सरकार/सत्ता में चेहरा बदलता हैं चाल और चरित्र नहीं। सारे नेताओं का चाल और चरित्र सत्ता मिलते ही वैसा ही हो जाता है जैसा पूर्ववर्ती सत्ता पक्ष के लोगों का होता है। नेता जब तक सत्ता में नहीं होता तब तक शालीन होता है। शालीनता, मानवता का प्रतीक है। सत्ता मिलते ही नेता अभिनेता हो जाता है। कहने का तात्पर्य जिस प्रकार अभिनेता, अभिनय करके किसी भी चरित्र का निर्माण करता हैं। उसी प्रकार नेता सत्ता मिलते ही अभिनय की भूमिका में आ जाता है। अभिनय नाटक का एक अंग है। नेताओ को गौर से देंखे और समझें तो आप पाएंगे कि सत्ता पाते ही नेताओं के बोलने का ढंग,चलने का ढंग,बैठने का ढंग,खान-पान का ढंग,लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त करने का ढंग सब कुछ बेढंगा हो जाता है। सत्ता मिलते ही सुख सुविधाओं की अति नेताओं की दुर्गति का कारण बनती है। सुख सुविधा उतनी ही होनी चाहिए जितनी आवश्यक हो।
किसी भी चीज कि अति दुर्गति का कारण बनती है। ज्यादा खाना खा लीजिये,खाना पचना बंद हो जाता है। उसी तरह नेताओं की ज्यादा सुख सुविधा नेताओं को बेढंगा बनाने में मदद करती है। लोकतंत्रात्मक प्रणाली का जुगाड़ तंत्रात्मक हो जाना आदि अन्य सामाजिक कुरीतियों ने जन्म ले लिया। सत्य अहिंसा विरोधी रथ पर सवार हो सत्ता के चरम शिखर पर पहुंचने वाले सुधारकों की मनोदशा ठीक नहीं है। सुधारकों की प्रवृत्ति ठीक होती तो देश में गरीबों और वंचितों पर जुल्म न होता,आए दिन लोग गरीबी से न मरते,नौकरी न मिलने की वजह से युवा आत्महत्या न करता,और समाज में विषमता न पैदा होती आदि। राजनेता को समाज के लिए मार्गदर्शक की भूमिका में होना चाहिए ना कि अभिनय की भूमिका में। लोकतंत्र में लोगों के मतों के द्वारा ही सत्ता का निर्माण होता है।
मकान रूपी सत्ता का निर्माण ईंट रूपी जनता के द्वारा ही होता है। कोई भी मकान बिना ईंट के नहीं बनता| मकान की ईंट पर आंच आएगी तो मकान गिरेगा। उसी प्रकार यदि जनता पर आंच आएगी तो सत्ता का गिरना तय है। अभिनय, अभिमान (घमंड) को जन्म देती है। अभिमान अर्थात अभी + मान मतलब अपनी ही चलाना (जनता की न सुनना)। हर एक सत्ता पक्ष का नेता घमंडी है क्योंकि वह अभिमान से घिरा है। उसके पास वह सब कुछ है जो जनता के पास नहीं। अभी हाल ही में मोदी मंत्रीमंडल में बड़ा फेरबदल हुआ| फेरबदल से सरकार पर अतिरिक्त खर्चे का बोझ आता है। ये अतिरिक्त खर्चा जनता के खून पसीने की गाढ़ी कमाई का हिस्सा होता है। हर एक सत्ता पक्ष यही करता है। चुनाव नजदीक आता है सत्ता पक्ष अपने हर एक नेता को खुश करने के लिए मंत्रीमंडल में शामिल करता है। ऐसे समय में सरकारें जनता को मुर्ख समझती हैं। खुश करना है तो जनता को करो, नेता को नहीं। जनता को समझदारी के साथ चुनाव में निर्णायक भूमिका अदा करनी चाहिए। जनता कोरोना से मर रही है। यहाँ सरकारें चुनाव में जीतने के लिए अपने नेताओं को सरकारी खजाना लुटाकर खुश कर रही है। सरकारें जनता की चिंता न कर, अपने नेताओं की चिंता कर रहीं हैं। जागो वोटर ! जागो।
किसी विशेष राजनैतिक पार्टी को लम्बे समय तक दिया गया लाभ,दूसरे राजनैतिक पार्टी के लोगों को प्रभावित करता है। ये समानता कैसी है ? जो सत्तापक्ष है उसको कुछ भी करने की आजादी और जो विपक्ष में है उसको कुछ न करने की आजादी। ये समानता में दरार पैदा करती है। यही कारण है कि राजनीति बदले की राजनीति हो गई है। जिस प्रकार दूध में पाए जाने वाले माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस और गैर-बीजाणु बनाने वाले अन्य रोग-रोधी सूक्ष्मजीवों को नष्ट करने के लिए समय (15 सेकंड) और तापमान (72°सेंटीग्रेड ) आवश्यक है। यदि समय और तापमान बहुत ज्यादा कर दें तो दूध का पोषण ख़त्म हो जाएगा। कहने का तात्पर्य यह है कि सीमा से ज्यादा समय और तापमान देकर हम दूध में से हानिकारक बैक्टीरिया तो ख़त्म कर सकते हैं पर दूध की क्वालिटी खराब हो जाती है। उसी प्रकार से सीमा से ज्यादा समय तक सत्ता पक्ष को दी गई सुख सुविधा, सत्ता पक्ष के नेताओं को अपंग और आलसी बना देता है। अतएव सत्ता पक्ष के नेताओं को सुख सुविधा देते समय,समय और परिस्थिति तय होनी चाहिए|
कोरोना महामारी के दौर में सरकार को जनता-हित में जनता के सुख के लिए कार्य करना चाहिए। ये क्या हो रहा है मंत्रीमंडल और गवर्नर आए दिन बदले जा रहे हैं। इससे कोरोना न तो ख़त्म होगा और न ही जनता खुश होगी। ये कैसी सरकार जिसके कार्यकर्ताओं की सुनी नहीं जाती। कार्यकर्ता आए दिन पुलिस और प्रशासन के शोषण का शिकार हो रहे है। किसी भी पार्टी का कार्यकर्ता ही पार्टी को सत्ता का सुख दिलाता है। कार्यकर्ता सरकारी सुख सुविधाओं से वंचित होता है इसलिए ये जनता के सुख दुःख का भागी होता हैं और जनता के करीब होता है। राष्ट्र,राष्ट्र में रहने वाले लोगों से मिलकर बना है| राष्ट्रवाद बिना मानव के संभव नहीं है। अतएव कोरोना महामारी में मानव-जीवन को बचाने की प्राथमिकता होनी चाहिए। किसी भी देश में महामारी के समय सत्ता पक्ष के नेताओं की सुख सुविधाएं कम कर देनी चाहिए। जिससे महामारी से लड़ने में खर्चे का वहन हो सके। कोरोना महामारी में हमें देखने को मिला कि "जनता त्रस्त है,नेता मस्त हैं"। अतएव हम कह सकते हैं कि इस महामारी में जनता त्रस्त है और नेता मस्त हैं।
लेखक
डॉ.शंकर सुवन सिंह
वरिष्ठ स्तम्भकार एवं विचारक
असिस्टेंट प्रोफेसर एंड प्रॉक्टर
शुएट्स,नैनी,प्रयागराज(यू.पी.)
9415557362,shanker.singh@shiats.edu.in
No comments:
Post a Comment