Krishan pal Singh-
कश्मीर फाइल्स फिल्म 32 वर्ष पहले घाटी में बर्बर और पाशविक अत्याचार के बल पर उजाड़े गये कश्मीरी पंडितों की कहानी को नये सिरे से सुनाती है। लेकिन क्या इसे निरपेक्ष रूप से एक मार्मिक फिल्म भर कहा जा सकता है। निश्चित रूप से इसके पीछे राजनीतिक दुराशय है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती और इसने फिल्म के नैतिक पक्ष को संदिग्ध बना दिया है। सबसे बड़ी आपत्तिजनक बात यह है कि इस फिल्म की आड़ में जो विमर्श खड़ा किया जा रहा है उसका मकसद इसके पहले के देश के सारे भाग्यविधाताओं को एक लाइन से हिन्दू विरोधी और देश विरोधी साबित करना है। यहां तक कि भाजपा की ही पार्टी के सबसे बड़े यशस्वी राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी पर भी इस तरह के छींटे पड़ने की परवाह नहीं की गई है। हर प्रसंग पर तत्कालीन भाग्य विधाताओं का फैसला परिस्थिति सापेक्ष होता है और वर्तमान की बदली हुई परिस्थिति में उस फैसले के आधार पर उनकी मंशा को लेकर कोई निष्कर्ष निकालने में बहुत सावधानी की जरूरत पड़ती है अन्यथा उनके साथ न्याय नहीं हो सकता।
यह सभी जानते हैं कि नये भारत का निर्माण हिन्दुओं और मुसलमानों के एक मंच पर रहने से ही हो सकता है ऐसा विचार कोई कांग्रेस का आविष्कार नहीं था। यह विचार तब से था जब आजादी की पहली लड़ाई यानी 1857 का स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया था। इस लड़ाई में दोनों समुदायों ने भारी कुर्बानी दी थी। अगर लड़ाई जीत ली गई होती तो दोनों समुदाय बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में नये भारत की हुकूमत बनाते जबकि जफर के बारे में यह विदित था कि वह शायद ही मजबूत शासक साबित होगा क्योंकि वह मूलतः शायर था और उसके मिजाज में इसी के अनुरूप नजाकत थी। दूसरी ओर तमाम हिन्दू राजा इस लड़ाई में शरीक थे जो अदभुत रूप से शूरवीर थे लेकिन मुगल बादशाहत को स्वीकार करना ही उस समय एक ऐसा बिन्दु नजर आ रहा था जिसमें राजाओं और नवाबों के अहम का टकराव विलीन हो सकता था।
लड़ाई विफल होने के बाद फूट डालो राज करो की नीति में विश्वास करने वाले अंग्रेजों ने दोंनों समुदायों में दुराव पैदा करने के लिए तमाम बौद्धिक षणयंत्र रचे जिनकी एक लंबी कहानी है ताकि उनका यहां का उपनिवेश दीर्घजीवी हो सके। जाते-जाते उन्होंने धूर्तता नहीं छोड़ी। जिन्ना को मोहरा बनाकर उन्होंने न केवल देश के दो टुकड़े कराये बल्कि देशी रियासतों को अपने हिसाब से फैसले लेने का अधिकार देकर ब्रिट्रिश भारत की विरासत को खंड-खंड करके छोड़ जाने का इंतजाम किया। खैर भारत पाकिस्तान के बंटवारे में भी खून की जबरदस्त होली खेली गई। हजारों हिन्दुओं और सिखों का पाकिस्तान में बेरहमी से कत्ल हुआ। इस भीषण खूंरेजी के जख्मों के बावजूद नये नवाले आजाद भारत की आत्मा हिन्दू मुस्लिम एकता पर आधारित समाज को रूपायित करने में इस कदर बसी हुई थी कि कोई दर्द इस रूमानियत को हल्का नहीं कर सका। भारत इस बात से खुश था कि उसने दुनिया के सामने एक ऐसा नमूना पेश करने में सफलता पायी है जिसमें मुसलमान इतनी बड़ी संख्या में होते हुए भी दूसरे समुदाय के साथ रहकर खुशनुमा जिंदगी जीने का सलीका दिखा पा रहे हैं। इस्लाम के साहचर्य का ऐसा उदाहरण दुनिया में कोई दूसरा नहीं था जिस पर हमारा इतराना स्वाभाविक था। लेकिन आज यह निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि कांग्रेस भारत को इस्लामिक राष्ट्र में बदलने के लिए हिन्दुओं को नेस्तनाबूत करने का षणयंत्र रच रही थी इससे ज्यादा शरारतपूर्ण कुछ नहीं हो सकता।
