रविंद्र सिंह-
देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं जवाहर लाल नेहरू ने भारत को अन्न उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिए फैक्ट के प्रबंध निदेशक पॉल पोथन से चर्चा की तो उन्होंने सुझाव दिया कि सबसे पहले किसानों को भागीदार बनाकर उर्वरक उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाया जाए. यह वह समय था जब देश गरीबी और भुखमरी से जूझ रहा था. श्री पोथन ने 1965 में इफको की आधारशिला रखी और तीन साल बाद 1968 में उनको प्रबंध निदेशक बना दिया गया. इसके अलावा देश में अन्य उर्वरक संस्थानों की स्थापना उनके ही निगरानी में की गई.
पोथन का कार्यकाल 1981 तक रहा. देश में 60 के दशक में 70 फीसदी तक सहकारी समितियों में उर्वरक की बिक्री की जाती थी लेकिन इन समिति का अपना कोई उत्पादक कारखाना नहीं था. नवंबर 1967 को इफको की स्थापना किसानों की पहल से सहकारी भेत्र के रूप में कलोल और कांडला से की गई थी.
भारत सरकार ने इफको में 290 करोड़ का निवेश कर 70 प्रतिशत हिस्सेदारी अपने पास रखी और 30 प्रतिशत किसानों की थी तथा प्रबंध निदेशक को भारत सरकार द्वारा नियुक्त किया गया था जो वेतनभगी थे. सरकार और किसानों की हिस्सेदारी इसलिए रखी गई थी जिससे उनका हित बरकरार रहे. भारत कृषि प्रधान देश होते हुए अन्न उत्पादन में संकट से जूझ रहा था उस समय इफको की 57 समिति सदस्य थीं और अब बढ़कर 38155 समिति सदस्य हो चुकी थीं.
इफको प्रबंधन और किसानों की ईमानदारी से ही यह संस्था सरकार के नियंत्रण वाली सहकारी उर्वरक उत्पादन क्षेत्र में देश ही नहीं विश्व में भी पहले स्थान पर पहुंच कर दिन दोगुनी रात चौगुनी तरक्की की राह में आगे बढ़ रही थी. भारत सरकार के इफको में उर्वरक, कृषि और वित्त मंत्रालय के संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी को निदेशक नामित किया गया था ताकि संस्था में किसी प्रकार की मनमानी और अनियमित्ता न हो सके. अगर अन्न उत्पादन में भारत आगे बढ़ा है तो इसका श्रेय किसानों की संस्था इफको को ही जाता है.
अन्न दाता की संस्था को कैसे लूट खसोट और भ्रष्टाचार का अड्डा बनाया जा रहा यह सार्वजनिक है देश में सहकारी आंदोलन को मजबूती प्रदान करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 97वें संविधान की समीक्षा कर संस्ताओं को संवैधानिक माना जाता है. लेकिन इफको बोर्ड खुलेआम इसका अतिक्रमण कर रहा है और केंद्रीय रजिस्ट्रार पूरी तरह आंखे बंद कर नजारा देखते रहेहैं. भारतीय औद्योगिक घराने हमेशा देश में ही निवेश को बल देते आए हैं जिससे सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर्ज की जा सके. लेकिन इफको ने विदेश में कई परियोजनाएं संयुक्त उपक्रम के तहत चालू की हैं, इसके पीछे मंशा क्या थी कभी संसद में भी यह मुद्दा नहीं उठाया गया है. सन् 2004-05 से पहले इफको को वार्षिक आख्या में घाटे में दिखाया गया था जब सरकार का अंश धन वापस हो गया तो अचानक 150 करोड़ के फायदे में दिखा दिया गया.
इफको बायलॉज उप नियम 6-7 में परिवर्तन करने से पूर्व कृषि मंत्रालय ने उर्वरक मंत्रालय से (ड्राफ्ट रूल) तैयार करने के लिए नब्बे दिन का समय होते हुए 2 दिन पूर्व राय मांगी जो पूरी तरह से कानूनन गलत थी इसके बाद केंद्रीय रजिस्ट्रार ने भी बायलॉज पंजीकृत कर दिया. इफको के बोर्ड सदस्य पर संस्था की बेहतरी के लिए विदेश भ्रमण के नाम पर करोड़ों का खर्च और फंक्शनल सदस्य को बार-बार सेवा विस्तार देना किसानों के हित में नहीं था. सरकार का अंश धन बुक वैल्यू पर वापस न कर फेस वैल्यू पर किया गया है जो बहुत बड़ा घोटाला है, और तत्कालीन सरकार ने स्वीकार भी कर लिया है. देश में कई परियोजनाएं अस्तित्व में आने से पहले ही बंद हो गईं ऐसा होने के पीछे वजह क्या थी इस पर सरकार और मीडिया भी अपनी आंखे बंद किए हुए है.
