16.7.23

आदरणीय रामेश्वर पांडेय जी तो पीड़ित थे, मुलजिम नहीं

Rakesh Sharma-

बात आज जुबान पर आ ही गई है इसलिए आदरणीय रामेश्वर पांडेय जी की विनोदप्रियता और उनकी कुछ बातें जो आज तक नहीं भूला वे भी आप सभी के साथ साझा करने का प्रयास कर रहा हूं। दोस्तों पिछले कई महीनों से तकनीकी तौर पर अपंग था और संसाधनों की तंगी से जूझ रहा था इसी कारण उनके स्वर्गवास के बाद उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित नहीं कर पाया था। पिछले 23 साल पुरानी वे बातें आज भी यूं ही दिमाग में अंकित हैं। मैं ये सभी बातें इसलिए आप लोगों के सामने ला रहा हूं कि जिस व्यक्ति ने अपना पूरा जीवन लोगों की भलाई करने में बिताया वे इस सम्मान के हकदार हैं कि हमारी आगामी पीढ़ी के लोग उनके बारे में जरूर जानें।

आदरणीय अतुल जी भी अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन पत्रकारिता की दुनिया को निष्कलंक आगे बढ़ाने के लिए इन दोनों महानुभावों का योगदान में कभी कम नहीं आंकना हूं। एक दिन अतुल जी मेरी डेस्क से गुजर रहे थे तो अचानक रुक गए और मेरे द्वारा संपादित की जा रही खबर को देखने लगे और वर्तनी को लेकर  कुछ सवाल पूछे। उस समय मैं यह भी नहीं जानता था कि वे कौन हैं, लेकिन जैसे ही वे आगे बढ़े तो कई वरिष्ठ साथी आकर मेरे समाचार के संपादन को देखने लगे और घोषणा कर दी कि मुन्ना कल सुबह अपना बोरिया बिस्तर बांध लो और घर जाने के लिए अगली टिकट बुक करा लो। मैं बहुत परेशान और उस समय मेरी पत्नी अस्पताल में मेरे पहले बच्चे के जन्म के लिए भर्ती थी। पांडेय जी ने अगले दिन दोपहर में ही मुझे कार्यालय में किसी को संदेश भेजकर बुलवा लिया...
    
पत्रकारिता के जगत में आपके इर्द गिर्द जो भी पर घटनाएं घटती हैं उसके साक्षी मात्र हम ही नहीं होते हैं, परन्तु कुछ मामले इस तरह के होते हैं कि प्रत्यक्ष तौैर पर हम लोग एक मुलजिम नजर आते हैं लेकिन असल में हम पीड़ित होते हैं। इन अवस्थाओं की जानकारी हमें बाद में होती है तो उस समय सिर्फ पछतावे के अलावा कुछ किया नहीं जा सकता। भाई अमरीक ने हाल ही में अपनी तरफ से स्पष्ट किया है कि हर किसी का नजरिया किसी के लिए एक नहीं हो सकता और कुछ बातें हम इसलिए नजरअंदाज कर जाते हैं। किसी इंसान की अच्छी बातों को सिर्फ अपने कारणों से हम भुला दें तो उसे न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता...

आदरणीय रामेश्वर पांडेय जी को श्रद्धांजलि देने के लिए मैं त्वरित तौर पर संसाधनों की कमी के चलते मजबूर था, मेरे साथ जालंधर में जो भी घटनाक्रम गुजरा उसका जिक्र मैंने इसलिए नहीं किया कि लंबे समय के बाद अंदर की सारी बातें सामने आ गई थी। अपने लेख में मैंने ढके छिपे शब्दों में कुछ लोगों के नकारापन और घटियापन का जिक्र किया था। उन दिनों में मेरे साथ काम करने वाले भाई नवीन पांडेय, नवीन श्रीवास्तव , धर्मेंद्र ठाकुर आदि बता सकते हैं कि उस समय मैं किस परिस्थिति से गुजर रहा था। बहरहाल जब लंबे समय के बाद परिणाम सामने आए तो पांडेय जी के पास नीलकंठ बनने के अलावा कुछ ओर चारा भी नहीं था। इसका आभास मुझे तब हुआ था जब वे नोएडा में समीक्षा के लिए अटैच किए गए थे और मैं उनसे मिलने वहां गया था। बाद में हुई  मुलाकातों में उन्होंने ये कहा था कि  विरोध करने वाले लोगों ने जो किया कम से कम उसका कोई कारण तो था जिसके बारे में उन्हें पता था, लेकिन विरोध को हवा देने वाले लोग वे थे जिन्होंने उनके नाम पर मलाई काटी और आज कई मैडल सीने पर लगाए हैं।