पहले प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल नेहरू से लेकर आज के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक देश के किसी भाग्य विधाता पर यह संदेह करना पाप है कि उनमें से कोई कुर्सी पर बैठकर देश के खिलाफ काम करने वाला था। किसी की नीतियों में चूक हो सकती है लेकिन देश के प्रति निष्ठा में नहीं।
इंदिरा गांधी में मोदी की तरह ही उग्र राष्ट्रवाद की झलक थी। उन्होंने पाकिस्तान के दो टुकड़े करवाये और सिक्किम व अरूणाचल प्रदेश को चीन के कोप की परवाह न करते हुए भारत का अंग बनाने का साहस दिखाया जो राष्ट्रवाद की पराकाष्ठा का प्रदर्शन था। इसी कारण अमेरिकन खुफिया एजेंसी सीआईए ने पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई को शह देकर भारत में अलगाववादी आंदोलन खड़े करा दिये। राष्ट्रवाद के कारण ही इंदिरा गांधी आपरेशन ब्लू स्टार जैसा कदम उठाने की दिलेरी दिखा सकी जिसका खामियाजा उन्हें अपने बलिदान से चुकाना पड़ा।
अलगाववाद की इस लहर को थामने के लिए राष्ट्रवाद के कारण ही कांग्रेस ने काफी बड़ा दिल दिखाया। इंदिरा गांधी न सिर्फ देश की प्रधानमंत्री थी बल्कि राजीव गांधी की तो मां थी लेकिन व्यक्तिगत प्रतिशोध को राष्ट्रहित पर हावी न होने देकर उन्होंने उन अकालियों के साथ लोंगोवाल समझौता किया जिन्हें इंदिरा गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार माना जा रहा था। इससे खालिस्तानी आंदोलन ढ़ीला पड़ा। अंततोगत्वा पंजाब में सिखों को बड़े पैमाने पर विश्वास में लेकर कांग्रेस आतंकवाद की रीढ़ तोड़ सकी और सामान्य स्थिति की बहाली करा सकी। इसी दौरान कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन पैर पसारने लगा। 1989 में कांग्रेस की सरकार का पतन हो गया और वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने। उन्होंने मुफ्ती मुहम्मद सईद को गृहमंत्री नियुक्त किया। मुफ्ती पहले से ही कश्मीर में कांग्रेस के सम्मानित नेता रह चुके थे उन पर उस समय तक कोई दाग नहीं था। उन्हें नियुक्त करने के पीछे वीपी सिंह की कोई बदनीयती नहीं थी बल्कि यह मुसलमानों को और मजबूती के साथ देश की मुख्य धारा से जोड़ने का उपक्रम था। उन्हें यह विश्वास दिलाने का प्रयास था कि देश को किसी भी संवेदनशील पद को उन्हें सौंपने में हिचक नहीं हो सकती बशर्ते उनमें देश के साथ निभाने की ईमानदारी हो। इस कसौटी पर एपीजे अब्दुल कलाम खरे साबित हुए और सारा देश उन्हें आने वाले समय में भी श्रृद्धा से नवाजता रहेगा। मुफ्ती ने उन्हें जिस विश्वास से गृहमंत्री सौंपा गया था उसको कितना निभाया यह विवाद का विषय रहेगा पर इसके पीछे वीपी सिंह की जो मंशा थी बीजेपी भी प्रकारांतर से उससे सहमत रही इसलिए उसने इस पर कोई आपत्ति नहीं की जबकि वीपी सिंह की सरकार बाहर से उसके समर्थन पर टिकी थी। बहरहाल वीपी सिंह की सरकार भी कुछ समय में ही गिर गई, इसके बाद चन्द्रशेखर चार महीने के लिए प्रधानमंत्री बने। अस्थिरता के इस दौर में देश कश्मीर को लेकर उतना तवज्जो नहीं दे पाया जितनी दरकार थी। बाद में नरसिंहाराव के नेतृत्व में कांग्रेस फिर सत्ता में आयी जिनकी भाजपा बेहद प्रशंसक है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने कश्मीरी पंडितों के साथ न्याय करने में जान बूझकर कोई कमी की होगी। बाद में फिर संयुक्त मोर्चो की सरकारों का दौर आया तब तक कश्मीर में हालात बेकाबू हो चुके थे।
इसके बाद सात वर्षो तक भाजपा के नेतृत्व में राजग की सरकार पदारूढ़ रही। उस समय किसी की कल्पना में यह नहीं था कि कश्मीर समस्या का हल वहां के अलगाववादियों को विश्वास में लिये बिना हो सकता है। धारा 370 हटाने की बात तो पैंडिंग में ही डाल दी गई थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने तो कश्मीर समस्या के हल के लिए कह दिया था कि भूगोल तो नहीं बदलेंगे लेकिन संविधान में और रियायतों की व्यवस्था की जा सकती है यानी कश्मीर को 370 से ज्यादा की रियायतें दी जा सकती हैं। वाजपेयी सरकार ने इस तरह की पेशकश की थी तो क्या यह माना जाये कि वाजपेयी की देश भक्ति में किसी तरह की खोट थी।
