- शैलेन्द्र चौहान
अपराधियों का चुनाव प्रक्रिया में भाग लेना हमारी निर्वाचन व्यवस्था का एक अवांछित आवश्यक अंग बन गया है। यह कड़वी सचाई है। विगत में जारी आँकड़ों के अनुसार, संसद के 46 प्रतिशत सदस्य आपराधिक पृष्ठभूमि से हैं। असल चिंता का विषय यह है कि मौजूदा लोकसभा सदस्यों में सर्वाधिक (29 प्रतिशत) सदस्यों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जबकि पिछली लोकसभा में यह आँकड़ा तुलनात्मक रूप से कम था। राजनीति का अपराधीकरण भारतीय लोकतंत्र का एक स्याह पक्ष है, जिसके मद्देनज़र सर्वोच्च न्यायालय और निर्वाचन आयोग ने कई कदम उठाए हैं, किंतु इस संदर्भ में किये गए सभी नीतिगत प्रयास समस्या को पूर्णतः संबोधित करने में असफल रहे हैं।
राजनीति के अपराधीकरण का अर्थ राजनीति में आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे लोगों और अपराधियों की बढ़ती भागीदारी से है। सामान्य अर्थों में यह शब्द आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों का राजनेता और प्रतिनिधि के रूप में चुने जाने का घोतक है।
वर्ष 1993 में वोहरा समिति की रिपोर्ट और वर्ष 2002 में संविधान के कामकाज की समीक्षा करने के लिये राष्ट्रीय आयोग (NCRWC) की रिपोर्ट ने पुष्टि की है कि भारतीय राजनीति में गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों की संख्या बढ़ रही है।
वर्तमान में ऐसी स्थिति बन गई है कि राजनीतिक दलों के मध्य इस बात की प्रतिस्पर्द्धा है कि किस दल में कितने उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं, क्योंकि इससे उनके चुनाव जीतने की संभावना बढ़ जाती है।
पिछले लोकसभा चुनावों के आँकड़ों पर गौर किया जाए तो स्थिति यह है कि आपराधिक प्रवृत्ति वाले सांसदों की संख्या में वृद्धि ही हुई है। उदाहरण के लिये वर्ष 2004 में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या 128 थी जो वर्ष 2009 में 162 और 2014 में 185 और वर्ष 2019 में बढ़कर 233 हो गई।
नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म (ADR) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार, जहाँ एक ओर वर्ष 2009 में गंभीर आपराधिक मामलों वाले सांसदों की संख्या 76 थी, वहीं 2019 में यह बढ़कर 159 हो गई। इस प्रकार 2009-19 के बीच गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या में कुल 109 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखने को मिली।
गंभीर आपराधिक मामलों में बलात्कार, हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण, महिलाओं के विरुद्ध अपराध आदि को शामिल किया जाता है।
अपराधियों का पैसा और बाहुबल राजनीतिक दलों को वोट हासिल करने में मदद करता है। चूँकि भारत की चुनावी राजनीति अधिकांशतः जाति और धर्म जैसे कारकों पर निर्भर करती है, इसलिये उम्मीदवार आपराधिक आरोपों की स्थिति में भी चुनाव जीत जाते हैं।
चुनावी राजनीति कमोबेश राजनीतिक दलों को प्राप्त होने वाली फंडिंग पर निर्भर करती है और चूँकि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों के पास अक्सर धन और संपदा काफी अधिक मात्रा में होता है, इसलिये वे दल के चुनावी अभियान में अधिक-से-अधिक पैसा खर्च करते हैं और उनके राजनीति में प्रवेश करने तथा जीतने की संभावना बढ़ जाती है।
भारत के राजनीतिक दलों में काफी हद तक अंतर-दलीय लोकतंत्र का अभाव देखा जाता है और उम्मीदवारी पर निर्णय मुख्यतः दल के शीर्ष नेतृत्व द्वारा ही लिया जाता है, जिसके कारण आपराधिक पृष्ठभूमि वाले राजनेता अक्सर दल के स्थानीय कार्यकर्त्ताओं और संगठन द्वारा जाँच से बच जाते हैं। भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में अंतर्निहित देरी ने राजनीति के अपराधीकरण को प्रोत्साहित किया है। अदालतों द्वारा आपराधिक मामले को निपटाने में औसतन 15 वर्ष लगते हैं।
‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ (FPTP) निर्वाचन प्रणाली में सभी उम्मीदवारों में से सबसे अधिक मत प्राप्त करने वाला उम्मीदवार विजयी होता है, चाहे विजयी उम्मीदवार को कितना भी (कम या अधिक) मत क्यों न प्राप्त हुआ हो। इस प्रकार की प्रणाली में अपराधियों के लिये अपने धन और बाहुबल का प्रयोग कर अधिक-से-अधिक मत हासिल करना काफी आसान होता है।
निर्वाचन आयोग की कार्यप्रणाली में मौजूद खामियाँ भी राजनीति के अपराधीकरण का प्रमुख कारण हैं। चुनाव आयोग ने नामांकन पत्र दाखिल करते समय उम्मीदवारों की संपत्ति का विवरण, अदालतों में लंबित मामलों, सज़ा आदि का खुलासा करने का प्रावधान किया है। किंतु ये कदम अपराध और राजनीति के मध्य साँठगाँठ को तोड़ने की दिशा में अब तक सफल नहीं हो पाए हैं।
भारत की राजनीति में अपराधीकरण को बढ़ावा देने में नागरिक समाज का भी बराबर का योगदान रहा है। अक्सर आम आदमी अपराधियों के धन और बाहुबल से प्रभावित होकर बिना जाँच किये ही उन्हें वोट दे देता है।