कहने और सुनने में बहुत अच्छा लगता है कि इफको किसानों के द्वारा किसानों की संस्ता है अगर सही मायने में होती तो किसानों का अंश धन बढ़ाया जाता न की गैर किसानों का? देश के किसान गरीबी और कर्ज तले आत्म हत्या कर रहे हैं. इफको ट्रस्ट ने कब कहां कैसे और किसकी मदद की है यह सोचनीय है? खेतीहर किसान को मौसम और फसल की जानकारी देने के लिए इफको किसान संचार हवा में ही है और दावे पूरी तरह खोखले साबित हुए हैं. यह बात देश के हर राजनेता को पता है लेकिन किसी ने संस्था को बचाने के लिए चुनाव में न तो कोई बयान दिया और न ही मुद्दा बनाया है. मीडिया ने भी इफको को हमेशा खबर की दृष्टि से देखाऔर समस्या पर समस्या देश के सामने रखकर अपना पल्ला झाड़ लिया.
आज सरोकारी पत्रकारिता के बड़े-बड़े दावे करने वाले पत्रकार इफको में चल रही लूट मार को देश के सामने रखकर बचा सकते थे लेकिन कलम के सिपाही बनने से पहले ही अपनी आत्मा और ईमान को बेचते गये. ऐसे की नाम हैं जो पत्रकार से राज्य सभा सांसद तक का सफर तय कर चुके हैं?
इफको की स्थापना किसानों की आय कृषि उपज बढ़ाने के लिए की गई थी. देशभर की जिला सहकारी बैंक और किसान सेवा सहकारी समिति के माध्यम से किसानों को सदस्य बनाया गया था. किसान सेवा सहकारी समिति को प्राइमरी सहकारी समिति भी कहा जाता है. शुरू के दौर में गरीब और कृषि से जुड़े किसानों को 21 रूपये सदस्यता शुल्क लेकर हिस्सेदार बनाया गया था. जिससे वे अपनी केती की जरूरतों को समिति से पूरा कर सके. स्थापना के समय किसान के अंश की जो कीमत थी वह आज भी है. जबकि निजी कंपनी में 50 साल में उक्त अंश कई गुना बढ़ गया है ऐसे देश के भीतर कई उदाहरण हैं. आज सबसे बड़ा सवाल यह है की निजी कंपनी में अंश (शेयर) की कीमत 10 गुना तक बढ़ गई तो गरीब किसान के अंश की कीमत कैसे नहीं बढ़ी?
इफको की विकास यात्रा को देखें तो एक संयत्र से आज पूरे देश में 5 संयत्र स्थापित हो चुके हैं. किसानों के अंश धन से विदेश में लगे संयत्र का मुनाफा कब, कहां, कैसे और किसके लिए खर्च किया जा रहा है यह अध्ययन करने की अत्यंत आवश्यकता है. सन् 90 के दशक तक इफको में सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ संस्था पर संकट के बादल मंडराने लगे? आज गैर कृषिसंस्थाओं को तेजी से जोडा जा रहा है. कहने को इफको हर वित्तीय वर्ष के अंत में लाभांश देती है क्या यह लाभांश जमीन से जुड़े किसानों को मिल रहा है अगर नहीं तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है?
26 दिसंबर 2002 को इफको बायलॉज के उप नियम में यह कहते हुए परिवर्तन किया गया था कि किसानों की हिस्सेदारी उनकी खुशहाली बढ़ाने पर जोर दिया जाएगा. भारत एक विकासशील देश है इफको की स्तापना भी कृषि क्षेत्र को विकसित मजबूत करने के लिए की गई थी. फिर ऐसी कौन सी मजबूरी आन पड़ी जिससे इफको का उद्देश्य बदलकर गैर कृषि क्षेत्र में गरीब किसानों के ्ंश धन से निवेश करना पड़ा. क्या इफको ने सदस्य किसानों से राय लेकर निवेश किया या मुट्ठी भर बोर्ड सदस्य ने मनमानी कर अपना हित साधने के लिए निवेश को मंजूरी दी है. देश का किसान खेती में निवेश के लिए बैंक से ऋण लेता है तो उसे अपनी खेतीहर भूमि गिरवी रखनी पड़ती है अदायगी न करने की दशा में बैंक भूमि को बेचकर धन की वसूली कर लेते हैं.
यह कहानी उन किसानों की है जो अपने खून पसीने की मेहनत से आज हर चीज का उत्पादन कर रहे हैं. सबको पेट भर रोटी खिला रहे हैं और खुद भूखे व तंगहाल हैं. क्या ऐसे ही होगी इन मेहनत करने वालों की आय दोगुनी?
देश में गरीब किसान कर्ज तले दबकर तंगहाली में जी रहे हैं और आस पूरी न होनेपर आत्म हत्या कर रहे हैं. सहकारी समिति में बार-बार लोक तंत्र कायम होने की बात की जाती है अगर लोक तंत्र तो बोर्ड सदस्य किसान विरोधी निर्णय कैसे ले रहे हैं?
बरेली के पत्रकार रविंद्र सिंह द्वारा लिखित किताब ‘इफ़को किसकी?’ का पहला पार्ट.
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