काफी बाद में कांग्रेस में सोनिया गांधी का युग शुरू हुआ और डा0 मनमोहन सिंह के नेतृत्व में 10 वर्ष तक संप्रग की सरकार रही। इसके बाद जब पहली बार नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उनके पास भी कश्मीर समस्या के हल को लेकर कोई निर्णायक विचार नहीं था। पहले देश सोच रहा था कि कश्मीर के अलगाववादी भी एक दिन पंजाब के आतंकवादियों की तरह पस्त हो जायेंगे तब तक उनसे बातचीत का क्रम बनाये रखा जायेगा और इसके बाद बातचीत से ही समस्या का हल निकल आयेगा।
पहले कार्यकाल में मोदी भी इस राय के थे। उन्होंने मुफ्ती से कश्मीर में गठबंधन सरकार चलाने का समझौता किया तो क्या उस समय उनकी नीयत में खोट था। बात यह थी कि उस समय कश्मीर की अंधेरी सुरंग को भेदने का कोई दूसरा रास्ता मोदी को भी नहीं सूझ रहा था। मोदी पार्ट-2 में अनुच्छेद 35 ए और अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने जैसे निर्णायक कदम उठाये जा सके। इस तरह निष्कर्ष यह निकलता है कि सभी ने कश्मीर में अलगाववाद से पार पाने के अपने तई प्रयास किये।
पर क्या इसमें मोदी सरकार का अलग से कोई श्रेय नहीं है। ऐसा नहीं कहा जा सकता। निश्चित रूप से मोदी सरकार की दृढ़ता को नकारा नहीं जा सकता जो देश के लिए बहुत जरूरी हो गई थी। सोवियत संघ को अफगानिस्तान से खदेड़ने के लिए अमेरिका ने जिस तरह की जिहादी विचार धारा मुसलमानों में फैलायी उसका असर भारत में भी हुआ। भारतीय मुसलमानों के एक बड़े वर्ग का मिजाज भी बिगड़ गया था। अलगाववादी सुर प्रगतिशीलता के नाम पर पनपना दुर्भाग्य का एक पहलू था। कुछ ऐसे क्षेत्रीय दल उभरे जिन्होंने कांग्रेस से मुस्लिम समर्थन को हथियाने के लिए गैर जिम्मेदारी की इंतहा कर दी। क्रिकेट मैच में पाकिस्तान की जीत पर जगह-जगह मुस्लिम मोहल्लों में खुलेआम आतिशबाजी होने लगी और पाकिस्तान समर्थक नारे गूंजने लगे।
सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट और तमाम चिंतक भी कह उठे कि भारत में वैचारिक स्वतंत्रता जरूरत से कुछ ज्यादा हो रही है। इसके बावजूद हर सरकार अपने का असहाय महसूस कर रही थी क्योंकि कोई यह विश्वास नहीं कर सकता था कि मुसलमानों के वोट के बिना देश और अधिकांश प्रदेशों में कोई पार्टी अपनी दम पर सरकार बना सकती है। मोदी ने इस मामले में चमत्कार किया बिना मुस्लिम वोट के भारी बहुमत जुटाकर दिखा दिया। अतरराष्ट्रीय परिदृश्य भी पश्चिमी जगत के इस्लामी आतंकवाद के कारण थर्रा जाने से बदला। अरब जगत भी व्यवहारिक हो गया जिसे मोदी ने अपनी सूझबूझ से खूब कैश किया। सबसे बड़ी बात यह है कि इंटेलीजेंस सिस्टम को वर्तमान सरकार ने बहुत सुदृढ़ कर दिया है जिससे आतंकवाद का सफलतापूर्वक दमन हो पा रहा है। जिस तरह इंदिरा गांधी ने इस मामले में रामनाथ काव को तलाशा था वैसे ही मोदी ने अजीत डोभाल को तलाशा है। आज प्रगतिशीलता की आड़ में भी देश में कहीं अलगाववादी सुर के लिए गुंजाइश नहीं बची है। कश्मीर में आतंकवादियों के लिए एक दिन भी सर्वाइव करना मुश्किल है। हालांकि अभी कश्मीर समस्या के अंत की तार्किक परिणति तक पहुंचने के लिए कुछ और पड़ाव पार करने होंगे। यह सब बहुत साफ दिखायी दे रहा है और इस कारण भाजपा फिलहाल कई आने वाले चुनाव तक मजबूत रहने वाली है। ऐसे में मोदी को आजादी से अभी तक की सरकारों को बदनाम करने का ओछापन दिखाने की कोई जरूरत नहीं है।
K.P.Singh
Tulsi vihar Colony ORAI
Distt - Jalaun (U.P.)
Mob.No.09415187850
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