14.2.24

मेरी मत मारी गई थी कि जो मैंने वो फिल्म लगाई!


सिद्धार्थ अरोड़ा 'सहर' 

2000 के पहले से सिनेमा देखने वाले जानते होंगे कि अपने देश की हॉरर फिल्म इतनी बड़ी कॉमेडी होती थी कि आज के बच्चे देख लें तो एक फिल्म से 100 दिन का मीम मटीरीअल निकाल लें। 

ऐसी ही एक फिल्म मेरे सामने भी आई। और पता नहीं क्यों, मैंने देखनी शुरु कर दी। फिल्म की कहानी पर बात कर सकूँ मैं इतना बड़ा चार्ली कॉफमैन नहीं हुआ पर कैरिक्टर्स के बारे में बताऊँ तो इसमें एक फियरलेस हीरो है, एक छोटी बच्ची शोना और उस बच्ची को नाश्ता बनाने के लिए लालायित एक चुड़ैल है जिसका नाम है ‘कालो’ और इसका रेसिज़्म से कोई लेना-देना नहीं है। 

मेरी देखी ये पहली फिल्म थी जिसका टाइटल फिल्म की चुड़ैल के नाम पर था न की हीरो के नाम पर (दूसरी ग़जीनी थी)। शुरुआत के 10 मिनट, आदित्य श्रीवास्तव की वजह से ये फिल्म मुझे CID का extended एपिसोड नज़र आने लगी थी। 

मैं आज भी हैरान हूँ कि आखिर उस छोटी सी उम्र में मैंने कौन सा अजीनोमोटो सूंघ लिया था कि इतनी अझेल फिल्म मैं बिना रुके पूरी देख गया। 

समय बीता तो समझ आया कि फिल्म में मुँह पर नेहा मेहँदी लगाये प्रेम चोपड़ा सी चुड़ैल से कहीं ज़्यादा थ्रिल आदित्य श्रीवास्तव की मौजूदगी ने बाँध दिया था। 

मैंने कालो के बाद गुलाल देखी थी। यहाँ आदित्य श्रीवास्तव नेगेटिव रोल में बेहतर परफॉर्मर लग रहे थे। उसके कुछ ही समय बाद मैंने सत्या देखी थी, उसमें श्रीवास्तव जी एक कार्ड बोर्ड पुलिस वाले नज़र आ रहे थे क्योंकि चेहरे पर कोई इक्स्प्रेशन और झोली में ढंग के डाइलॉग, दोनों का अकाल था। 

आइकानिक फिल्म बैन्डिट क्वीन में आदित्य श्रीवास्तव भी हैं, ये मुझे तीसरी बार देखने पर पता चला था। मेरी सीमित सिनेमा समझ ने ये मान लिया कि आदित्य श्रीवास्तव जी सीआईडी के अभिजीत से कभी एक इक्स्प्रेशन ज़्यादा तो कभी एक जेसचर कम एक्टिंग ही करना जानते हैं। 

पर फिर मैंने बीते दिनों भक्षक देखी। भूमि-पेडनेकर, संजय मिश्रा, साईं तमहनकर, दुर्गेश कुमार, अपने सत्यकाम भाई की शानदार अदाकारी के बीच, एक बेहद खास मुद्दे को उजागर करती थीम के अंदर, आदित्य श्रीवास्तव ने अपने फिल्मी करिअर के तीसरे दशक में ऐसी परफॉरमेंस दे दी है जो शायद आगे 300 सालों तक याद रखी जाएगी। 

आप यकीन कीजिए, बंसी साहू के किरदार में जो घटियापन, घिनौनापन, नीचता और बेशर्मी आदित्य श्रीवास्तव जी लेकर आए हैं, वो अब रेयर ही किसी विलेन में देखने को मिलती है। 

यहाँ तक की आखिरी सीन, बैकग्राउन्ड म्यूजिक में स्लो-मोशन से पुलिस सबको अरेस्ट कर रही है, बंसी साहू भी अरेस्ट हो गए हैं। मीडिया कैमराज़ चारों तरफ से उन्हें घेरे हुए हैं और ऐसे में आदित्य श्रीवास्तव के चेहरे पर एक मुस्कान आती है। 

ये एक ऐसी मुस्कान है जो पूरे सिस्टम की कार्यवाही को सर्कस बता रही है। जो आश्वस्त कर रही है कि ये घिनौनापन कभी खत्म नहीं होने वाला। ये मुस्कान बता रही है कि कोई जेल, थाना चौकी ज़्यादा समय के लिए बंसी साहू को बाँध नहीं पायेगा और इस मुस्कान में ये ढीटता झलकती है कि तुम चाहें जो कर लो, मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। 

ऐसी स्टेलर परफ़ॉर्मेंस को देखकर मेरे मन से यही निकलता है कि हमारा सिनेमा बीते 30 सालों में आदित्य श्रीवास्तव जैसे शानदार कलाकार को एक्सप्लोर ही नहीं कर पाया था। 

मेरे दिल से यही दुआ निकलती है कि ओटीटी का ये दौर यूँ ही हमारी इंडस्ट्री के जानदार कलाकारों को शानदार किरदार निभाने का मौका देता रहे। 

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