इसके अलावा भारतीय राजनीति में नैतिकता और मूल्यों के अभाव ने अपराधीकरण की समस्या को और गंभीर बना दिया है। अक्सर राजनीतिक दल अपने निहित स्वार्थों के लिये अपराधीकरण की जाँच करने से कतराती हैं।
राजनीति के अपराधीकरण का प्रभाव
देश की राजनीति और कानून निर्माण प्रक्रिया में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों की उपस्थिति का लोकतंत्र की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
राजनीति के अपराधीकरण के कारण चुनावी प्रक्रिया में काले धन का प्रयोग काफी अधिक बढ़ जाता है।
राजनीति के अपराधीकरण का देश की न्यायिक प्रक्रिया पर भी प्रभाव देखने को मिलता है और अपराधियों के विरुद्ध जाँच प्रक्रिया धीमी हो जाती है।
राजनीति में प्रवेश करने वाले अपराधी सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं और नौकरशाही, कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका सहित अन्य संस्थानों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
राजनीति का अपराधीकरण समाज में हिंसा की संस्कृति को प्रोत्साहित करता है और भावी जनप्रतिनिधियों के लिये एक गलत उदाहरण प्रस्तुत करता है।
वर्ष 2002 में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार बनाम एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफाॅर्म वाद में ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि संसद, राज्य विधानसभाओं या नगर निगम के लिये चुनाव लड़ने वाले प्रत्येक उम्मीदवार को अपनी आपराधिक, वित्तीय और शैक्षिक पृष्ठभूमि की घोषणा करनी होगी।
वर्ष 2005 में रमेश दलाल बनाम भारत सरकार वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एक संसद सदस्य (सांसद) या राज्य विधानमंडल के सदस्य (विधायक) को दोषी ठहराए जाने पर चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहराया जाएगा और उसे अदालत द्वारा 2 वर्ष से कम कारावास की सज़ा नहीं दी जाएगी।
वर्ष 2013 में लिली थॉमस बनाम भारत सरकार वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8(4) असंवैधानिक है, जो दोषी ठहराए गए सांसदों और विधायकों को तब तक पद पर बने रहने की अनुमति देती है, जब तक कि ऐसी सज़ा के विरुद्ध की गई अपील का निपटारा नहीं हो जाता।
जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 दोषी राजनेताओं को चुनाव लड़ने से रोकती है। लेकिन ऐसे नेता जिन पर केवल मुकदमा चल रहा है, वे चुनाव लड़ने के लिये स्वतंत्र हैं। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन पर लगा आरोप कितना गंभीर है।
इस अधिनियम की धारा 8(1) और 8(2) के अंतर्गत प्रावधान है कि यदि कोई विधायिका सदस्य (सांसद अथवा विधायक) हत्या, बलात्कार, अस्पृश्यता, विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम के उल्लंघन; धर्म, भाषा या क्षेत्र के आधार पर शत्रुता पैदा करना, भारतीय संविधान का अपमान करना, प्रतिबंधित वस्तुओं का आयात या निर्यात करना, आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होना जैसे अपराधों में लिप्त होता है, तो उसे इस धारा के अंतर्गत अयोग्य माना जाएगा एवं 6 वर्ष की अवधि के लिये अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा।
वहीं, इस अधिनियम की धारा 8(3) में प्रावधान है कि उपर्युक्त अपराधों के अलावा किसी भी अन्य अपराध के लिये दोषी ठहराए जाने वाले किसी भी विधायिका सदस्य को यदि दो वर्ष से अधिक के कारावास की सज़ा सुनाई जाती है तो उसे दोषी ठहराए जाने की तिथि से आयोग्य माना जाएगा। ऐसे व्यक्ति को सज़ा पूरी किये जाने की तिथि से 6 वर्ष तक चुनाव लड़ने के लिये अयोग्य माना जाएगा।
वर्ष 2013 में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ बनाम भारत सरकार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि जनता को मतदान के लिये नोटा (none of the above-NOTA) का भी विकल्प उपलब्ध कराया जाए।
इस आदेश के पश्चात् भारत नकारात्मक मतदान का विकल्प उपलब्ध कराने वाला विश्व का 14वाँ देश बन गया था।
वर्ष 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों से ऐसे व्यक्तियों को अपने मंत्रिमंडल में शामिल न करने की सिफारिश की जिनके विरुद्ध गंभीर अपराध के आरोप लगे हैं। वर्ष 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने जन-प्रतिनिधियों के खिलाफ मामलों के त्वरित निस्तारण हेतु विशेष अदालतों के गठन का आदेश दिया था। विशेष न्यायालय एक ऐसी अदालत है जो कानून के किसी विशेष क्षेत्र से संबंधित होती है।
आवश्यक है कि राजनीति में अपराधियों की बढ़ती संख्या पर रोक लगाने के लिये कानूनी ढाँचे को मज़बूत किया जाए।
राजनीतिक दलों को अपना नैतिक दायित्व निभाते हुए गंभीर अपराध में दोषी ठहराए गए लोगों को दल में शामिल करने और उन्हें चुनाव लड़वाने से बचना चाहिये। इसके अलावा आम जनता के मध्य जागरूकता फैलाए जाने की भी आवश्यकता है ताकि जनता आपराधिक पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशियों का चुनाव ही न करें।
मो. 7838897877
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