लोगों के नकारापन को नाम सहित नहीं लिखता हूं लेकिन यदि फील्ड में भेजे गए पत्रकारों में से कुछेक को छोड़ दिया जाता तो बाकी सबको व्याकरण की बात तो छोड़िए  वाक्य विन्यास तक का ज्ञान नहीं था। इस बारे में यदि किसी को शक हो तो उस समय मेरे साथ  काम करने वाले वरिष्ठ साथी श्री भूरी सिंह, श्री इष्टदेव पांडेय जी शुक्ला जी मिश्रा जी से पूछ सकते हैं। फील्ड के कुछ बदनाम लोगों की बात तो छोड़िए उससे भी बड़े पदों पर बैठे एक व्यक्ति को तो इश्कबाजे के अलावा कोई काम नहीं था और पांडेय जी के बगल के केबिन में उनका समय व्यतीत होता था।

उससे बढ़कर भी सोने पर सुहागा जिन्हें आज बड़ा पत्रकार गिना जाता है एक दिन तो उन्होंने धागा चोरी की खबर को ऐसा घुमाया कि कोई ओर छोर ही पकड़ में नहीं आया।  माननीय पांडेय जी ने जब समाचार का संपादित पन्ना पढ़ा तो आवाज लगाकर कहा कि इस समाचार को पाठक कैसे समझेगा तो मेरी बगल में बैठने वाले भाई धर्मेंद्र ठाकुर ने दबी आवाज में डेस्क पर ही कहा कि पाठक बस्ता लेकर स्कूल पढ़ने जाएगा।

चलिए मेरा यहां यह सब बातें लिखना का तात्पर्य था कि अकेले ही श्री रामेश्वर पांडेय जी ने जालंधर की टीम तैयार नहीं की थी, लेकिन उनके द्वारा आशीर्वाद प्राप्त कुछ लोगों ने इतनी गंदगी फैलाई कि उसे साफ करना नामुमकिन हो गया था। दूसरी ओर प्रबंधन  में कुछ लोगों के साथ चलते आपसी शतरंज के खेल को गंभीरता से समय रहते नहीं समझ पाए। मेरे नजरिए से उन सब परिस्थितियों में पंजाब में विरोधी समाचार पत्रों की चुनौती का जबाव देने और रणनीतिक तौर पर  अमर उजाला को स्थापित करना उनका प्रथम लक्ष्य  था जो उन्होंने बड़ी कुशलता से हासिल किया। इमेरा यही मानना है कि पांडेय जी को कुछ अप्रिय घटनाओं का पहली नजर में जिम्मेदार माना जा सकता है लेकिन असल में  वे खुद एक पीड़ित थे। अपने हाथों लगाए बाग को कोई भी माली उजाड़ना नहीं चाहता।  यही कारण था कि कुछ दूषित पौधों पर कैंची चलाने की बजाए उन्होंने उन्हें उपचार से सही करने का प्रयास किया। इसी प्रयास के चलते आखिर में उन्हें नीलकंठ बनना पड़ा। 

