डॉ मनीष जैसल-
हर बच्चे की विशिष्ट क्षमता, पहचान के साथ उनके विकास को ध्यान में रखते हुए बुनियादी साक्षरता और अवधारणात्मक समझ विकसित करने का लक्ष्य लिए मौजूदा सरकार ने पिछले वर्ष नई शिक्षा नीति को लागू करने का निर्णय लिया था । दरअसल यह कार्य योजना 2015 में अपनाए गए सतत विकास एजेंडा 2030 के लक्ष्य 4 जिसमें वैश्विक शिक्षा विकास एजेंडा प्रस्तावित है उसको ध्यान में रखकर बनाई गयी । जिसमें 2030 तक सभी के समावेशी और समान गुणवत्ता युक्त शिक्षा सुनिश्चित करने और जीवन पर्यन्त शिक्षा के अवसरों को बढ़ावा दिए जाने की बात स्वीकारी गयी है । यह तथ्य भी सत्य है कि अगले दशक तक भारत दुनिया का सबसे युवा जनसंख्या वाला देश होगा और इन्हीं युवाओं की उच्चतर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की उपलब्धता पर ही भारत का भविष्य निर्भर करेगा ।
नई शिक्षा नीति को लेकर देश भर में तरह तरह की भ्रांतियां और विरोधाभास देखने सुनने को मिल रहे हैं । कई स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों ने तो आनन फ़ानन में इसे लागू भी कर दिया है तो कहिन इनका अध्ययन करते हुए इसकी खूबियों खामियों पर चर्चा भी कर रहे हैं । चर्चा से नए विमर्श निकल कर सामने आ रहे हैं जो भविष्य के लिए बेहतर होंगे ।
1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति को 1992 में जब संशोधित किया गया तो लोगों को उम्मीद थी की उदारीकरण के शुरुआती दौर में शिक्षा पर भी इसका असर पड़ेगा । अनिवार्य शिक्षा अधिनियम 2009 इस प्रतिफल रहा । लेकिन वैश्विक स्वरूप में काफ़ी पीछे दिख रही भारत की शिक्षा व्यवस्था में मूलभूत सुधार हेतु राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर ज़ोरों शोरों ने क्रियान्वयन किया जाना आरम्भ हुआ है ।
किसी भी स्वस्थ समाज का आंकलन उस समाज में छात्रों के लिए सुलभ शिक्षा व्यवस्था की उपलब्धता से लगाया जा सकता है । देश को दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान देने वाले डॉ भीमराव अम्बेडकर अपने छात्र जीवन में इसी व्यवस्था के संकट से जूझे थे, बावजूद इसके दुनियाँ के नामी व्यक्तित्व में अपने कर्म से चर्चित हुए ।
नई शिक्षा नीति की शुरुआत में स्पष्ट किया गया है कि इसमें लचीलापन, बहुभाषिकता, नैतिकता, मानवीयता, संवैधानिक मूल्य, जीवन कौशल, भारतीयता की जड़ों से जुड़ाव आदि को प्रमुखता से अपनाया जाएगा । यही कारण है कि भारतीय भाषाओं के साथ कोरियन, जर्मन, पुर्तगाली, रसियन व अन्य विदेशी भाषाओं के अध्ययन की भी व्यवस्था होगी जिससे वैश्विक परिदृश्य को एक छात्र उसी भाषा में समझ सके। जैसा कि भारतीय भाषा में वो विदेशी संस्कृति और सभ्यता को समझेगा ।
नई शिक्षा नीति 2020 के निर्माण में जिन बातों को प्रमुखता से रखा गया है उनमें से एक है कक्षा 1 से ही छात्रों को शब्द, ध्वनि, रंग, आकार , संख्या आदि का ज्ञान देना । प्राइवेट विद्यालयों द्वारा ली जाने वाली महंगी फीस के एवज में स्कूल द्वारा स्मार्ट क्लास रूम में तो इसमें से बहुत कुछ छात्रों को सिखा पाना सम्भव है लेकिन सरकारी स्कूल की खस्ताहाल व्यवस्था के बीच सरकार इस बिंदु को कैसे देखती है यह उन्हें स्पष्ट करना चाहिए । आज भी देश में ‘स’ ‘श’ और ष के बीच अंतर को एक प्राइमरी का अध्यापक किस विधा से छात्रों को समझाता है यह किसी से छिपा नही है । सरौता वाला ‘स’ और खटकोण वाला ष के बीच उलझा हुआ अध्यापक शब्द ध्वनि को उस प्राइमरी की कक्षा में जब तक सही तरीके से अभिव्यक्त नही करेगा बड़ा होकर वह छात्र भारतीय भाषाओं का अच्छा अध्येता कैसे बनेगा । वहीं ध्वनियाँ और रंग व आकार के लिए अध्यापक को वो मूलभूत ज़रूरतें क्या सरकार उपलब्ध करा पाएगी जिससे कक्षा 1 के छात्र को इस तकनीकी युग में समझा सके ।
