिकल स्ट्राइक, धारा 370, राम मंदिर जैसे अनेक अवसर थे जहां मजबूत विपक्ष सरकार को नानी याद करवा सकता था। लेकिन किसी मुद्दे पर विपक्ष की तरफ से कोई जोरदार आवाजें सुनाई नहीं दी। निर्भया कांड, जिस ने मनमोहन सरकार के नाक में दम कर दिया था, से कहीं विभत्स हाथरस कांड हुआ, जहां बलात्कार पीड़िता के शव को सरकारी अधिकारियों द्वारा रात 2:00 बजे बिना उसके परिवार की सहमति के जला दिया गया। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को उत्तर प्रदेश सरकार ने पीड़िता के परिवार से मिलने तक नहीं दिया।

फिर भला तेल के इस बेदर्द खेल के खिलाफ कोई कुछ करे तो क्या करे? पेट्रोल, डीजल, गैस तथा खाने के तेल की कीमतों में हो रही वृद्धि के कारण लोग खून के आंसू तो अवश्य रो रहे हैं लेकिन सरकार किसी के आंसू देखने के मूड में नजर नहीं आ रही। प्रधानमंत्री जी को नई कारों का काफिला चाहिए, उसके लिए पैसा कहां से आएगा? तेल के खेल से। प्रधानमंत्री जी को नया बंगला चाहिए, धन कहां से आएगा? तेल से। नया संसद भवन भी जरूर चाहिए, धन चाहे लोगों का खून निचोड़कर ही एकत्र करना पड़े, करेंगे।

मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी जानता है कि पेट्रोल-डीजल 10 पैसे प्रति लीटर भी महंगा होगा तो हर चीज 10% महंगी जरूर होगी। कहीं कोई तर्क नहीं। यानि तेल - गैस की लूट है, लूट सके तो लूट। क्योंकि राम -नाम तो कैश किया जा चुका है। करोना काल में वैसे भी राम नाम श्मशान घाट की संपत्ति बन चुका है। "नमामि गंगे" प्रोजेक्ट में सब बह गया उन शवों के साथ। बाकी है तो बस तेल का खेल। पैट्रोल - डीजल ही नहीं, खाने वाला तेल भी उतना ही चमकदार हो चुका है बल्कि खाने वाला तेल तो एक साल में ही लगभग दुगने भाग पर बिकने लगा है। सरसों का तेल ₹200 प्रति लीटर हुआ तो सवाल उठने लगे कि फिर तो सरसों के दाम भी बढ़ गए होंगे? हां जनाब, वह तो बढ़ने ही थे। अरे! सरसों के दाम बढ़े तो किसानों के तो मजे हो गए? नहीं जनाब, सरसों के दाम तब बढ़े जब यह अदानी सर के गोदामों में पहुंच गई थी, फॉर्च्यून तेल का कारोबार उन्हीं का तो है। अंत कृष्ण बिहारी नूर जी की कुछ पंक्तियों के साथ -

ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं,
और क्या जुर्म है पता ही नहीं।

इतने हिस्सों में बंट गया हूँ मैं,
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं।

ज़िंदगी मौत तेरी मंज़िल है,
दूसरा कोई रास्ता ही नहीं।

सच घटे या बढ़े, तो सच न रहे,
झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं

ज़िंदगी अब बता कहाँ जाएँ?
ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं।

जिस के कारण फ़साद होते हैं,
उस का कोई अता-पता ही नहीं।

कैसे अवतार और कैसे पैग़मबर ?
 लगता है अब कोई ख़ुदा ही नहीं।

चाहे सोने के फ़्रेम में जड़ दो यारो,
 आईना झूठ बोलता ही नहीं।

अपनी रचनाओं में वो ज़िंदा है,
'नूर' संसार से गया ही नहीं ।।

-संतोष गुप्ता
97811-75450

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