अमीर फकीर थे रामेश्वर पांडेय जी

पिछले दिनों भाई अमरीक जी ने आदरणीय रामेश्वर पांडेय जी के बारे में विस्तार से लिखा जो काफी मायनों में पांडेय जी के जीवन के कुछ उन पहलुओं को भी उजागर करता है जिनसे आम तौर पर सभी रुबरु नहीं हो पाए थे। मैं इस लेख के जरिए दिवंगत आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करता हूं और उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। लेख में अमरीक जी ने आदरणीय निशीकांत ठाकुर जी का भी जिक्र किया। इन दोनों ही शख्सियतों को हिंदी पत्रकारिता जगत में असंख्य लोगों को रोजगार देने के लिए हमेशा याद किया जाएगा।

मैंने भी दो साल श्री पांडेय जी और लगभग आठ साल तक श्री निशीकांत ठाकुर जी के  मार्गदर्शन में काम किया और काफी ज्ञान भी अर्जित किया। दोनों ही व्यक्ति जहां अपने लोगों के लिए समर्पित थे वहीं ह्रदय से काफी सरल थे। किसी भी तरह से उन्होंने अपने दरवाजे पर आए किसी व्यक्ति को निराश नहीं किया जो उनकी दरियादिली को प्रदर्शित करता है।

अब मुद्दे की बात पर आते हुए बात करता हूं उस पहलू की जिसने इन व्यक्तियों को पीड़ा पहुंचाई और उनकी दबदबे की धार को कुंद कर दिया। दोनों ने ही अपने अपने ढंग से लोगों की भरपूर मदद की लेकिन उन्हीं के साये के नीचे पनपने वाले कुछ आस्तीन के सांप उन्हें डसने से बाज नहीं आए। अमरीक जी पत्रकारिता की राजनीति और अमर उजाला और दैनिक जागरण की कार्य पद्धति से बेहतर परिचित हैं और वरिष्ठ हैं, अगर मैं कहीं गलत बात लिख दूं तो उनसे अनुरोध है कि वे उसे दुरुस्त कर दें।

अमर उजाला के पंजाब एडिशन ने एक बात को हर किसी की जुबान पर ला दी थी कि जिनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं होती वे अमर उजाला के मंच से अपनी आवाज बुलंद कर सकते हैं। बहरहाल मुद्दे पर आते हुए बताता हूं कि आर्शीवाद प्राप्त कुछ लोग ऐसे थे जिन्हें आगे बढ़ने की बहुत महत्वाकांक्षा थी तो वे किसी भी तरह खुद को लाईन में आगे दिखाने की होड़ में जुट गए। जब कई लोगों में प्रतिस्पर्धा हुई तो मारकाट मच गई और खुद को बेस्ट चिलांडू  साबित करने के लिए हर कोई अपने अपने रास्ते पर चलने लगा। आग में घी का काम पंजाब में कुछ नजदीकी गिने जाने वाले पत्रकारों के व्यक्तिगत व्यवहार ने कर दिया। बात हाईकमान तक पहुंची तो उसका सबसे बड़ा असर पांडेय जी की प्रतिष्ठा को लगा। जिस संपादक की बात को काटने की प्रबंधन सोच भी नहीं सकता था वहीं उन पर सवालिया निशान लगने लगे। इस राजनीति का मोहरा मैं भी बना लेकिन मैं  उन बारीकियों को समझे बगैर अपने हक की लड़ाई का परचम लहरा रहा था खैर मैंने जो भी किया उसके लिए मैं उनसे काफी साल तक शर्मिंदा रहा लेकिन सेक्टर आठ नोएडा में अमर उजाला के पुराने कार्यालय में एक दिन उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने हंसते हुए गले से लगा लिया। इसके बाद मैं लगातार दो तीन बार उनसे मिलने नोएडा के कार्यालय में गया। खैर उस समय तक जो कुछ होना था वो घट चुका था और बात यही सामने आई कि कुछ लोगों के घटियापन और कुछ लोगों के निकम्मेपन की सजा के तौर पर श्री पांडेय जी को शिव की तरह सारा विष अपने गले में उतारना पड़ा। उनके व्यवहार और चरित्र से मैं एक बात जरूर सीख पाया कि वे एक अमीर फकीर थे जिन्होंने अपने जीवन और दिल में सभी को आश्रय दिया।    
राकेश शर्मा

paarthrakesh@gmail.com

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