नई शिक्षा नीति के बिंदु क्रमांक 3.2 में जिस चिंता को व्यक्त किया गया है उस पर हमें ज़रूर ध्यान देना चाहिए लेकिन जब यह नई शिक्षा नीति बन कर तैयार थी उसी समय देश में कोरोना का क़हर हमारे बीच ढाने लगा । उसके नतीजे ये हुए कि जहाँ विद्यालय के 20 फ़ीसदी छात्र ड्रॉप आउट हुआ करते थे उनकी संख्या 80 फ़ीसदी तक हो गयी । बच्चों को वापस स्कूल में लाने की जद्दोजहद जो सरकार नई शिक्षा नीति में कर रही थी उसके मानक उन्हें कोरोना के निष्कर्षों के बाद और भी बदलने की ज़रूरत है । आप देखिए करीब 2 सालों में स्कूल खुले नही हैं । सरकारी स्कूल के अध्यापकों की अपनी क्या नैतिक जिम्मेदारी उन छात्रों के अध्ययन की सक्रियता को बनाए रखने की रही है यह शोध का विषय है । एक एक पहलू यह भी है कि जब से कोरोना महामारी फैली है सरकारी अध्यापक जैसे दूसरे विभागों के सहायक के रूप में ख़ुद को शिफ्ट कर चुके हैं । अपने आस पास के अध्यापकों से कभी पूछिएगा कि उन्होंने अध्यापन कितने दिनों से नही किया । क्योंकि वो उन वर्ग समूहों में अध्यापन करते हैं जहाँ डिजिटल मीडिया की पहुँच का प्रतिशत काफी गिरा हुआ है ।
नई शिक्षा नीति का सबसे महत्वपूर्ण चर्चा का विषय यह बिंदु भी है कि कक्षा 6 से 8 में पढ़ने वाले छात्रों को दस दिन के बस्ता रहित पीरियड में भाग लेने और वें उसमें स्थानीय व्यावसायिक कार्य जैसे बढ़ई, माली, कुम्हार, के अलावा अन्य घरेलू औजार से जुड़े कामों में दक्ष होने की बात कही जा रही है । यहाँ गौरतलब है कि प्राथमिक स्कूल में पढ़ने वाले विद्यार्थियों में अधिकतर मजदूर, किसान व लोअर मिडिल क्लास परिवारों के होते हैं । ऐसे में उन्हें इन कामों को सीखने के बाद क्या जिम्मेदारी है कि उनके परिवार के लोग, जो ख़ुद दो वक़्त की रोटी के लिए संघर्ष कर रहे होते हैं वो उन्हें उन्हीं कामों में नही लगा देंगे । कहीं न कहीं यह बाल श्रम के अधिकारों का हनन को बढ़ावा देने जैसा प्रतीत हो रहा है । इसका दूसरा पहलू यह भी है कि अगर यह पाठ्यक्रम देश के सभी स्कूल में समान रूप से लागू हो और इसमें सरकारी नौकरी प्राप्त व्यक्ति के परिवार के एक छात्र का नामांकन सरकारी स्कूल में अनिवार्य हो तो इसमें सुधार की गुंजाइश बढ़ जाएगी अन्यथा ये एक तरह का वर्ण व्यवस्था को आगे बढ़ाने जैसा प्रतीत होता दिखता है । बढ़ई का लड़का बढ़ई, मोची का लड़का मोची बनकर वह परिवार को चलाता रहेगा ।
नई शिक्षा नीति के एक और पहलू बेहद चिंताजनक है । स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षकों की नियुक्ति को लेकर नई शिक्षा नीति में स्पष्ट रूप से कहा गया कि विशेषकर ग्रामीण पृष्ठ भूमि से जुड़े लोग शिक्षण के पेशे में आएँ इसके लिए 4 वर्षीय बीएड को आरम्भ किया जाएगा । देश में अभी भी लाखों बीएड, बीटीसी, व अन्य शिक्षक बंने की अनिवार्यता लिए लोग घूम रहे हैं, सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं, ऐसे में एक और नई अर्हता से शायद कुछ समय तक इस प्रश्न को सरकार टालना चाहती हुई दिखती है कि रोजगार कहाँ हैं ?
स्कूल के भवन का इस्तेमाल अध्ययन अध्यापन से ज़्यादा शादी समारोह में, होना यह बताता है कि हम अपनी शिक्षा के प्रति कितना चिंतित हैं । भारत के किसी भी ज्ञान के मंदिर की इस हालत को कोई झुठला नही सकता । वैश्विक संदर्भ में भारत दुनिया का इकलौता देश होगा जहां विद्यालयों का इस्तेमाल धार्मिक और पारंपरिक आयोजनों के लिए होता है ।
नई शिक्षा नीति जिस समग्र विकास की बात करते हुए यह कह कहना चाह रही है कि अतिरिक्त पाठ्यक्रम के तौर पर दूसरे विषयों को पढ़ा जाए । उनके डिग्री डिप्लोमा आदि लिया जाए । ज्ञान के अर्जन के हिसाब से इस फैसले का कोई तोड़ नही लेकिन जब देश में बेरोजगारी चरम पर है ऐसे में शिक्षा के समान अवसर जैसे तैसे मिल जाने के बावजूद देश में स्पेशल ड्राइव निकाल कर वर्ग विशेष की वैकेंसी को भरा जा रहा हो तो कई बड़े सवाल खड़े होते हैं ।
जब कोई छात्र किन्हीं दो विषयों पर अध्ययन कर सकता है तो उसे उन्हीं दोनों विषयों में रोजगार के लिए सिर्फ़ एक विषय की अनिवार्यता क्यों रखी गयी है इस पर भी नई शिक्षा नीति में फिर से सोचने की ज़रूरत है ।
सीधे तौर पर नई शिक्षा नीति 2020 के कई सकारात्मक और नकारात्मक पक्षों के बीच देश के नीति निर्माताओं को वर्तमान चुनौतियों को भी शामिल करना चाहिए । जिससे इन चुनौतियों से निपटने के असर दिखने शुरू हो । नई यह नीति भी मात्र 1986 और 1992 की तरफ़ सिर्फ़ काग़ज़ पर ही संशोधित होकर मात्र रह जाएगी ।
डॉ मनीष जैसल
लेखक जनसंचार एवं पत्रकारिता विभाग, आईटीएम विश्वविद्यालय ग्वालियर में सहायक प्रोफ़ेसर हैं ।
Mo. 9616730363, 8530670363
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ReplyDeleteराष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986